सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अख़बारों के प्रबंधन अपने कर्मचारियों को मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों का लाभ देंगे, इसमें संदेह है. यह पुराना चलन है कि अक्सर वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों के बाद अखबार अपने ग्रेड में हेरफेर करने की कोशिश करते हैं और अपने कर्मचारियों को कम से कम लाभ देना चाहते हैं. मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों को लेकर तो ज्यादातर अख़बारों ने लगभग ढिठाई भरा रुख़ अख़्तियार किया है. इस रुख का कुछ वास्ता मीडिया उद्योग की नई बन रही कार्यसंस्कृति से है तो कुछ का निजी क्षेत्र में लगातार निरंकुश हो रहे उस पूंजीतंत्र में, जिसमें मज़दूर पहले के मुक़ाबले बेहद कमज़ोर है.
जहां तक मीडिया उद्योग का सवाल है, यहां की स्थिति कई स्तरों पर विडंबनापूर्ण है. अरसे तक यह बताया जाता रहा कि पत्रकारिता मिशन है, प्रोफेशन नहीं. जब पहली बार पालेकर अवार्ड आया तो कहते हैं कि कई बड़े संपादकों ने अपने मालिकान के कहने पर बोर्ड के सामने यह कहा कि पत्रकारों को ज़्यादा पैसे नहीं चाहिए. अस्सी के दशक के बाद तस्वीर बदलनी शुरू हुई जब पत्रकारिता कुछ बड़े शहरों और घरानों से निकल कर मुफस्सिल कस्बों और छोटे शहरों तक फैलने लगी. धीरे-धीरे पत्रकारिता के संस्थान भी खुले और ऐसे पेशेवर पत्रकार सामने आए जिनके लिए पत्रकारिता सेवा से कहीं ज़्यादा एक पेशा थी. इस स्थिति ने पत्रकारिता को गुणात्मक रूप से किस तरह प्रभावित किया, यह एक अलग बहस का मुद्दा है. (हालांकि इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि कहीं बेहतर प्रशिक्षण और पढ़ाई के साथ पत्रकारिता में आए युवाओं ने अपने उन तथाकथित मिशनरी पत्रकारों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ईमानदारी से काम किया जो बाद में सत्ता से गलबहियां करते पाए गए.)
भारत में पूंजीतंत्र का माहौल इन दिनों इतना निरंकुश है कि उसे किसी भी क़ानून, किसी भी आदेश से बेपरवाह रहने में कोई डर नहीं सताता. धीरे-धीरे कानून अपनी ही अवहेलना के प्रति लगातार सदय होता दिख रहा है
बहरहाल, निस्संदेह वेतन बोर्डों ने पत्रकारिता कर रहे लोगों को पहली बार कुछ सम्मानजनक सेलरी दी. लेकिन नब्बे का दशक आते-आते एक नई प्रक्रिया चल पड़ी. पत्रकारों को अनुबंध पर आने को मजबूर किया गया. धीरे-धीरे तमाम बड़े-छोटे संस्थानों के पत्रकार अनुबंध का हिस्सा होकर वेतन बोर्डों की सिफ़ारिशों के दायरे से बाहर हो गए. जितनी सारी नई नियुक्तियां हुईं, सब अनुबंध वाली हुईं. मजीठिया ने एक बड़ा काम किया कि अपनी सिफ़ारिशों में अनुबंध पर काम कर रहे पत्रकारों को भी शामिल किया. लेकिन शायद ही कोई प्रतिष्ठान हो जिसने अनुबंधित कर्मचारियों को इसका लाभ दिया हो- बावजूद इसके कि आयोग की सिफ़ारिशें बाध्यकारी हैं और सुप्रीम कोर्ट दो बार इन्हें लागू करने का आदेश दे चुका है.
जाहिर है, मीडिया मालिक कुछ इस वजह से भी निर्द्वंद्व हैं कि उन्हें अपनी हैसियत का कुछ ज़्यादा गुमान है. लेकिन यह अधूरा सच है. पूरी सच्चाई यह है कि भारत में पूंजीतंत्र का माहौल इन दिनों इतना निरंकुश है कि उसे किसी भी क़ानून, किसी भी आदेश से बेपरवाह रहने में कोई डर नहीं सताता. धीरे-धीरे कानून अपनी ही अवहेलना के प्रति लगातार सदय होता दिख रहा है. अगर ध्यान से देखें तो पिछले पच्चीस सालों में न सिर्फ श्रम कानूनों में ढिलाई दी गई है, बल्कि जो कानून कायम हैं, उन पर भी अमल की परवाह किसी को नहीं है. जिसे सामाजिक सुरक्षा कहते हैं, वह नई नौकरियों से पूरी तरह जा चुकी. नौकरी में काम के घंटे किसी दौर में अहमियत रखते होंगे, नया नियम बस घर से निकल कर दफ़्तर पहुंचने का है, दफ़्तर से निकल कर वापसी का कोई समय नहीं है. इसी तरह पेंशन का खयाल भी अब किसी पुराने ज़माने की चीज़ है. इस लिहाज से कहें तो डेढ़ सौ साल के मज़दूर आंदोलन ने जो हासिल किया, उसे 25 साल के उदारीकरण ने जैसे नष्ट कर डाला है. बल्कि वह इस बदली हुई स्थिति को आदर्श बता रहा है.
मसलन, निजी क्षेत्र जिसे बहुत ज़ोर-शोर से अवसरों की सुलभता के तौर पर पेश करता और बताता है कि अब लड़के पहले की तरह किसी एक कंपनी से चिपके नहीं रहते, बल्कि लगातार नौकरियां बदलते रहते हैं- यह भी एक बड़ा झूठ है. सच्चाई यह है कि अपने करिअर के शुरुआती पांच-सात वर्षों में ये लड़के बस कंपनियों में शोषण का सामान बने रहते हैं. वे बहुत मामूली वेतन पर 12 से 14 घंटे लगातार काम करते रहते हैं. अगले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे घिसते हुए वे किसी कंपनी में सम्मानजनक लगने वाली सेलरी हासिल करते हैं तो फिर वहीं टिक जाते हैं. इस बात की तस्दीक उन बहुत सारे लोगों के अनुभव से की जा सकती है जो शुरुआती नौकरियों के फेरबदल के बाद किसी अच्छे संस्थान में पहुंचे तो फिर वहीं बने रह गए. इसका उलटा भी हुआ. जो लोग किसी एक संस्थान में बरसों तक बने रहे, वे उसके बंद होने के बाद लगातार नौकरियां बदलते रहे क्योंकि काम करने वाला माहौल नहीं मिला. इस विडंबना का एक पहलू यह भी है कि आठ-दस साल की करीने की नौकरी के बाद अचानक 45 के आसपास के कर्मचारी पाने लगते हैं कि कंपनी को वे बोझ लगने लगे हैं. प्रबंधन यह महसूस करने लगा है कि उनका वेतन कुछ ज़्यादा हो चुका है और वही काम बहुत कम वेतन पर दूसरों से कराया जा सकता है. धीरे-धीरे छंटनी की एक नई तलवार उन पर लटकने लगती है.
नौकरी में काम के घंटे किसी दौर में अहमियत रखते होंगे, नया नियम बस घर से निकल कर दफ़्तर पहुंचने का है, दफ़्तर से निकल कर वापसी का कोई समय नहीं है
यह एक बड़ी त्रासदी है जिसे पूंजी की नई दुनिया अवसरों और चुनौतियों की चमकीली पन्नी में लपेट कर पेश कर रही है. इस त्रासदी के और भी सिरे हैं. मसलन ज़्यादातर निजी कंपनियों में नौकरी दिए जाने या छीन लिए जाने के कोई निर्धारित पैमाने नहीं हैं. यह कुछ अफसरों या वरिष्ठ कर्मियों की इच्छा पर निर्भर करता है कि वे किसे नौकरी दें, किसे नहीं. यही नहीं इसमें बहुत बड़ी भूमिका निजी संबंधों, सिफ़ारिशों और वर्गीय पहचानों की होती है. इसका एक नतीजा यह होता है कि जाने-अनजाने अकुशल या कम प्रतिभाशाली लोगों की फौज बड़ी होती जाती है जो वास्तव में काम कर सकने वाले लोगों के श्रेय और अधिकार दोनों चुपचाप हस्तगत करती जाती है. जाहिर है, इसका असर कंपनी के प्रदर्शन पर भी पड़ता है और छंटनियों का सिलसिला शुरू होता है. यहां भी फिर उसी बॉस की चलती है जिसकी वजह से कंपनी का यह हाल हुआ है. जाहिर है, छांटे वे जाते हैं जो इस खेल से दूर खड़े चुपचाप काम करते हैं.
इस स्थिति को बदलने की फिलहाल कोई सूरत नहीं दिख रही. मजदूर संगठन या तो बेहद कमज़ोर हो चुके हैं या फिर प्रबंधन से समझौता करके चल रहे हैं. ज़्यादातर कंपनियों में वे हैं ही नहीं. इन स्थितियों से जो हताशा पैदा हो रही है, उससे कहीं ज़्यादा डरावने नतीजे सामने आ रहे हैं. गुड़़गांव से ग्रेटर नोएडा तक कई कंपनियों में मजदूरों की हिंसा भयावह ढंग से फूटी है. यह अलग बात है कि इसका ख़मियाजा भी मज़दूरों को ही भुगतना पड़ा है. मानेसर में मारुति के कारखाने में हुई हिंसा ने पहले मजदूरों को जानवर बना दिया और बाद में इन्हें जेलों में ठूंस दिया गया. यह असंतोष आने वाले दिनों में क्या शक्ल लेगा, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता.
अख़बारों में मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों के बहाने शुरू हुए इस लेख को अगर मौजूदा नौकरियों के बदलते चरित्र से जोड़ने की मजबूरी है तो इसलिए कि इसका असर वाकई बहुत बड़़ा है और सिर्फ निजी क्षेत्रों में नहीं, सरकारी क्षेत्रों में भी दिख रहा है. जहां तक अख़बारों या मीडिया का सवाल है, विडंबना यह है कि वहां चल रहे अन्यायों की, वहां हो रहे शोषण की, वहां हो रही छंटनी की ख़बर कहीं नहीं आती. सवाल फिर वही है- इस विडंबना से कैसे निबटें? जवाब आसान नहीं है- बस यही कहा जा सकता है कि देर-सबेर किसी को यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी- शायद उन्हीं लोगों को जो इसके शिकार बन रहे हैं. कोई बाहर वाला उनके लिए फिलहाल नहीं लड़ेगा.
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