मंगलवार की रात मध्य प्रदेश के भोपाल में एक धार्मिक ढांचे को लेकर हुए तनाव के बाद सुबह सबसे पहले इंटरनेट सर्विस कुछ समय के लिए बंद कर दी गई. पिछले दिनों सहारनपुर में दो समूहों में हुई हिंसा के बाद भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था. पत्थरबाजी के कारण पिछले कुछ समय में कश्मीर में कई बार इंटरनेट और संचार सुविधाओं पर कई बार रोक लगाई गई है. साल 2017 में अप्रैल तक देश में कुल 14 बार ‘इंटरनेट शटडाउन’ हो चुका है. अगर पिछले पूरे साल यानी 2016 के लिए यह आंकड़ा 31 था .
इंटरनेट सेवाएं बंद करने के लगभग एक तिहाई आंकड़ों का ताल्लुक कश्मीर से जुड़ता है. इसके बाद बारी आती है हिंदू-मुस्लिम त्यौहारों की जब साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने के डर से ऐसा किया गया. जाट-पाटीदार-ओबीसी आंदोलनों के दौरान भी गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में राज्य सरकारों ने इंटरनेट पर रोक के आदेश दिए थे. इसके अलावा कुछ मौकों पर यह रोक कानून-व्यवस्था की कमजोरी के साथ-साथ कुप्रबंधन का भी उदाहरण बनी जैसे - गुजरात में रेवेन्यू अकाउंटेंट की परीक्षा सम्पन्न करवाने के लिए पूरे राज्य में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं थीं. ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया कि परीक्षार्थी नकल न कर सकें.
सवाल यह है कि बार-बार इंटरनेट बंद कर देना कितना सही है वह भी तब जब सरकार देश को डिजिटल इंडिया बनाने का सपना देख रही है. माना जा रहा है कि इंटरनेट पर रोक नागरिकों की अभिव्यिक्ति का स्वतंत्रता का अधिकार तो छीनती ही है, इससे देश को आर्थिक नुकसान भी पहुंचता है. सैकड़ों स्टार्टअप या इंटरनेट पर निर्भर रहने वाले व्यवसाय कुछ घंटों की पाबंदी से ही बड़े नुकसान में आ जाते हैं. द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले 2016 में इंटरनेट के बंद होने के चलते भारत को करीब छह हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है. इस समय जब व्यावसायिक से लेकर निजी रिश्ते तक डिजिटल कम्युनिकेशन पर निर्भर करते हैं तो ऐसे में इंटरनेट बंद होना न सिर्फ असुविधा का कारण बनता है बल्कि बहुत मौकों पर सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भी साबित हो सकता है.
हालांकि कुछ मौकों पर सरकार का यह फैसला सही भी नजर आता है. जानकारों के मुताबिक जाट या पाटीदार आंदोलनों के दौरान अगर इंटरनेट बंद नहीं किया गया होता तो शायद हिंसा और भी विकराल हो सकती थी. धार्मिक समूहों में टकराव की संभावना को टालने के लिए भी ऐसा करना सही लगता है. एक वर्ग का मानना है कि ऐसी खतरनाक और अप्रिय स्थितियों को टालने के लिए आर्थिक नुकसान को नजरअंदाज कर देना भी गलत नहीं कहा जा सकता.
लेकिन एक दूसरे वर्ग का मानना है कि सरकार की यह प्रवृत्ति कभी भी लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए खतरा बन सकती है. राज्यों और (विशेषकर) केंद्र की सरकारें बतौर राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए इंटरनेट के सही-गलत इस्तेमाल पर कभी आपत्ति जताती नहीं दिखीं. वे थोड़ा भी खतरा महसूस होने पर इंटरनेट बंद कर देना सबसे सीधा और अच्छा निदान समझती हैं. शायद, यही वह समय है जब इस मामले में एक सुविचारित नीति की जरूरत महसूस होनी चाहिए.
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