दिव्य प्रकाश दुबे हिंदी के युवा लेखक हैं और मुंबई में रहते हैं.
पता नहीं आपने हरदोई और शाहजहांपुर जैसे शहरों का नाम सुना है या नहीं. मेरे बचपन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इन दोनों शहरों में बीता. लखनऊ से ट्रेन जब दिल्ली की तरफ़ चलती है तो पहला सबसे बड़ा स्टेशन बरेली आता है. बरेली भी शायद इसलिये बड़ा हुआ होगा क्यूंकि वहां के बाज़ार में कभी एक झुमका गिरा था!
पिताश्री (पिताजी नहीं, जब भी पिताश्री शब्द बोलता हूं तो लगता है राही मासूम रज़ा साब को इस दुनिया में ये शब्द देने के लिये गले लगा रहा हूं) का ट्रांसफ़र हरदोई से शाहजहांपुर हो चुका था. मैं तब शायद आठवीं-नवीं में था. मुझे किसी काम से लखनऊ जाना था और जैसा कि हर बाप को लगता है कि उनके बेटे या बेटी को ट्रेन में अकेले जाना चाहिये, पिताश्री को भी लगा.

यह वो दौर था जब दुनिया जनरल का टिकट लेकर स्लीपर में बैठ जाती थी और टीटी को सौ रुपये का नोट देकर एक सीट ले लिया करती थी. शाहजहांपुर में ट्रेन दो मिनट रुकती थी. ट्रेन रुकी तो दो मिनट में टीटी दिखा नहीं तो पिताश्री ने कहा कि अपने आप बात कर लेना. तब मोबाइल फ़ोन थे नहीं वर्ना मैं मम्मी से शिकायत ज़रूर करता. ख़ैर मैं जगह देखकर बैठ गया और टीटी का इंतज़ार करने लगा. मेरे पड़ोस में खिड़की वाली सीट पर एक बाबा टाइप बैठे थे. सामने एक रिटायर्ड अंकल थे. पूरे डब्बे में कोई भी लड़की नहीं थी जो मेरी उम्र के आस पास हो. डब्बे में एक भी लड़की पड़ जाये तो कम से कम यह आसानी हो जाती थी कि टॉयलेट किधर का जाना रहेगा.
ख़ैर ट्रेन ने लखनऊ की तरफ़ बढ़ना शुरू किया और खिड़की से शाहजहांपुर ने पीछे छूटना. ट्रेन से घटिया चाय शायद ही कहीं मिलती हो, लेकिन फिर ट्रेन के दरवाज़े के पास खड़े होकर चाय पीना एक ज़रूरी प्रक्रिया थी जो कि मैंने तुरंत से पहले निपटा दी. चाय पी ही रहा था इतने में टीटी प्रकट हो गया. मैं सीट पर लौट आया.
बाबाजी से टिकट मांगा गया तो बाबा जी ने टिकट नहीं टीटी को आशीर्वाद दे दिया. सामने वाले अंकल ने अपना टिकट दिया. मैंने भी धीरे से सौ रुपये में लपेट कर अपना टिकट बढ़ा दिया. टीटी ने मुझसे कहा कि टिकट बनाना पड़ेगा 270 रुपये लाओ. अंकल ने अभी तक मुझसे कोई बात नहीं की थी, उन्होंने टीटी से कहा, ‘अरे बच्चा है, पहली बार अकेले जा रहा है.’ टीटी ने बिना कुछ कहे सौ रुपये लौटा दिये. साइड वाली सीट पर भी जो दो लोग बैठे थे उनमें से एक ने टिकट बनवा लिया और यहीं से समस्या शुरू हुई.
जिसने टिकट बनवा लिया उसने दूसरे को सीट से हटने के लिए बोला. लेकिन जो बैठा हुआ था वो कहां हटने वाला था! उसने वही लॉजिक दिया कि रिजर्वेशन रात के लिए होता है दिन में हर कोई बैठ सकता है. ट्रेन थोड़ा और आगे बढ़ी, झगड़ा थोड़ा और आगे चल निकला. धीरे-धीरे आवाज़ें तेज़ होने लगीं. आवाज़ों में थोड़ी बहुत गालियां आने लगीं.
मेरे पड़ोस वाले अंकल ने समझाने की कोशिश की लेकिन झगड़ा बढ़ चुका था. जब आदमी बातों से बात नहीं समझा पाता तो हाथों या लातों से समझाने की कोशिश करने लगता है. तो वहां भी एक-आधे लप्पड़ चल गए, मां-बहनों को याद किया जाने लगा. लोग इकट्ठा होकर निर्लिप्त भाव से सब देखने लगे. किसी ने झगड़ा रोकने की कोशिश नहीं की और जो कोशिश कर भी रहे थे उनकी कोई सुन नहीं रहा था. थोड़ी देर बाद पता नहीं कहां से जीआरपी वाले सिपाही आ गए. उन्होंने सबसे पहले लोगों को वहां से भगाया. फिर जिसका रिज़र्वेशन नहीं था उससे अलग से कुछ रुपये लिए और उसको हमारी साइड वाली सीट पर बैठाकर चले गए.
पूरे रास्ते जो दो लोग लड़े थे, एक दूसरे को देखकर आगबबूला होते रहे. बीच-बीच में गाली भी देते रहे, लेकिन फिर हाथ नहीं उठा.
जो लोग लड़े थे उन दोनों को हरदोई उतरना था. ऐसे तो ट्रेन से हरदोई से शाहजहांपुर की दूरी करीब 50 मिनट से लेकर एक घंटे की है, लेकिन उस दिन ट्रेन बीच में बहुत देर तक कहीं रुकी रही थी. जैसे ही हरदोई आया दोनों पार्टियां उतरीं और जाने लगीं. मैं दोनों को खिड़की से बाहर जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक वो दिखना बंद नहीं हो गए. मुझे उनको देखता देख सामने बैठे अंकल बोले, ‘देख रहे हो, जिस सीट के लिए पूरे रास्ते दोनों लड़ते रहे स्टेशन आने के बाद दोनों ने एक बार भी उस सीट को मुड़कर नहीं देखा, यही ज़िंदगी है. आदमी जिन चीज़ों के लिए ज़िंदगीभर परेशान होता है, आखिर में उनको पीछे मुड़कर भी नहीं देखता.’
मेरी उम्र तब इतनी नहीं थी कि मैं यह बात समझ पाता. अंकल ने मुझसे यह बात क्यों बोली मुझे नहीं पता. कुछ बातें संस्कृत की किताब के श्लोक की तरह होती हैं याद पहले होती हैं मतलब बहुत साल बाद समझ आते हैं.
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