महात्मा गांधी के बारे में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की राय का बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है. अमित शाह, उनके राजनीतिक दल और उनकी पूरी वैचारिकी में बहुत कुछ ऐसा है जो गांधी के प्रति कहीं ज़्यादा अवमानना और हिकारत के भाव से भरा हुआ है. इस वैचारिकी ने नाथूराम गोडसे को पैदा किया, उसे वैधता दिलाने की कोशिश की और अब यह उसकी मूर्तियां लगाने वालों को सम्मानित करने का जतन करती दिखाई पड़ रही है. पुराने लोग बताते हैं कि जब पूरा देश गांधी जी की हत्या के शोक में डूबा हुआ था, तब यह वैचारिकी लड्डू बांट रही थी.
इसलिए यह उम्मीद करना अपने और अमित शाह दोनों के साथ नाइंसाफ़ी है कि वे महात्मा गांधी को समझेंगे या सम्मान देंगे. निस्ससंदेह, गांधी को सम्मान देने का पाखंडी कर्मकांड वे ज़रूर करेंगे क्योंकि उनकी सारी कोशिशों के बावजूद इस देश में गांधी का इतना सम्मान ज़रूर बचा हुआ है कि उनके बिना किसी राजनीतिक दल का काम नहीं चलता. मगर अमित शाह के वक्तव्य के कई और आयाम हैं जिनसे हम भारत की बहुसंख्यकवादी राजनीति की मानसिकता को कुछ हद तक समझ सकते हैं.
कई पाकिस्तानी इतिहासकार गांधी की इस बनिया-दृष्टि की चर्चा कर चुके हैं. इस लिहाज से भाजपाइयों और मुस्लिम लीगियों के विचार आपस में कई बार कमाल के ढंग से मिलते-जुलते हैं
पहली बात तो यही कि अमित शाह का वक्तव्य बताता है कि भारतीय राजनीति अब तक जातिवादी मुहावरों से बाहर नहीं आ पाई है. गांधी जी को चतुर या चालाक बताने के लिए अमित शाह को उनके जन्म से मिली जाति याद आई, कर्म से अर्जित वह जाति नहीं, जिसने गांधी को गांधी नहीं आंधी बनाया. अगर गांधी जी की जाति ही खोजनी हो तो अपने कर्म से वे सबसे करीब उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें उन्होंने हरिजन की संज्ञा दी. समाज में आमूलचूल परिवर्तन की यह गांधीवादी मांग अगर अमित शाह को नहीं दिखी और उनका बनिया होना दिख गया तो इसे अमित शाह का दृष्टि दोष भर नहीं कहा जा सकता है. शायद अमित शाह अब तक मान कर चलते हैं कि बनिए में जो जन्मजात चतुराई होती है, वह दूसरी जातियों में नहीं होती. जाहिर है वे यह भी मानते होंगे कि अस्पृश्य जातियां अस्पृश्य होती हैं, ब्राह्मण पूजा के लिए होते हैं और क्षत्रिय रक्षा के लिए.
वैसे अमित शाह पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने गांधी की इस जन्मजात पहचान की याद दिलाई हो. उनकी मृत्यु के बाद जिन्ना ने उन्हें महान हिंदू नेता कहा. कई पाकिस्तानी इतिहासकार गांधी की इस बनिया-दृष्टि की चर्चा कर चुके हैं. इस लिहाज से भाजपाइयों और मुस्लिम लीगियों के विचार आपस में कई बार कमाल के ढंग से मिलते-जुलते हैं. देश की आज़ादी के बारे में, देश के नक्शे के बारे में, धर्म की उपयोगिता के बारे मे और गांधी के बारे में जैसे वे बिल्कुल एक तरह से सोचते हैं.
बहरहाल, खुद गांधी होते तो शायद अमित शाह के बयान पर इस कदर आहत न होते. जाति की बाड़ेबंदी को तोड़ने की अथक कोशिश के बीच उनमें इतना परिहास भाव था कि वे अपने भीतर यह तथाकथित वणिक-बुद्धि ढूंढ़ लिया करते थे. एकाध अवसरों पर मज़ाक-मज़ाक में वे लोगों को याद दिला देते थे कि उनके भीतर एक बनिया भी बैठा हुआ है. अगर गंभीरता से भी देखें तो भी उनके भीतर किफायत, साधनों के पूरे इस्तेमाल और संचय का जो अभ्यास था, वह भी प्रचलित अर्थों में उनकी वणिक बुद्धि का ही नतीजा कहा जा सकता है.
इस लिहाज से गांधी संवेदनशील जितने हों, भावुक कतई नहीं थे. विदेशों में गांधी के सामान की नीलामी पर हायतौबा मचाने वाले माल्या जैसे देशभक्तों और गांधीभक्तों को शायद पता नहीं रहा होगा कि गांधी ख़ुद अपने सामान की नीलामी कर डालते थे. उनको जो छोटे-छोटे उपहार मिलते थे, उनकी नीलामी से कई बार उन्होंने अपने मक़सद के लिए पैसे इकट्ठा किए. इसी तरह छोटी से छोटी बरबादी को लेकर वे कितने उग्र हो उठते थे- इसकी ढेर सारी मिसालें उनके समकालीनों के पास हैं. आख़िरी दिनों में उनका सहारा बनने वाली आभा बेन ने लिखा है कि एक बार आधी रात के आसपास बापू ने उनसे एक घिसी हुई पेंसिल के बारे में पूछा जो उन्होंने कहीं रख दी थी. आभा बेन बड़ी मेहनत से उसे खोज पाईं. जब वे पेंसिल लेकर बापू के पास पहुंचीं तो बापू ने कहा कि इसे ठीक से रख दो.
अगर गंभीरता से भी देखें तो भी उनके भीतर किफायत का, साधनों के पूरे इस्तेमाल और संचय का जो अभ्यास था, वह भी प्रचलित अर्थों में उनकी वणिक बुद्धि का ही नतीजा कहा जा सकता है
लेकिन बापू नाम के बनिए को कैसे सौदे पसंद थे? इसका एक जवाब गणित की पढ़ाई को लेकर उनकी एक राय से मिलता है. उन्होंने कहा कि अगर कोई यह सवाल पूछे कि दस पैसे का सामान 12 में बेचने पर तुम्हें क्या मिलेगा तो मै कहूंगा कि जेल मिलेगी. मुनाफाखोरी को वे मनुष्य विरोधी उपक्रम मानते थे.
महात्मा गांधी को चतुर बनिया बताने वाले अमित शाह शायद उनकी इस सौदागरी को कभी नहीं समझ पाएंगे. वे यह भी समझ नहीं पाएंगे कि देशप्रेम और देशद्रोह की जानी-पहचानी और सपाट सरणियां कब और कैसे मनुष्य विरोधी हो उठती हैं. महात्मा गांधी निस्संदेह चतुर थे. लेकिन यह एक विराट चतुराई थी जिसमें अंग्रेज जैसे व्यापारी और शासक से लड़ने का साहस भी था और लड़़ाई के मानवीय औजार खोजने की प्रयोगशीलता भी. उनमें एक मानवीय चतुराई थी इसलिए समझते थे कि साधनों की पवित्रता पर साध्य की पवित्रता निर्भर करती है. निस्संदेह एक मस्जिद के भीतर चुपके से मूर्तियां रख देने वाली और 40 साल बाद ज़ोर-जबरदस्ती से उसे गिरा देने वाली विचारधारा इस चतुराई को समझ नहीं सकती. यह विचारधारा गांधी का सामना नहीं कर पाती, इसलिए पहले उसे गोली मारती है, फिर उसे गोली मारने वाले की मूर्ति बनाती है और फिर गांधी को चतुर बनिया बताती है.
अमित शाह की यह बात सही है कि गांधी आज़ादी के बाद कांग्रेस को बनाए रखने के पक्ष में नहीं थे. वे लोक सेवक संघ की कल्पना कर रहे थे जो उनके सपनों के राम राज्य को आकार दे सके. लेकिन इस राम राज्य में न राम वैसे इकहरे होते जैसा बीजेपी ने बना दिया है और न राज्य इतना आक्रामक होता जितना वह दिख रहा है. दरअसल गांधी में जो सबकुछ था बीजेपी उसका फूहड़ प्रतिलोम बन रही है- हिंद, हिंदू और स्वराज- तीनों के अर्थ वह कुछ इस तरह बदल रही है कि उनमें संभव होने वाली विराटता एक संकरी सियासत का सामान भर होकर रह जाए.
यह सच है कि संघ परिवार गांधी की एक विफलता का भी परिणाम है. अपने जीवन काल में सांप्रदायिकता की समस्या से जूझते गांधी मानते थे कि हिंदू-मुसलमान को अंग्रेज़ लड़ा रहा है, वह चला जाएगा तो यह लड़ाई ख़त्म हो जाएगी. लेकिन अंग्रेज चले गए और झगड़ा बचा रहा तो इसलिए भी कि कहीं उसे मुस्लिम लीगियों ने भड़काया और कहीं संघ परिवार ने बनाए रखा. इस मामले में संघ खुद को गांधी से ज्यादा चतुर मान सकता है. लेकिन यह चतुराई एक सीमित समय के लिए सत्ता को हासिल कर सकती है, एक जुनूनी सांप्रदायिकता और उन्मादी राष्ट्रवाद को भी हवा दे सकती है. लेकिन न वैसा मनुष्य बना सकती है जैसे गांधी थे, न वैसा देश बना सकती है जो गांधी की आभा को वहन कर सके.
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