प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया इजराइल दौरा काफी चर्चा में रहा. दोनों देशों के राष्ट्रप्रमुखों की बातचीत के केंद्र में कृषि, तकनीक और नए स्टार्ट-अप जैसे महत्वपूर्ण विषयों के साथ जलप्रबंधन का मुद्दा भी शामिल रहा. इज़रायल में भारत के राजदूत पवन कपूर का कहना है कि जल प्रबंधन में भारत इजराइल से काफी कुछ सीख सकता है.
जहां राजनैतिक जानकार इसे एक सकारात्मक पहल बता रहे हैं वहीं पर्यावरणविदों की राय कुछ अलग है. उनके मुताबिक तकनीकों-हथियारों की साझेदारी और प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण में अंतर होता है. जानकारों के मुताबिक हमारे देश की भौगोलिक परिस्थितियां इजराइल से अलग हैं, इसलिए जल संरक्षण से जुड़े अपने ही पारंपरिक स्त्रोतों को उन्नत करने की दिशा में प्रयत्न करना ज्यादा कारगर साबित होगा बजाय कि विदेशी उपायों पर आधारित नए स्त्रोतों के निर्माण के.
भारत के हर राज्य में भौगोलिक परिस्थिति के हिसाब से पानी बचानेे के लिए अलग-अलग स्रोत विकसित किए गए थे. ये न सिर्फ पेयजल उपलब्ध करवाते बल्कि भूमि का जलस्तर भी बनाए रखने में सहायक होते थे. लेकिन तेजी से सिमटती जमीनों और सरकारों की उदासीनता के चलते ये संसाधन अब समाप्त हो चुके हैं. बताया जा रहा है कि अलग-अलग राज्यों में इन स्रोतों के लुप्त होने का आंकड़ा 40 से लेकर 90 फीसदी तक है.
जल संरक्षण के पारंपरिक स्त्रोतों पर सरकार और प्रशासन के रवैये को लेकर विख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने अपनी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में लिखा है, ‘पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है... आज समाज तालाबों से कट गया है, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है. उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है. कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्र में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उसमें तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा. पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं. साद तालाबों में नहीं नए समाज के दिमाग में भर गयी है.’
भारत का इतिहास उठाकर देखा जाए तो तालाबों समेत जल सरंक्षण के ऐसे कई स्रोतों का जिक्र मिलता है जो आज भी कारगर हैं. एक वरिष्ठ पर्यावरणविद कहते हैं कि वैसे तो पूरे भारत में जल संरक्षण के लिए विशेष तरीकों का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन रेगिस्तान होने की वजह से राजस्थान में इन स्त्रोतों का महत्व और इनके निर्माण में लगी रचनात्मकता देखते ही बनती है. उनके मुताबिक इज़राइल से जल प्रबंधन सीखने से पहले सरकार यदि आज भी राजस्थान के लोगों द्वारा पानी को बचाने के लिए इस्तेमाल में लाए जा रहे तरीकों और उनके पारंपरिक स्त्रोतों पर एकबारगी गौर कर ले तो यह कवायद कहीं कारगर साबित हो सकती है.
सामान्य लोग सिर्फ दो तरह के पानी के बारे में जानते हैं एक जमीन से ऊपर और दूसरा जमीन से नीचे. लेकिन राजस्थान के लोग बताते हैं कि पानी तीन प्रकार का होता है. पहला ‘पालेर’ पानी यानी वर्षा जल, दूसरा ‘रेजानी’ यानी जमीन से नीचे की एक विशेष पट्टी (खड़ीन) में जमा पानी और तीसरा ‘पाताल पानी’ जो धरती के काफी नीचे होता है. राजस्थानी लोग नीचे लिखे पांच प्रमुख पारपंरिक स्त्रोतों की मदद से इन तीनों ही स्तरों पर मौजूद पानी का प्रबंधन और इस्तेमाल बहुत ही सूझबूझ के साथ करते हैं.
बावड़ी
राजस्थान में जल के पारंपरिक स्रोत में बावड़ियों को महत्वपूर्ण स्थान हासिल है. प्रदेश के कई शहरों, कस्बों और गांवों में बावड़ियां ही पानी का प्रमुख जरिया थीं. वहां के प्रत्येक समुदाय में बावड़ी बनवाने को आज भी बड़ा सम्मानीय और धार्मिक कार्य समझा जाता है. शुरुआती दौर में बावड़ियों का स्वरूप साधारण होता था. लेकिन वक्त के साथ महीन कारीगरी वाली मूर्तियों और कलाकृतियों की साजसज्जा ने इन्हें एक अनूठा रूप दे दिया.

पत्थर और चूने से निर्मित ये पक्की बावड़ियां जमीन में गहराई तक इस तरह बनी होती हैं कि पानी पर सूरज की रोशनी कम से कम पड़े और वह भाप बनकर कम से कम उड़े. कई बड़ी बावड़ियों के बीच में एक गहरा तालाब होता है जो गर्मी के दिनों में भी पानी की आपूर्ति जारी रखता है. कहा जाता है कि जयपुर के निकट आभानेरी गांव में स्थित चांद बावड़ी विश्व की सबसे बड़ी बावड़ी है.
तालाब
अनुपम मिश्र जल के पारंपरिक स्रोतों में से तालाबों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे. उनके मुताबिक तालाब के हर हिस्से जैसे आगोर, आगर और नेष्टा को बनाने के लिए अलग-अलग स्थानों पर एक विशेष जाति या समुदाय को महारत हासिल होती थी. इसके अलावा मिश्र कई बड़ी प्राकृतिक और मानवीय घटनाओं द्वारा भी तालाबों के निर्माण का संदर्भ देते हैं. जयपुर के जयगढ़ किले में रखी दुनिया की सबसे बड़ी (माने जाने वाली) तोप की क्षमता जांचते समय उसके गोले के गिरने से चाकसू कस्बे में बना गड्ढेनुमा तालाब ऐसा ही एक उदहारण है.

कई जगहों पर पांच बीघे से कम जगह में फैले जलाशयों को तलाई, एक मध्यम आकार के तालाब को बंधी और उससे बड़े को सागर या समंद कहा जाता है. उदयपुर की झीलें इसी का नायाब उदाहरण हैं. राजस्थान में कई जगहों पर तालाबों को सर कहा जाता है. लोकजीवन में तालाबों के अतुल्य महत्व को देखते हुए अनुपम मिश्र इन्हें अमृतसर कहा करते थे.
जोहड़
तालाबों की तरह जोहड़ भी लंबे अरसे से राजस्थान में जल संरक्षण के महत्वपूर्ण स्त्रोत साबित हुए हैं. तालाब और जोहड़ में मोटे तौर पर मुख्य अंतर इसकी चारदीवारी यानी पाल का होता है. तालाब के चारों तरफ की पाल कृत्रिम रूप से यानी मनुष्यों द्वारा तैयार की जाती है जबकि जोहड़ को आमतौर पर वहां निर्मित किया जाता है जहां तीन तरफ की पाल प्राकृतिक होती है और जोहड़ खोदने से जो मिट्टी निकलती है उससे चौथी पाल बनायी जाती है. कई बार एक से ज्यादा जोहड़ों को एक भूमिगत कैनाल द्वारा जोड़ दिया जाता है ताकि एक जोहड़ में पानी अधिक होने पर उसे दूसरे जोहड़ों में स्थानांतरित किया जा सके.

जोहड़ों में पानी का प्रमुख स्त्रोत बरसात व मौसमी नदियां होती हैं इसलिए आमतौर पर इनको बड़े तालाब या नदियों के पास ही बनाया जाता है. 80 के दशक में जब राजस्थान का अलवर जिला अकाल से जूझ रहा था तो उस समय मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेन्द्र सिंह ने वहां के जोहड़ों का पुनर्निमाण का कार्य प्रारंभ किया. इसके फलस्वरुप पानी की तंगी से जूझ रहे अलवर के कई गांवों में न सिर्फ जल संकट समाप्त हुआ बल्कि वहां की बहुत सी सामाजिक और आर्थिक समस्याएं भी कम हो गयीं.
खड़ीन
राजस्थान में जैसलमेर जैसे भी कुछ इलाके हैं जहां जमीन में थोड़ी सी गहराई पर खड़िया मिट्टी यानी जिप्सम की परत मिलती है. इसका विशेष गुण होता है पानी को रोके रखना और लंबे समय तक नमी बरकरार रखना. यहीं बनती है खड़ीन.

खड़ीन के लिए करीब चार से पांच फीट ऊंचा बंध बनाकर पानी को रोका जाता है. इसके एक सिरे पर पत्थर से मजबूत दीवार बनायी जाती है, जिसे पंखा कहते हैं. पंखे से जोड़ते हुए मेढ़ इस तरह बनायी जाती है कि ऊंची खड़ीन के भर जाने पर पानी इसी मेढ़ के सहारे होते हुए निचली खड़ीन में पहुंचता है और इसी तरह यह क्रम आगे चलता रहता है. चूंकि इलाके के लोग प्रकृति के रुख को समझते हैं इसलिए इन खड़ीनों के बीच में कोई सीमा नहीं खींची जाती. भरपूर नमी से भरी इन जमीनों पर सामूहिक खेती होती है. गांव के सारे घर मिलकर काम करते हैं और फसल में भी सबका हिस्सा होता है.
टांका
टांका भी राजस्थान में जल संरक्षण से जुड़ा महत्वपूर्ण पारंपरिक स्त्रोत है. यह कुछ-कुछ कुएं जैसी आकृति का होता है जिसमें छतों और आंगन में इकट्ठा हुए बरसाती पानी को कृत्रिम नालियों द्वारा एकत्रित किया जाता है. टांके के लिए बने कुंड को तैयार करते समय खास ख्याल रखा जाता है कि न तो उसका पानी रिसे और न ही भाप बनकर उड़ सके. साथ ही स्थानीय झाड़ियों, पत्तियों और पत्थरों की मदद से टांके तक आने वाले पानी को छानने की इतनी पुख्ता व्यवस्था की जाती है कि एक पीढ़ी को अपने जीवन में बमुश्किल एक बार ही इसमें से रेत निकालनी पड़ती है.

वर्षा जल और स्थान की उपलब्धता देखते हुए ये टांके पचास हजार लीटर से लेकर पांच लाख लीटर तक की क्षमता के होते हैं. ये किलों से लेकर मंदिरों, खेतों, घरों और रास्तों सहित तमाम जगहों पर मिल जाते हैं. अनुमान के मुताबिक एक बार पूरा भर जाने पर छोटा टांका पांच से छह सदस्यों वाले एक परिवार को एक पूरे साल पानी उपलब्ध करवा सकता है. राजस्थान के कई इलाकों में लोग पीढ़ी दर पीढ़ी इन टांकों का संरक्षण करते आ रहे हैं नतीजन ये परिवार बियाबान रेगिस्तान में पानी के लिए दर-दर भटकने से बच जाते हैं.
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