हमारी ज्यादातर फीचर फिल्में हैरान नहीं करतीं. उनमें ढोल-मजीरे बजाकर ‘ट्विस्ट्स एंड टर्न्स’ आते बहुत हैं, लेकिन हैरत में डाल सकें, ऐसी जादूगरी अब उन्हें नहीं आती. दूसरी तरफ उनके समीप के ही आभासी संसार में, इन दिनों कुछ लघु फिल्में ऐसे नायाब प्रयोग कर रही हैं कि हैरत-ए-ट्विस्ट नामक इस जादूगरी की पीसी सरकार हुई जा रही हैं!
ये शॉर्ट फिल्में इतने अकस्मात शॉट पुट गोले दर्शकों की तरफ फेंक रही हैं कि यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि सिर्फ 10-15 मिनट की अवधि में नए-नवेले युवा निर्देशक ऐसा कर भी कैसे पा रहे हैं. भौचक्क करने वाले ट्विस्ट्स को अकस्मात लाने के बावजूद वे कहानी के साथ उन्हें ऐसे जहीन अंदाज में पिरो रहे हैं कि दिखावेपन का कहीं अहसास नहीं होता और अंत में पटकथा की संपूर्णता अपना कायल बना लेती है. हमारी हिंदी फीचर फिल्में तो ढाई घंटे की अवधि में अवध से अमरीका हो आती हैं, लेकिन कभी-कभार ही ऐसा प्रभाव पैदा हो पाता है.
‘चुंबक’ बिलकुल इसी नये मिजाज की लघु फिल्म है. पिछले कुछ समय में आई ‘चटनी’, ‘टैंपो’ और ‘जय माता दी’ की ही तरह ये भी सिर्फ वही दिखाती है, जिसकी आपको उम्मीद नहीं होती. इसे थोड़ा संभलकर ही देखिएगा, क्योंकि नश्तर चुभाने से पहले यह आगाह नहीं करती.
यकीनन इस अनजान फिल्म को देखना आसान नहीं है. कई दर्शकों के लिए तो यह उस गहरी अंधेरी सुरंग में फंस जाने जैसा अनुभव होगा, जिसमें से गेंद बराबर गोल रोशनी फेंकने वाली टॉर्च के सहारे बाहर निकलते वक्त कई डरावनी चीजों से पाला पड़ता है.
लेकिन एक शादीशुदा जिंदगी के स्याह पहलुओं से होकर बाल शोषण तक, यह लघु फिल्म जिन रास्तों से गुजरकर पहुंचती है, वे रास्ते हिंदी सिनेमा या फिर पारंपरिक ऑडियो-विजुअल माध्यम के जाने-पहचाने रास्ते नहीं है. कलाकारों के साधारण और एकदम पारंपरिक अभिनय करने के बावजूद इसीलिए ‘चुम्बक’ आकर्षित करती है, और जब कहानी का सबसे जोरदार ट्विस्ट आता है तब भी झकझोर देने वाले बैकग्राउंड स्कोर और एक्स्ट्रीम क्लोज-अप वाले कैमरा शॉट्स की जरूरत फिल्म को नहीं पड़ती.
जुगनुओं और स्त्री के रुदन की आवाजों के बीच कहानी अपने पट खोलती है, एक किरदार अपनी बिखरी हुई बाहें समेटता है, और आप अवाक होकर देखते रह जाते हैं. जब तक कुछ सोचकर यह कह सकें कि ये हो क्या रहा है, कई सारी चीजें 10 मिनट लंबी इस लघु फिल्म के आखिरी एक तिहाई हिस्से में घट जाती हैं, और सही-गलत का सटीक आंकलन करने तक का वक्त फिल्म खत्म होने के बाद ही मिल पाता है.
एक पूर्णत: मौलिक गजल भी ‘चुम्बक’ में उपयोग की गई है. कलाकारों की भावनाओं को प्रभावी बनाने के लिए दृश्यों में आती-जाती रहने वाली इस खूबसूरत गजल को सिमी बिष्ट ने गाया है और लिखने के साथ संगीतबद्ध सुमंतो रे ने किया है. हो सके, तो बारिश होते वक्त इसे संपूर्णता में सुनिएगा.
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