आपको शायद अंदाजा नहीं है. इंटरनेट की दुनिया में छोटी-छोटी लघु फिल्मों के दम पर बड़ी-बड़ी फीचर फिल्मों जितना आनन्द देने वाले ‘शॉर्ट मूवी कल्चर’ पर इन दिनों धड़ाधड़ आ रहीं वेब सीरीज का खतरा मंडरा रहा है. कम अवधि में ज्यादा कहने वाली विधा को तराशने की जगह लंबी-लंबी बोझिल कहानियां कही जा रही हैं और नए के नाम पर ढेर सारी मात्रा में ऐसा कंटेंट बनाया जा रहा है जिनका मिजाज ‘सेम-टू-सेम’ हिंदी धारावाहिकों वाला है.
एकता कपूर भी अब ‘ऑल्ट बालाजी’ नाम से नया डिजिटल मंच तैयार कर चुकी हैं, जिसे नागेश कुकुनूर और राजकुमार राव के जुड़ाव की वजह से संभावनाओं वाली नजर से देखने का मन तो करता है, लेकिन जब ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ वाले राम कपूर और साक्षी तंवर यहां भी डेरा डाले हुए नजर आते हैं, तो नजरें फेर लेना बेहतर लगता है.
कुछ दिन पहले ‘ऑल्ट बालाजी’ ऐप को लांच करते वक्त एकता कपूर का कहा यह कथन फेरी हुई नजरों को ताज्जुब से भी भर देता है, ‘इस सर्विस का मकसद ‘नार्कोस’ से लेकर ‘नागिन’ तक की कहानियां कहना है!’ नेटफ्लिक्स पर आने वाली अमेरिकी सीरीज ‘नार्कोस’ जहां आज के वक्त की सर्वश्रेष्ठ वेब सीरीज में गिनी जाती है, वहीं एकता कपूर द्वारा निर्मित ‘नागिन’ सबसे ज्यादा टीआरपी पाने के बावजूद औसत से बेहद नीचे का सीरियसली नहीं लिया जा सकने वाला एक और रिग्रेसिव ‘सीरियल’ है. जब दर्शकों के लिए ‘नार्कोस’ और ‘नागिन’ को एक साथ एक सांस में सोचना ही कष्टप्रद विचार है – और लिखना भी – तब ऐसे में कैसे इस विचार के आसपास खड़ी एक सर्विस डिजिटल मीडियम में बेहतर कंटेट क्रिएट कर पाएगी, समझना मुश्किल है.
काफी ज्यादा संभावना है कि कुछ वक्त बाद यूट्यूब,ऐप्स और इंटरनेट का वह स्पेस जो नए मिजाज की कहानियों को कहने के लिए जाना जाता रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा अपने अंदाजे-बयां में टेलीविजन के डेली सोप जैसा हो जाएगा. गुणवत्ता का गुण राइटिंग स्टेज पर ही निकाल दिया जाएगा, लंबे-लंबे एपीसोड रचे जाएंगे और सीरीज दर सीरीज वही बातें फिर से कही जाएंगीं जो टेलीविजन पर दशकों से कही जाती रही हैं. बस इंटरनेट पर ‘कहानी कहने की आजादी’ के नाम पर बोल्ड दृश्यों और बोल्ड विषयों की खानापूर्ति होगी और पारंपरिक निर्माता कंपनियों को लगेगा - और वे आपसे कहेंगी भी - कि यही करना असल मायनों में ‘इंटरनेट फ्रीडम’ का डमरू बजाना है. ‘ऑल्ट बालाजी’ के यूट्यूब चैनल पर जाकर आप इन सभी बातों का सत्यापन कर सकते हैं.
इन्हीं आक्रामक आगमनों की वजह से, कम जाने पहचाने नामों वाली कम देखी गईं दिलचस्प ‘इंडी’ शॉर्ट फिल्मों का महत्व आज के समय में पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाता है. इनकी प्रोडक्शन वैल्यूज भले ही बालाजी के ऑफिस में मौजूद किसी एक क्यूबिकल बराबर भी नहीं, लेकिन जिनकी कहानियां और उन्हें कहने का जहीन अंदाज बरसों से धारावाहिकों का निर्माण कर रही एक पूरी की पूरी पारंपरिक संस्था को आत्मचिंतन करने पर मजबूर कर सकता है. बड़े चैनलों, स्टूडियोज और निर्माण कंपनियों द्वारा डिजिटल माध्यम का तेजी से बाजारीकरण करने के बीच यही स्वतंत्र प्रयास इंटरनेट के फ्री स्पेस की ताकत हैं, और इन शॉर्ट फिल्मों को ढूंढ़-ढूंढ़कर देखना हमारे वक्त की जरूरत. नहीं तो, एक दिन आएगा, जल्द ही, जब इंटरनेट, यूट्यूब और बाकी सभी डिजिटल माध्यम हमारे टेलीविजन की मिरर इमेज बन जाएंगे. और आप ही होंगे, जो सबसे पहले उन्हें दूसरा बुद्धू बक्सा बुलाएंगे.
ढूंढ़कर देखी जाने वाली ऐसी ही एक लघु फिल्म है ‘टैंपो’, जो हाल ही में यूट्यूब पर रिलीज हुई है. 13 मिनट की इस अनजानी लघु फिल्म का निर्देशन नवागंतुक रोहित राजरेणु शुक्रे ने किया है. घर बदलने की मशक्कत के दौरान सबसे ज्यादा काम आने वाली दो चीजों - लोडिंग टैंपो और सामान उठाने वाले शख्स के आसपास इसकी कहानी घूमती है. लेकिन इसकी सबसे खास बात है कि यह इतनी चतुर शॉर्ट है कि खुद को स्मार्ट समझने वाले दर्शकों से ज्यादा स्मार्ट है! कृपया देखकर समझिए, कि क्यों!
यह शॉर्ट देखकर और इसकी कहानी और एक्जीक्यूशन के हद कसीदे पढ़ने के अलावा आपने यह भी जान लिया होगा कि इसकी प्रोडक्शन वैल्यूज बड़े बजट का विलोम है और एडीटिंग से लेकर शॉट लेने तक में कई जगहों पर अनुभवहीनता झलकती है. लेकिन सिर्फ दो किरदारों के सहारे जिस नफीस अंदाज में यह अपनी दिलचस्प कहानी कहती है, आपके घर की हो जाती है. अपने अंत पर पहुंचने से पहले एक अनदेखी दुनिया का कुछ देर के लिए हिस्सा बनने वाले टैंपो ड्राइवर (मनोज भिषे, जो अपने निराले अभिनय से ‘अग्ली’ वाले गिरीश कुलकर्णी की याद दिलाते हैं) को केंद्र में रखती है. उसके लाइटर वाले मोह से आपका मनोरंजन करती है, एक मध्यम वर्गीय आदमी से खुद को कमतर नहीं मानने की उसकी जिद के सहारे हास्य पैदा करती है और घर के बाहर चप्पल उतारने के बाद टैंपो ड्राइवर को वापस उसे पहनाती है - क्योंकि जब घर का मालिक बिना जूते बाहर उतारे अंदर चला आया तो वह भी नंगे पांव क्यों ही रहे!
क्या आपको अभी भी लगता है कि इंटरनेट और यूट्यूब को हमारे टेलीविजन की मिरर इमेज बनाने में आमादा कई व्यावसायिक संस्थाएं सिर्फ 13 मिनट में इस स्तर का कुछ बेहतरीन रच सकती हैं? या फिर फिल्म निर्माण कंपनी होने के बावजूद जिस तरह पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘परोक्ष ’ जैसी आलातरीन शॉर्ट फिल्म दृश्यम फिल्म्स ने पेश की है, ये पारंपरिक और हद व्यावसायिक संस्थाएं ऐसी पेशकश कभी कर सकती हैं? विश्वास रखकर हां कहिए, क्योंकि दुनिया में है क्या, उम्मीद के सिवा!
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