फिल्मी सितारे किताब लिख रहे हैं. क्रिकेट के खिलाड़ी किताब लिख रहे हैं. टीवी के ऐंकर किताब लिख रहे हैं. पप्पू यादव की आत्मकथा आ चुकी. सन्नी लिओनी की आत्मकथा छप चुकी. इनकी किताबें उन लेखकों की किताबों से ज़्यादा चर्चित रही हैं जो ख़ुद को असली और तोप लेखक समझते हैं. इसलिए अब प्रधानमंत्री भी किताब लिखना चाहते हैं तो इसमें किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए, उल्टे इसका स्वागत होना चाहिए.

आख़िर एक देश का प्रधानमंत्री अपनी बेहद व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर वह काम करना चाहता है जिसे बौद्धिक माना जाता है और कई बार जिससे मिलने वाली स्थायी प्रतिष्ठा प्रधानमंत्रियों के हिस्से आने वाली तात्कालिक लोकप्रियता से कम नहीं होती.

लेकिन प्रधानमंत्री लिखना क्या चाहते हैं? बच्चों को इम्तिहानों के तनाव से बचाने के नुस्खे. निश्चय ही यह भी एक नेक ख़याल है. बच्चे वाकई इम्तिहानों में तनाव झेल रहे हैं. सब पर नंबर लाने का बोझ है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह सफल होने की शर्त है. अच्छे नंबर आएंगे तो अच्छी जगह दाखिला होगा, फिर अच्छी नौकरियों का रास्ता खुलेगा. इसके लिए तनाव मोल लेना पड़ता है. लेकिन तनाव कम करने के नुस्खे बताने वाले बहुत सारे जानकार हैं. आख़िर किताब लिखने के लिए प्रधानमंत्री को यही विषय क्यों मिला? क्या पूरे देश का दायित्व संभालने वाले व्यक्ति को पूरी शिक्षा पद्धति पर विचार नहीं करना चाहिए? क्योंकि नुस्खों से तनाव भले कुछ कम हो, तनाव की वह मूल वजह ख़त्म नहीं होती जिसका वास्ता पूरी शिक्षा व्यवस्था से है.

बच्चे वाकई इम्तिहानों में तनाव झेल रहे हैं. सब पर नंबर लाने का बोझ है. लेकिन नुस्खों से तनाव भले कुछ कम हो, तनाव की वह मूल वजह ख़त्म नहीं होती जिसका वास्ता पूरी शिक्षा व्यवस्था से है 

लेकिन पूरी शिक्षा व्यवस्था पर लिखना मुश्किल काम है. इसके लिए काफी विचार करना होगा, अध्ययन भी करना होगा. यह सोचना होगा कि शिक्षा से हम चाहते क्या हैं? क्या हम मानवीय मूल्यों से वंचित कुछ पेशेवर और मशीनी लोग चाहते हैं जिन्हें पढ़ाई करके नौकरी और पैसे मिलने लगें? या फिर हम अपने देशकाल, इतिहास और भूगोल की जटिलता से परिचित एक ऐसा समृद्ध मानस चाहते हैं जो तर्कशील और विचारशील हो? लेकिन अगर ऐसा मानस बन गया तो धर्म, सांप्रदायिकता और देश के नाम पर फैलाए जाने वाले उस उन्माद का क्या होगा जिससे उनकी पार्टी की राजनीति चलती है और जिसे सोशल मीडिया पर अफवाहों की खुराक से ताकत मिलती है?

अगर इस सवाल में असुविधा पैदा करने वाली शरारत की बू आती हो तो इसे छो़ड़ दें. लेकिन इस सवाल का तो सामना करना ही होगा कि हम अपने भारत को और अपनी भारतीयता को कैसे प्रयोगोन्मुख, नवाचारी और अग्रगामी बनाएं? प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सोच और साधनों के स्तर पर जो विपन्नता है, उसे कैसे दूर करें और कैसे एक परंपरा बनाएं जिसमें हमारे स्कूल शिक्षा की दुकानों में नहीं, शिक्षा के दीपों में बदलें. यह सब भी न करें तो कम से कम से यह तो सोचें कि अब तक के अनुभवों में इम्तिहानों ने शिक्षा का नुकसान ही किया है- पढ़ाई को नंबर लाने के उपक्रम में बदल दिया है जिसकी वजह से बच्चे सीखते नहीं, प्रश्नों के उत्तर रटने या लिखने की तैयारी करते हैं. कोई भी ज्ञान उनके लिए जीवन में उतारने के लिए नहीं होता, बल्कि नंबर लाने के लिए होता है. इसी वजह से कोचिंग सेंटर चलते हैं, कुंजियां छपती हैं और ट्यूटरों का धंधा चलता है.

इम्तिहानों की इस अपरिहार्य बुराई को समझते हुए ही दसवीं तक इम्तिहान ख़त्म करने का प्रस्ताव बार-बार आता रहा है. परिकल्पना यह है कि शिक्षक ही अपनी ज़िम्मेदारी समझें और बच्चों को ऊपर की कक्षाओं में भेजे जा सकने लायक साक्षर या शिक्षित बनाएं- खुद इसे अभिप्रमाणित करें. लेकिन बरसों से दूसरों की दी हुई पाठ्य पुस्तक पढ़ाते हुए, दूसरों के तय प्रश्न पत्रों के आधार पर इम्तिहान की कॉपियां जांचते हुए शिक्षकों को अपनी मौलिक और ज़िम्मेदार भूमिका पर जैसे यक़ीन ही नहीं रह गया है. प्रधानमंत्री के कार्यकाल में दसवीं के बोर्ड की वापसी हो चुकी है.

शायद हमारे देश में विशेषज्ञता की क़द्र लगातार घटती गई है. एक तरह के औसतपन को लगातार अहमियत मिल रही है. जो किसी भी तरह से कामयाब है, वह सारे ज्ञान दे रहा है  

और अब प्रधानमंत्री बच्चों का तनाव कम करने के नुस्खों वाली किताब लिखने वाले हैं. जाहिर है, इससे उस परीक्षा प्रणाली पर कुछ और मुहर लगेगी जिसे कयदे से ख़त्म कर देने की ज़रूरत है. किताब हालांकि कई भाषाओं में एक साथ छपेगी, लेकिन इसके प्रकाशन अधिकार देश के एक बड़े अंग्रेजी प्रकाशक को दिए गए हैं. हालांकि इस दौर में कोई पूछेगा नहीं, लेकिन यह पूछा जा सकने लायक सवाल है कि जब सरकार के पास नेशनल बुक ट्रस्ट जैसा बहुभाषी और विश्वसनीय प्रकाशन है, जब प्रकाशन विभाग जैसा किताबें छापने वाला एक महकमा है तो फिर एक निजी प्रकाशक को यह काम क्यों सौंपा जा रहा है? आखिर यह कोई व्यावसायिक उद्यम तो है नहीं. भले ही नरेंद्र मोदी निजी हैसियत से लिख रहे हैं, लेकिन देश और देश के बच्चों की नज़र में यह प्रधानमंत्री की किताब होगी- और इसीलिए इसमें दिए गए नुस्खों का महत्व होगा.

दरअसल यह भी एक चिंताजनक प्रवृत्ति की ओर इशारा है. अब महत्व विचार का नहीं, इस बात का है कि विचार कहां से आ रहा है. विचार की वैधता अब उसकी अपनी शक्ति से नहीं, अपने स्रोत से आती है. यानी लोग यह नहीं देखते कि क्या कहा जा रहा है, वे यह देखते हैं कि कौन कह रहा है. बेशक, यह बात भी कम अहमियत नहीं रखती. प्रधानमंत्री की एक हैसियत होती है और इसलिए उनकी बात का अलग वजन होना चाहिए. संकट यह है कि प्रधानमंत्री इस वज़न का इस्तेमाल समस्या दूर करने में नहीं, समस्या को चकमा देने का नुस्खा बताने में करना चाहते हैं.

लेकिन प्रधानमंत्री इस विषय के भी विशेषज्ञ नहीं हैं. वे बस तनाव घटाने का वह सामान्य ज्ञान सुझा सकते हैं जो पहले से ही लोगों के बीच मौजूद है. जाहिर है, अगर बच्चों का तनाव घटने का कोई गंभीर प्रयत्न करना है तो इसके लिए विशेषज्ञों की सलाह कहीं ज़्यादा कारगर होगी. लेकिन शायद हमारे देश में विशेषज्ञता की क़द्र लगातार घटती गई है. एक तरह के औसतपन को लगातार अहमियत मिल रही है. जो किसी भी तरह से कामयाब है, वह सारे ज्ञान दे रहा है. इस देश के सफल उद्योगपति, फिल्मी सितारे, क्रिकेट खिलाड़ी और कुछ नेता पूरे देश को सबकुछ सिखा रहे हैं- योग से लेकर उद्योग तक और पढ़ाई में तनाव घटाने से लेकर जीवन में सफल होने के नुस्खे तक. यही लोग बोल रहे हैं, यही लोग लिख रहे हैं, यही लोग सुने जा रहे हैं, यही लोग बिक रहे हैं.

यह दरअसल ज्ञान और किताब के अवमूल्यन का भी इशारा है. लेखन बहुत बड़ी चीज़ है. लिखने वाले दूसरों को ही नहीं बदलते, उनका लेखन सबसे पहले उनको बदलता है. बेशक, लेखन और जीवन के बीच का फ़ासला विचार की दुनिया का एक प्रिय विषय रहा है, लेकिन लेखन आपको वह आईना मुहैया कराता है जिसमें आप ख़ुद को देख सकते हैं. इस लिहाज से हर किसी के लेखक होने का स्वागत किया जाना चाहिए- बशर्ते, वह लेखन को अपनी शोहरत के एक और ज़रिए की तरह इस्तेमाल भर न कर रहा हो. प्रधानमंत्री क्या करेंगे, यह उनकी किताब बताएगी, इसलिए हमें उसका इंतज़ार करना चाहिए.