इस किताब की कविता ‘मुड़-मुड़के’ का एक अंश :

‘गांव के सिवाने में / कैदियों से जीते क्यों? / सेवा के आदी-पर / तिरस्कार सहते क्यों? / बने रहे, अनपढ़ अछूत जात. / गदहे घोड़े ज्यों / खाते ही रहे लात / जबकि / बचाव शान्ति / रखते हैं- / स्वयं साथ. / सन्तति हन्ताओं की / उन्नत सिर सम्मानित. / दण्डनीय हैं जो गांव के न्यायालयों में / वे दंडाधिकारी हैं. / कारा से बदतर ही / गांव शहर हैं जिनको- / देश बहुत सुन्दर है / गीत हम ने क्यों गाया? / जानते नहीं हैं क्या- / दवा और दारू का / अधिकारी होता है- / क़ैदी भी दुनिया में. / रोटी की- / गारंटी होती है उसको भी. / पढ़ने-लिखने की भी सुविधा वह पाता है. / जेल से निकलने पर सम्मानित-जीवन की दुनिया में जाता है. / सोच-बोल सकता है- / लेकिन अछूतों का- / हाल क्या बनाया है? / कहने को मानव / पर, पशुओं से / बदतर कर / न्याय की कसौटी को- / किसने झुठलाया है? / संसद के सत्रों में बहसें जो उठती हैं / मुद्दे जो आते हैं / जनता के सपने भी / आश्वस्ति पाते हैं / हिताघास सहते हैं / क्षति असीम होती है / हर्जाना देने के- / प्रश्न पर न आते हैं.’


कविता संग्रह : चमार की चाय

लेखक : श्यौराज सिंह बेचैन

प्रकाशक : वाणी

कीमत : 395 रुपये


हिन्दी में दलित आत्मकथाओं की सशक्त अभिव्यक्ति के बाद, साहित्य की अन्य विधाओं में भी दलित रचनाएं सामने आ रही हैं. दलित साहित्य के ऐसे ही एक वरिष्ठ लेखक हैं, श्यौराज सिंह बेचैन. उन्होंने दलित जीवन के सवालों को शोध, आलोचना, कथा, कविता और पत्रकारिता आदि सभी विधाओं के जरिए बहुत विस्तार से उठाया है.

‘चमार की चाय’ दलित चेतना से भरी कविताओं का एक संग्रह है. ये कविताएं दलितों के दर्द, अपमान और संघर्ष की खबर तो देती हैं, लेकिन पाठकों को उस भाव से जरा भी नहीं भर पातीं, जिसके लिए ये लिखी गई हैं. इतनी उपेक्षा, तकलीफ और जद्दोजहद से तपे जीवन से निकली कविताएं पाठकों में गहरी संवेदना नहीं जगा पातीं, यह बात बेहद निराश करती है.

बेशक, विचार कविता को समृद्ध बनाता है, लेकिन इन कविताओं में विचार इस कदर सपाट रूप में व्यक्त हुआ है कि ज्यादातर वह कविता कम उपदेश ज्यादा लगता है. जैसे – ‘क्या गोरा क्या काला / क्या ब्राह्मण, क्या शूद / क्या सछूत क्या अछूत / सब में समाया है कुदरत का रूप / सब को चाहिए बराबरी का भाव / सब को चाहिए / भेद-भाव के- / पतझर का अन्त. / फूल लाल रंग का हो / या सफेद रंग का / सभी को चाहिए / अपने-अपने / हिस्से का वसन्त..’ या फिर ‘...विद्या ही देवी है / विद्या ही सुख है / विद्या ही खुदा है / विद्या की शरण में जाइये / तुम्हारा स्वराज / तुम्हारा सम्मान / तुम्हारे सब मानवाधिकार / सब के सब / कर रहे हैं इंतज़ार / पर विद्या के बिना / खुलेगा नहीं कोई द्वार.’

लेखक अपनी दलित अस्मिता के प्रति बहुत सजग हैं. दलितों में आत्मसम्मान की भावना को भरना एक बड़ा मुद्दा है. श्योराज सिंह इस जिम्मेदारी को महसूस करते हैं. एक उदाहरण – ‘वे शिक्षा, सभ्यता / और संघर्षरत / दासता के प्रति / जैसे नीच प्रवृति हैं. / वैसी निम्नजाति या / निम्न वर्ण नहीं हैं हम. / ऊंच-नीच कुछ नहीं- / अलग जाति हैं हम / बेशक / हम वंचित हैं / हम अभाव ग्रस्त हैं / अन्याय त्रस्त / अधिकार हीन / तो इन सब का मतलब / कोई, किसी तरह- / का नीच होना नहीं है./ हां, हम पृथक ज़रूर हैं.’

कविता में भी गुस्सा, खीज या आक्रोश की अभिव्यक्ति बहुत प्रभावी तरीके से होती है. इन कविताओं को पढ़कर, लेखक के ये सभी भाव तो पाठकों तक पहुंच जाते हैं; लेकिन बार-बार कुछ गद्य पढ़ने जैसी अनुभति होती है. कुछ है, जिसे पाठक लगातार मिस करते हैं. अछूत होने के दंश के कारण, एक दलित मां की वेदना कई मौकों पर बहुत गहरी होती होगी. लेकिन ‘मां हो’ कविता में वह वेदना पाठकों तक जरा भी नहीं पहुंचती. - ‘उन्होंने पुख्ता- / इन्तजाम कर लिया है / तुम्हें प्यार से मारने का / पर तुम अपनी / नन्हीं बेटियों में / समाकर जाओ / किसे अन्दाज़ा है / तुम्हारी कुव्वतों का / कि तुम / कितनी मेहनती / कितनी वफ़ादार / कितनी जुझारू / कितनी सहनशील / बहिष्कृत बच्चों की / अस्पृश्य मां हो’. मेहनती, सहनशील तो सारी ही मांएं होती हैं; लेकिन दलित मां का दर्द कैसे ज्यादा गहरा, तीव्र और मर्मस्पर्शी है, इस बात का पाठकों को जरा भी अहसास नहीं हो पाता.

निःसंदेह आज भी दलितों की स्थिति पूरी तरह से नहीं सुधरी है, लेकिन यह कहना कि उनकी स्थिति बद से बदतर हो गई है, सच को सरासर झुठलाना है. किताब की भूमिका में लेखक खुद अपने बेटे को यूनिवर्सिटी ऑफ चेस्टर (ब्रिटेन) में पढ़ने भेजने का जिक्र करते हैं. क्या आज से 40-50 साल पहले वे इस स्थिति की कल्पना कर सकते थे! बिलकुल भी नहीं. लेकिन पूर्ण बदलाव होने तक, परिवर्तन के सभी चरणों को न सिर्फ नकार देना, बल्कि स्थिति को और बदतर कहना, सच को अस्वीकार करने जैसा महसूस होता है. बदलाव के कई स्तरों की यह अनदेखी इन कविताओं में अक्सर झांकती है. जैसे - ‘अब हम नये गुलाम हैं. / अपनी भूमि / अपने आवास / चल-अचल सम्पदा / विधा-ज्ञान / सब कुछ खो चुके हैं. / और निरन्तर / बद से बदतर हाल हो रहे हैं.’

सवर्णों के प्रति घृणा से भर देने वाली और झकझोरने वाली जिन घटनाओं का जिक्र श्यौराज सिंह ‘हाय रे! चमार, वाह रे! चमार’ नामक अपनी लंबी भूमिका में करते हैं, उन पर बेहद हृदयस्पर्शी कविताएं लिखी जा सकती थीं. हर एक घटना जितनी हैरान-परेशान करने वाली है, उतनी शर्म से गड़ जाने वाली भी. लेकिन ऐसी एक भी कविता इस संग्रह में नहीं मिलती.

ऐसी संवेदना से भरी भूमिका भीतर से बेहद छूने वाली कविताएं पढ़ने की प्यास जगाती हैं. लेकिन अफसोस कि पूरा संग्रह पढ़ने के बाद भी आप प्यासे ही रह जाते हैं, ऐसी एक भी कविता इस संग्रह में नहीं है, जो कि हो सकती थीं और होनी चाहिए थीं. जिन चलती-फिरती लाशों में तब्दील कर दिये गए चमारों की बात लेखक करते हैं, उनकी सशक्त और झकझोरने वाली अभिव्यक्ति किसी भी कविता में नहीं हो पाई है.