मुंबई में किराए का मनपसंद घर मिलना किसी परबत पर नंगे पांव चढ़ने जैसा है. किराए की आतिशी दरों के अलावा यहां पगड़ी सिस्टम ऐसा चलता है कि डिपॉजिट के नाम पर बाकी देश में शायद ही इतनी लूटपाट कहीं मचाई जाती हो. मकान मालिक से लेकर सोसायटी के कर्ता-धर्ता सेक्रेटरी तक, चित भी अपने पास रखते हैं और पट भी. बेहिसाब ऊंची कीमतें वसूलने के बाद ऊलजलूल नियम-कायदों का सीसीटीवी आपके कंधों पर लगाया जाता है जो हरदम चेतावनी देता है कि आपको इन दड़बों में दबकर रहना है.
ऊपर से भरे-पूरे परिवारों के लिए किराए के घरों के पट आसानी से खुल जाते हैं. लेकिन अगर आप सिंगल हैं, या मुसलमान, या फिर लिव-इन के लिए प्रयासरत, या फिर ये तीनों ही, तो मालिक मकान से लेकर सोसायटी सेक्रेटरी तक के दर्जनों सवाल आपको चित्त कर देते हैं.
इसी रिवाज से बदला लेने के लिए ही शायद नवजोत गुलाटी ने ‘जय माता दी’ बनाई है! 10 मिनट की यह शॉर्ट फिल्म छोटी कहानियों से भी छोटी, यानी की लघुतम कथाएं लिखने वाले ‘टेरेबली टाइनी टेल्स’ नामक मंच की प्रस्तुति है. कहानी लिव-इन में रहने के लिए प्रयासरत दो मीडियाकर्मियों की है (जिस प्रोफेशन के लोगों को मुंबई में कार्पोरेट सेक्टर के बाशिंदों की तरह आसानी से निवास नहीं मिलता), जो इस देश के सबसे ज्यादा प्रोग्रेसिव शहर में साथ इसलिए नहीं रह सकते क्योंकि दोनों सिंगल है. ब्रोकर के शब्दों में ‘सिंगल कपल’ हैं. एक अविवाहित जोड़ा, जिसका बिना विवाह जुड़ना संस्कारों का तिरस्कार है!
लेकिन चूंकि मुंबई के ब्रोकरों के पास प्रवासियों की सारी समस्याओं का समाधान होता है, इसलिए इस लघु फिल्म का ब्रोकर (‘भाबीजी घर पर हैं’ वाले पागल सक्सेना जी) एक जुगाड़-रास्ता निकालते हैं. नायक या नायिका में से से कोई भी अपने मां या पिताजी को बुला ले और सोसायटी चेयरमैन को साथ रहने के लिए मना ले! इसके बाद मां आती हैं और फिर क्या होता है, आप खुद देखिए और इस लघु फिल्म के कायल बनिए (ऊपर वीडियो).
‘जय माता दी’ भले ही सतह पर एक मजाकिया टाइमपास कहानी कहती हुई लगती हो लेकिन प्रवासियों के सामने आने वाली रिहाइश की एक गंभीर समस्या पर यह विचारोत्तेजक चुटकी लेती है. बेहतर तरीके से राजनीतिक व्यंग्य भी करती है और शायद यही इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है. नेशनल एंटी-नेशनल की डिबेट को जिस व्यंगात्मक अंदाज में नवजोत गुलाटी ने स्क्रिप्ट में पिरोया है, काबिले-तारीफ निपुणता है. किसी भी दौर के सिनेमा के लिए, विचारों और आचारों की हिंसा में डूबे वर्तमान समय को फिल्मों में कैद कर पाना, बिना पटकथा की रोचकता खोए, आसान नहीं होता.
फिर छोटी सी इस फिल्म के पास ‘प्रोगेसिव हैं हम!’ जैसे इठलाते संवाद और संस्कारों पर वार करने का भी समय है और सिम्बोलिज्म का प्रयोग करते हुए एक चरखा भी, जो नहीं होता तो कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन है तो निर्देशक की अभिव्यक्ति की जिद को दर्शाने के काम आता है.
मनु ऋषि को लंबे अरसे बाद सोसायटी चेयरमैन की वजनी भूमिका में बढ़िया अभिनय करते हुए देख दिल खुश हो जाता है. उनकी भाव-भंगिमाएं आज भी ‘ओए लकी लकी ओए’ वाले स्तर की हैं और वे फिल्मों से क्यों गायब हैं, यह एक स्तरीय प्रश्न है.
चिढ़े रहने वाले बॉयफ्रेंड की भूमिका में शिव पंडित के रमने से और श्रेया पिलगांवकर के नैचुरल अभिनय की आभा बिखेरने से दो प्रेमियों के बीच की नोंक-झोंक इस शॉर्ट फिल्म में जीवंत हुई है. दो प्रेमियों के बीच के डायनेमिक्स को समझने के लिए आपको खुद को झोंकना नहीं पड़ता, जैसा कि कई ढाई घंटे की हिंदी फिल्मों में करना पड़ता है, और ये बड़ी बात है.
असल जिंदगी में श्रेया पिलगांवकर की मां और इस शॉर्ट फिल्म में उनकी परदे वाली मां की भूमिका जहीन तरीके से सुप्रिया पिलगांवकर ने निभाई है, और वे यह बताने वाली मां भी हैं कि किराएदारों को त्रास देने वाले शहर मुंबई में उनकी जैसी मां का सहारा प्रवासियों को लेते रहना चाहिए!
बाकी, सिनेमा का सहारा तो है ही.जिसका मा, मां की हल्की ध्वनि भी पैदा करता है.
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