अगर आप यू ट्यूब पर ‘रीगन राजीव अंब्रेला’ भर टाइप करें तो आपको 41 सेकेंड की एक क्लिप बड़ी आसानी से मिल जाती है. इस क्लिप में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सिर पर छतरी लगाए उन्हें कार तक छोड़ने आ रहे हैं. कार में बैठने से पहले राजीव रीगन से गले नहीं मिलते, बस हाथ मिलाते हैं और शालीनता से कार में बैठ जाते हैं. यह 1985 की तस्वीर है जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार अमेरिका गए थे. ये वे दिन थे जब शीत युद्ध की राजनीति के ख़त्म होने के आसार नजर नहीं आते थे और भारत गुटनिरपेक्ष होते हुए भी सोवियत खेमे का माना जाता था.

बस इस बात की कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने या फिर इज़राइल के राष्ट्रपति बेन्यामिन नेतन्याहू ने ऐसी छतरी मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर पर तान रखी होती तो क्या माहौल बनता. मीडिया ने कोहराम मचा दिया होता. जैसे मान लिया जाता कि अमेरिका या इजराइल तो बस प्रधानमंत्री मोदी के जादू के आगे परास्त हैं. भक्तगण इस तस्वीर को ट्वीट और रीट्वीट कर ऐसा वायरल कर देते कि अमेरिकी राष्ट्रपति छतरी लेना छोड़ देते. लेकिन राजीव गांधी और रोनाल्ड रीगन की इस मुद्रा पर तब शायद किसी ने ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझी. जाहिर है, वह एक अलग दौर था जिसमें तस्वीरों से ज़्यादा महत्व तथ्यों का होता था.

दरअसल आज के दौर की दृश्यबहुलता बिल्कुल दृष्टि की दुश्मन हो गई है. हमें ख़बरों की जगह सिर्फ दृश्य मिल रहे हैं. इन दृश्यों की व्याख्याएं अतिरेक से भरी हैं. उनमें दिखने वाली शालीन कूटनीतिक या आत्मीय मुद्राओं के बहुत गहरे राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं. चीन के राष्ट्रपति ने अगर प्रधानमंत्री के साथ अहमदाबाद में झूला झूल लिया या जापान के राष्ट्रपति ने दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर की साथ-साथ सैर कर ली तो जैसे यह पूरे दौरे पर हावी सबसे ब़डी ख़बर हो गई. टीवी चैनल इसके लाइव प्रसारण में लगे रहे, टीवी ऐंकर बताते रहे कि यह आत्मीयता प्रधानमंत्री की कितनी बड़ी उपलब्धि है.

निस्संदेह, इन दृश्यों का अपना महत्व है और कई बार राजनीतिक-कूटनीतिक दबावों के आगे ऐसे दृश्य बनते-बिखरते भी हैं, लेकिन दृश्य तथ्यों के पर्याय नहीं होते. इन दृश्यों की वजह से हमने तथ्यों को देखना, उनको जांचना-परखना छोड़ दिया है.

राजीव गांधी और रोनाल्ड रीगन
राजीव गांधी और रोनाल्ड रीगन

ताज़ा मिसाल इज़राइल की लें. भारतीय प्रधानमंत्री का पहला दौरा इज़राइल के लिए निस्संदेह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है. लेकिन क्या वह भारत के लिए भी ऐसी ही उपलब्धि है? सच यह है कि 1948 में इज़राइल के बनने या 1949 में उसके संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा बनने के बाद अगर किसी भारतीय प्रधानमंत्री को वहां जाने में 70 साल लग गए तो इसलिए नहीं कि कोई और मज़बूरी थी, बस इसलिए कि हमने वहां न जाना चुना था. भारतीय प्रधानमंत्री जब भी इज़राइल का दौरा करते, इज़राइल के लिए बड़ी बात होती, क्योंकि उससे उसकी अंतरराष्ट्रीय अस्पृश्यता में कुछ कमी आती.

इसमें कोई शक नहीं कि आज इज़राइल दौरे का चयन बदली हुई अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक व्यावहारिक पहलू है और इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है, लेकिन इज़राइल के साथ सहयोग की उम्मीद से भारतीय मीडिया का झूमने लगना हैरान करने वाला है. क्योंकि एक तरह से देखें तो भारत और इज़राइल में कोई बराबरी नहीं है. इज़राइल की आबादी दिल्ली की आधी नहीं तो अधिक से अधिक दो-तिहाई है. उसका इलाका कई भारतीय राज्यों से कई गुना छोटा है. इज़राइल अपनी तकनीकी दक्षता से ऐसे छोटे इलाके की सुरक्षा कर सकता है, अपनी छोटी सी आबादी के लिए समंदर के खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक का वहन कर सकता है. लेकिन भारतीय परिस्थितियों में यह तकनीकी मदद क्या इतनी ब़डी है कि हम इसे ऐतिहासिक करार दें?

ऐसा भी नहीं कि ये महत्वहीन हैं, लेकिन इनके सीमित महत्व को बहुत बड़ा मानने या बताने का इकलौता मतलब यही है कि हम देश के रूप में खुद अपनी ताकत और हैसियत को लेकर आत्मविश्वास से भरे नहीं हैं. हमें ठीक-ठीक यह भी नहीं पता कि इज़राइल जिसे अपनी सुरक्षा बता रहा है, उसे हासिल करने के लिए उसने कितना कुछ दांव पर लगाया है और क्या इसके बावजूद वह पूरी तरह सुरक्षित है? निस्संदेह यहूदी लोग दुनिया के बेहद प्रतिभाशाली लोग रहे हैं और एक दौर में उन्होंने यूरोप के बेतरह अत्याचार झेले हैं, उनकी जलावतनी ख़त्म होनी चाहिए थी और उनका देश भी होना चाहिए था, लेकिन इस देश को हासिल करने का तरीका अमेरिका की मदद से की गई वह जबरन घुसपैठ नहीं है जो इज़राइल ने की है. दुनिया के कई देशों के साथ भारत इसका विरोध करता रहा था, लेकिन दुनिया अब इतनी समझदार या निर्द्वंद्व हो चुकी है कि वह ऐसी नैतिक आपत्तियों को बेमानी मानती है.

एक मामले में भारत और इज़राइल एक जैसे हैं. जैसे भारत में हिंदू करीब 80 फीसदी हैं, वैसे ही इज़राइल में यहूदी करीब 78 फीसदी हैं. बाकी आबादी में 20 फ़ीसदी हिस्सा अरबों का है जो मुस्लिम हैं और बाकी दो फीसदी में ईसाई और अन्य आते हैं. लेकिन भारत ने परंपरा से हासिल अपनी सामाजिक विविधता के प्रति जो उदार नज़रिया अपनाए रखा है, उसने अब तक भारतीय समाज को एक अलग अनूठापन दिया है. इस अनूठेपन की झांकी साझा आचार-व्यवहार और पर्व-त्योहार में मिलती है. इज़राइल जैसा होने की ललक भारत के बहुसंख्यकवाद को ऐसा आक्रामक इकहरापन देगी जिसमें समाज इजराइल से कहीं ज़्यादा तनावग्रस्त और तहस-नहस दिखेगा, क्योंकि इतने विराट देश को तकनीकी दक्षताओं से नहीं, सामाजिक संबंधों से ही जोड़े रखा जा सकता है.

बहरहाल, यह विषयांतर यह याद भर दिलाने के लिए ज़रूरी था कि हम सिर्फ दृश्यों में न खोए रहें, यह भी देखें कि उनके पीछे की ठोस खबरें क्या हैं. यह न देखने का ही नतीजा है कि चीन से हमने उस मोर्चे पर बिगाड़ कर लिया, जहां विवाद लगभग नहीं के बराबर था. बेशक, यहां भी भूटान की चिंता में भारत की शिरकत उचित थी, लेकिन इसके बाद इस संकट का हल संयम से खोजने की सलाह देने की जगह रक्षा मंत्री ने 1962 और 2017 का फ़र्क बताना शुरू किया तो अचानक माहौल गर्मा गया. इसके बाद चीनी पक्ष लगभग अपमानजनक लहजे का इस्तेमाल करता दिखा और हमारे पास जी-20 की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी प्रधानमंत्री शी जिनपिंग की मुलाकात का इंतज़ार करने के सिवा कोई और चारा न बचा. उचित ही, चीनी राष्ट्रपति ने कहा कि संवाद से ही सीमा विवाद का हल खोजा जाना चाहिए.

इसमें शक नहीं कि चीन अपनी हैसियत के बावजूद वाकई भारत को 1962 वाला भारत समझने की भूल नहीं करेगा, लेकिन हमारी सांस में सांस तब आई जब हमने खबर चलाई कि भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति ने हाथ मिला लिए. इस सतही दृश्यबहुता का परदा हटा कर देख पाएंगे तो शायद हमें कहीं ज़्यादा ठोस ख़बरें मिलेंगी.