पांच और छह जून 1984 की घटना आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास की सबसे अहम घटनाओं में से एक है. यह घटना पंजाब के आतंकवाद से जुड़ी है. इसे ओछी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं और गलत रणनीति का नतीजा भी माना जाता है. यह फौज के अपने देश के लोगों के ख़िलाफ़ लड़ने की घटना है. यह सेना के दो बड़े अफसरों की दास्तां भी है जो कभी एक साथ देश के लिए लड़े थे और फिर एक दूसरे के खिलाफ़ लड़े. यह पंजाब के सबसे दुर्दांत आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले के खात्मे की घटना है जिसकी परिणिति इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में हुई थी.
आइये, वक्त में पीछे लौटें और समझें कि यह घटना क्यों हुई और इसके क्या नतीजे रहे.
अलग राज्य की मांग
20वीं सदी के पूर्वार्ध के दौरान पंजाब में कम्युनिस्ट पार्टी का बोलबाला था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद पार्टी के गंगाधर अधिकारी ने ‘सिख होमलैंड’ का नारा बुलंद किया. अधिकारी एक रसायन विज्ञानी थे जिन्होंने अल्बर्ट आइंस्टीन और मार्क्स प्लांक जैसे महान वैज्ञानिकों के साथ काम किया था.
चर्चित पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखा है कि सिखों में ‘अलग राज्य’ की कल्पना हमेशा से ही थी. रोज़ की अरदास के बाद गुरु गोविंद सिंह का ‘राज करेगा खालसा’ नारा लगाया जाता है. इस नारे ने अलग राज्य के ख्व़ाब को हमेशा जिंदा रखा.’ खुशवंत आगे लिखते हैं, ‘सिख नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि अंग्रेज़ों के बाद पंजाब पर सिखों का हक है.’ लेकिन आजादी के बाद हुए विभाजन ने उनकी ‘अलग राज्य’ की उम्मीदों को धूमिल कर दिया था.
आजादी के बाद जब भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश का गठन हुआ तो अकाली दल ने पंजाबी भाषी इलाके को ‘पंजाब सूबा’ घोषित करवाने की मांग रख दी. उधर जनसंघ पार्टी के पंजाबी हिंदू नेताओं ने आंदोलन चलाकर पंजाबी हिंदुओं को गुरमुखी के बजाए हिंदी भाषा अपनाने को कहा. यहीं से हिंदुओं और सिखों के बीच की खाई गहरी होने लग गयी.
यही वह वक्त भी था जब पंजाब में अकाली दल कांग्रेस का विकल्प बनकर उभर चुका था. इंदिरा गांधी ने इसके जवाब के तौर पर सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर खड़ा किया. जैल सिंह का बस एक ही मकसद था-शिरोमणि अकाली दल का सिखों की राजनीति में वर्चस्व कम करना. लगभग सारे गुरुद्वारों, कॉलेजों और स्कूलों में अकालियों का ही प्रबंधन था. अकालियों के प्रभाव की काट के लिए जैल सिंह ने सिख गुरुओं के जन्म और शहीदी दिवसों पर कार्यक्रमों का आयोजन, प्रमुख सड़कों और शहरों का उनके नाम पर नामकरण और सिख गुरुओं की महत्ता का वर्णन जैसे दांव चले. इन सब हालात के बीच एक शख्स का उदय हुआ जिसका नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले.
कांग्रेस और जरनैल सिंह भिंडरावाले
माना जाता है कि तेज़ तर्रार भिंडरावाले को आगे बढ़ाने में जैल सिंह और अन्य कांग्रेसियों का हाथ था. अकालियों की काट के लिए जैल सिंह और दरबारा सिंह ने उसे आगे बढ़ाया और बाद में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर उसे पंजाब का ‘अघोषित मुखिया’ बना दिया. वरिष्ट पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब ‘बियोंड द लाइंस एन ऑटोबायोग्राफी’ में भी इसका जिक्र किया है. इसके मुताबिक संजय गांधी को लगता था कि अकाली दल के तत्कालीन मुखिया संत हरचरण सिंह लोंगोवाल की काट के रूप में एक और संत को खड़ा किया जा सकता है. यह संत उन्हें दमदमी टकसाल (सिखों की एक प्रभावशाली संस्था) के संत भिंडरावाले के रूप में मिला. नैयर के मुताबिक कांग्रेस नेता कमलनाथ ने यह माना था कि वे जरनैल सिंह भिंडरावाले को पैसे देते थे. हालांकि, उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि भिंडरावाले आतंकवाद का रास्ता चुन लेगा.
कहते हैं कि जरनैल सिंह सात साल का था जब उसके पिता ने उसे दमदमी टकसाल को सौंप दिया था. यहीं उसकी आरंभिक शिक्षा हुई थी. धीरे-धीरे उसकी चर्चा बढ़ती गई. जरनैल सिंह भिंडरावाले ने सिखों से गुरु गोविंद सिंह के बताए हुए मार्ग पर लौटने का आह्वान किया. उसने सिखों से शराब, धूम्रपान जैसी लतों को छोड़ने की अपील की. उसकी लोकप्रियता तब बहुत तेज़ी से बढ़ी जब उसने हिंदुओं के ख़िलाफ़ बोलना शुरू कर दिया. भिंडरावाले अपने भाषणों में हिंदुओं को ‘टोपीवाले’, धोती वाले’ जैसे नामों से पुकाराता. वह इंदिरा गांधी को ‘पंडितां दी धी’ यानी पंडितों की बेटी कहकर बुलाता. 1977 में उसे दमदमी टकसाल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया.

भिंडरावाले के उभार के साथ पंजाब का माहौल तपने लगा था. इस बीच अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हिंसक झड़प हुई जिसमें 13 अकाली कार्यकर्ता मारे गए. इसके विरोध में आयोजित रोष दिवस में जरनैल सिंह भिंडरावाले ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. हिंसा लगातार फैलती गई. सितंबर 1981 में पंजाब केसरी अखबार निकालने वाले हिंद समाचार समूह के मुखिया लाला जगत नारायण सिंह की हत्या हो गई. आरोप भिंडरावाले पर लगे. लेकिन उसकी लोकप्रियता इतनी ज़्यादा थी कि इन हत्याओं में उसकी नामज़दगी के बावजूद पंजाब पुलिस उसे पकड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पायी. उसने खुद अपने गिरफ्तार होने का दिन और समय निश्चित किया था. उस वक़्त जैल सिंह केंद्र में गृह मंत्री थे. भिंडरावाले को गिरफ्तार करके सर्किट हाउस में रखा गया था. लेकिन सबूतों के अभाव में उसे जमानत मिल गई.
तब तक भिंडरावाले ने हिंदुओं के प्रति अपनी नफरत का खुला इज़हार करना शुरू कर दिया था. अपनी किताब माइ ब्लीडिंग पंजाब में खुशवंत सिंह लिखते हैं कि गायों के सर काट कर मंदिरों के सामने फेंके जाने लगे. हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का अपमान किया गया. पर किसी की हिम्मत नहीं थी कि जरनैल सिंह भिंडरावाले को रोक सके. हिंदुओं ने भी प्रतिकार करना शुरू किया. वे गुरु ग्रंथ साहिब को जलाकर और सिगरेटों के जले हुए टुकड़े गुरुद्वारों में फेंकने लगे. जब बात बढ़ने लगी तो कभी भिंडरावाले को बढ़ावा देने वाले जैल सिंह और दरबारा सिंह ने उससे किनारा करना शुरू कर दिया था.
आतंकी घटनाओं का सिलसिला
जुलाई और अगस्त 1982 में दो बार इंडियन एयरलाइंस के जहाज को हाइजैक कर लाहौर ले जाया गया था. दो बार दरबारा सिंह की हत्या के भी प्रयास किये गए. 25 अप्रैल 1983 को जालंधर के डीआईजी एएस अटवाल की स्वर्णमंदिर की सीढ़ियों पर गोली मारकर हत्या कर दी गई. उसी साल पांच अक्टूबर को आतंकियों ने अमृतसर से दिल्ली जाने वाली एक बस का अपहरण कर लिया और उसमें बैठे छह हिंदुओं को गोलियों से भून दिया.
हवा से लेकर सड़क तक और सड़क से लेकर रेल की पटरियों तक उखाड़े जाने की घटनाएं होने लगी थीं. जब तक सरकारी तंत्र उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करता, भिंडरावाले दिसंबर 1983 को स्वर्ण मंदिर के अकाल तख़्त की सुरक्षा में रहने लगा. हरदम 200 हथियारबंद लोग उसे घेरे रहते. वह समझ चुका था कि अब संघर्ष का दूसरा चरण आ चुका है. उसने स्वर्ण मंदिर में हथियार और गोला-बारूद जमा करने शुरू कर दिए थे. पंजाब में आतंकवाद चरम पर पहुंच चुका था.
आनंदपुर साहिब का प्रस्ताव और इंदिरा गांधी की विफल कूटनीति
तेज़ी से बदलते हालात में अकालियों और भिंडरावाले ने हाथ मिला लिए और वे एक साथ सरकार के ख़िलाफ़ खड़े हुए थे. 1982 में हरचरण सिंह लोंगोवाल ने ‘धर्म युद्ध’ मोर्चा की स्थापना की जिसकी मुख्य मांग आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को मनवाना थी.
इस प्रस्ताव की कुछ मांगें तो देश के संघीय ढांचे को तोड़ने वाली थीं. दूसरा, पंजाब को इसमें ज़्यादा अधिकार देने की मांग थी. हालांकि इसमें फौरी तौर पर खालिस्तान की मांग नहीं की गयी थी. हरमिंदर कौर अपनी किताब ‘1984, लेसन फ्रॉम हिस्ट्री’ में लिखती हैं, ‘खालिस्तान की मांग पर भिंडरावाले की स्थिति कुछ साफ़ नहीं थी.’
पंजाब में असंतुलन बिगड़ चुका था और अब एक ही रास्ता रह गया था- सरकार और भिंडरावाले के बीच टकराव जो अब बस कुछ ही समय की बात थी.
ऑपरेशन ब्लू स्टार
आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की ज़्यादातर मांगें इंदिरा सरकार ने नामंजूर कर दी थीं और जो मानी थीं उन पर अमल नहीं किया था. टकराव बढ़ता ही जा रहा था. बकौल हरमिंदर कौर ‘सरकार और असंतुष्टों के बीच 1984 में छह बार मीटिंग हुई और आख़िरी मीटिंग मई, 26, 1984 को हुई . ये भी बेनतीजा रही. न इंदिरा गांधी मानने को राज़ी थीं और न ही भिंडरावाले गुट के लोग.
भिंडारवाले ने अब तेज़ी से स्वर्ण मंदिर को एक किले में तब्दील कर दिया. उसका साथ देने वालों में फौज के पूर्व मेजर-जनरल शुबेग सिंह और सिख फेडरेशन ऑफ़ इंडिया का मुखिया अमरीक सिंह भी था.’ कौर आगे लिखती हैं ‘बीबीसी ने संत लोंगोवाल से इंटरव्यू में पूछा कि क्या स्वर्ण मंदिर की किलेबंदी की जा रही है तो उन्होंने न में जवाब दिया.’
रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं, ‘शुबेग की निगरानी में मंदिर की दीवारों पर रेत के बोरे रखे गए थे और प्लान बनाया गया कि संघर्ष को तब तक जिंदा रखा जाएगा जब तक आम पंजाबी विद्रोह न कर दे. दूसरी तरफ भारतीय फौज के तत्कालीन मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार को आंतकवादियों के ख़िलाफ़ कमान सौंपी गयी.’
उस समय भारतीय फौज के मुखिया अरुण श्रीधर वैद्य थे. बरार को समझाया गया था कि पंजाब में आम जनता का विद्रोह हो सकता है इसलिए 48 घंटों के भीतर स्वर्ण मंदिर को नुकसान पहुंचाये बिना उसे आतंकियों से खाली करवाना है. जनरल शुबेग और जनरल बरार एक साथ 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़े थे. वक्त का फेर देखिये, इस बार दोनों आमने-सामने थे.
दो जून, 1984 को इंदिरा गांधी ने आल इंडिया रेडियो से देश को संबोधित करके देश को पंजाब के हालात से वाकिफ कराया और आतंकवादियों से हथियार छोड़ देने की अपील की. तीन जून को सेना ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ शुरू कर दिया. सबसे पहले राज्य की टेलीफोन और बिजली व्यवस्था काट दी गयी. फिर मंदिर की घेराबंदी करके फायरिंग शुरू कर दी गई. उस दिन गुरु अर्जुन देव शहीदी दिवस भी था और इस वजह से मंदिर के अहाते में काफी लोग थे. सेना खुलकर फायरिंग नहीं कर सकती थी. आतंकियों ने मौका देखकर लोगों को ढाल बना लिया. उन्होंने लोगों को मंदिर से बाहर नहीं निकलने दिया गया. सेना की मुश्किल बढ़ गयी थी. जैसे तैसे करके लोगों को बाहर निकला गया और पांच जून की रात को सेना ने अंतिम और निर्णायक हमला बोल दिया.
सेना को सख्त आदेश था कि ‘अकाल तख़्त’ पर गोलीबारी नहीं की जायेगी. कुलदीप सिंह बरार अपनी किताब ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ में लिखते हैं, ‘सबसे ज़्यादा गोलीबारी अकाल तख़्त की तरफ से ही हो रही थी और हम उधर फायर नहीं कर सकते थे.’ फौजी और आतंकी तड़ातड़ गिर रहे थे. रात के दो बज गए थे और काम अभी आधा भी नहीं हुआ था. समय निकला जा रहा था. बरार ने आतंकियों की ताक़त का गलत अंदाज़ा लगा लिया था.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘बरार ने दिल्ली फ़ोन करके टैंकों से हमले की इजाज़त मांगी जो तुरंत ही मंज़ूर हो गयी. उसके बाद फौज के ‘विजेता टैंकों’ ने मंदिर की बाहरी दीवार तोड़कर ताबड़तोड़ बमबारी की जिससे आतंकियों को काफी नुकसान हुआ. इस अंतिम हमले में शुबेग सिंह, अमरीक सिंह और भिंडरावाले मारे गए. ऑपरेशन ब्लू स्टार को कुछ दिनों बाद रोक दिया गया. इस ऑपरेशन में लगभग 200 आतंकी मारे गए. फौज के 79 जवानों की भी जान गई जिनमें चार अफसर थे.
बाद में क्या हुआ?
उसी साल 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी हत्या हो गयी. इसके बाद दिल्ली और पूरे देश में सिख विरोधी दंगे भड़क गए. अगले ही साल जनरल वैद्य की पुणे में हत्या हो गई. इंग्लैंड में कुलदीप सिंह बरार का गला रेतकर उन्हें मारने की कोशिश हुई. पंजाब में आतंकवाद की आग और भड़क गयी. 1985 में संत लोंगोवाल की हत्या कर दी गयी. अंततः पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक केपीएस की अगुवाई में आतंक की इस आग पर काबू पाया गया.
ऑपरेशन ब्लू स्टार पहला हादसा था जिसमें सेना ने अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा था. कुछ साल पहले मनमोहन सिंह की सरकार में गृह मंत्री चिदंबरम ने नक्सली समस्या से निपटने के लिए फौजी कार्रवाई की पेशकश की थी. इसे तत्कालीन जनरल वीके सिंह ने यह कहकर नकार दिया था, ‘फौज़ अपने लोगों के ख़िलाफ़ नहीं लड़ती. एक बार गलती कर चुके हैं, अब नहीं होगी.’
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