भारत में राष्ट्रपति ‘चयनित’ होते हैं या ‘नियुक्त’? इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं - एक सैद्धांतिक और दूसरा व्यावहारिक. सैद्धांतिक जवाब कहता है कि यहां राष्ट्रपति चयनित होते हैं, जबकि व्यावहारिक जवाब है कि असल में राष्ट्रपति सत्ताधारी पार्टी द्वारा नियुक्त कर लिए जाते हैं और फिर चुनाव सिर्फ एक औपचारिकता भर होती है. इसका एक सीधा प्रमाण तो यही है कि हमेशा की तरह इस बार भी चुनाव से पहले सब जान चुके थे कि अगला राष्ट्रपति कौन बनने वाला है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी रामनाथ कोविंद को इस पद के लिए ‘नियुक्त’ कर चुकी थी.
राष्ट्रपति चुनावों की ही तरह भारत में राष्ट्रपति से जुडी लगभग सभी बातें ऐसी हैं जो सैद्धांतिक तौर पर तो कुछ कहती हैं लेकिन व्यावहारिकता में कुछ और ही हैं. उदाहरण के लिए- सैद्धांतिक तौर पर तो देश के प्रधानमंत्री से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और केंद्रीय मंत्रियों से लेकर देश के अटॉर्नी जनरल तक की नियुक्तियां राष्ट्रपति करता है. लेकिन क्या वास्तव में यह माना जा सकता है कि इन नियुक्तियों में राष्ट्रपति की राय भी कोई मायने रखती है?
इसीलिए भारत का राष्ट्रपति सैद्धांतिक तौर से देश का ‘प्रथम नागरिक’ और ‘सबसे शक्तिशाली व्यक्ति’ होने के बावजूद व्यावहारिकता में अक्सर सिर्फ एक ‘रबर स्टाम्प’ ही कहलाता है. तीन सौ कमरों के महल में रहने वाला एक ऐसा ‘रबर स्टाम्प’ जिस पर जनता के करोड़ों रुपये हर साल खर्च किये जाते हैं. ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि जब हमारा राष्ट्रपति एक प्रतीकात्मक औपचारिकता भर है तो फिर हमें किसी राष्ट्रपति की जरूरत ही क्या है? इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश वहीं से शुरू करते हैं जहां से देश में राष्ट्रपति की इस व्यवस्था की शुरुआत हुई थी.
देश की आज़ादी के बाद जब संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो संविधान सभा ने कई देशों की व्यवस्थाओं का अध्यन किया और अलग-अलग देशों की व्यवस्थाओं को हमारे संविधान में शामिल किया गया. संसदीय प्रणाली की व्यवस्था ब्रिटेन से ली गई और माना जाता है कि ब्रिटेन में जो भूमिका राजा की थी, लगभग वही भूमिका संविधान में राष्ट्रपति के लिए तय कर दी गई.
यहां सवाल उठता है कि क्या ऐसा करना जरूरी था? चूंकि ब्रिटेन का कोई लिखित संविधान नहीं है और वहां परंपराओं ने ही व्यवस्था का रूप लिया है. लिहाजा वहां राजा का - प्रतीकात्मक तौर से ही सही - सर्वोच्च होना समझा जा सकता है. लेकिन भारत में स्थिति वहां से बिलकुल अलग थी. यहां कई रियासतों को मिलाकर एक गणतांत्रिक देश बन रहा था जिसे एक लिखित संविधान से, बिलकुल नए सिरे से चलना था. इसीलिए कई लोग यह भी मानते हैं कि यहां ब्रिटेन के राजा जैसी किसी प्रतीकात्मक व्यवस्था की जरूरत ही नहीं थी.
राष्ट्रपति की व्यवस्था के पक्ष में अक्सर यह तर्क दिए जाते हैं कि राष्ट्रपति देश का प्रतिनिधित्व करता है और पार्टियों की राजनीति से ऊपर होता है. लेकिन वास्तव में ये दोनों ही तर्क बेहद कमज़ोर हैं. प्रतिनिधित्व का जहां तक सवाल है, उसे वर्तमान स्थिति से ही समझा जा सकता है. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज देश का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है? राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी? इसी तरह राष्ट्रपति के पार्टियों की राजनीति से ऊपर होने का तर्क भी खोखला ही नज़र आता है और इतिहास में इसके ढेरों प्रमाण हैं. अलग-अलग सरकारों ने समय-समय पर राष्ट्रपति से सिर्फ मनचाहे अध्यादेश ही पारित नहीं करवाए बल्कि देश में आपातकाल तक लागू करवाया है. लिहाजा राष्ट्रपति के दलगत राजनीति से ऊपर होने की बात भी व्यावहारिकता के पैमाने पर खरे नहीं उतरती. बल्कि सत्ताधारी पार्टी ‘अपने आदमी’ को राष्ट्रपति बनाने के भरसक प्रयास इसीलिए करती है कि उससे राजनीतिक लाभ लिए जा सकें.
ये राजनीतिक लाभ कई तरीकों से लिए जाते हैं. पहला तो ऐसे कि अगर भविष्य में होने वाले चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिले तो राष्ट्रपति उसी पार्टी को सरकार बनाने का मौका पहले दे जिसने उसे राष्ट्रपति बनाया था. इसके अलावा राष्ट्रपति के बहाने तुष्टिकरण की राजनीति भी खूब साधी जाती है. ‘मुस्लिम राष्ट्रपति’, ‘महिला राष्ट्रपति’ और ‘दलित राष्ट्रपति’ जैसे शब्द इसी तुष्टिकरण की राजनीति से उपजे हैं. हाल ही में भाजपा से जुड़े नेताओं का यह कहना कि रामनाथ कोविंद का विरोध करने वाले दलित-विरोधी माने जाएंगे’ इसका एक और उदाहरण है.
राष्ट्रपति के नाम पर होने वाली तुष्टिकरण की इस राजनीति ने कभी उस समुदाय को भी कोई लाभ नहीं पहुंचाया जिस समुदाय के नाम पर यह राजनीति हुई. न तो किसी मुस्लिम के राष्ट्रपति बनने से मुस्लिम समुदाय का कोई भला हुआ, न किसी महिला के राष्ट्रपति बनने से महिलाओं का. बल्कि देश में सिखों के खिलाफ सबसे बड़ा नरसंहार तभी हुआ जब देश का राष्ट्रपति खुद एक सिख था और उस दंगे में जो लोग मारे गए, उन्हें आज तक न्याय नहीं मिला.
राष्ट्रपति पर होने वाली राजनीति से इतर यदि राष्ट्रपति की शक्तियों के आधार पर बात करें, तो भी राष्ट्रपति पद की कोई खास उपयोगिता नहीं लगती. राष्ट्रपति की लगभग सभी शक्तियां पूरी तरह से सरकार के अधीन ही हैं. संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है और राष्ट्रपति के सुझावों को ठुकराने के लिए संसद स्वतंत्र है. हालांकि राष्ट्रपति के पास यह विकल्प है कि वह यदि किसी कानून को मंजूरी नहीं देना चाहे तो उस बिल को लंबित ही छोड़ सकता है. लेकिन इस विकल्प का इस्तेमाल आज तक कितनी बार हुआ है, यह गिनने के लिए एक हाथ की उंगलियां भी ज्यादा हैं.
कहने को तो राष्ट्रपति देश की सभी सेनाओं का प्रमुख होता है लेकिन सरकार की अनुमति के बिना उसके पास किसी एक भी सैन्य अधिकारी को नियुक्त या उसका तबादला करने का भी अधिकार नहीं है. इसी तरह राष्ट्रपति के लगभग बाकी सभी अधिकार भी सरकार से शुरू होकर सरकार पर ही ख़त्म हो जाते हैं. यहां तक कि आम धारणा के उलट राष्ट्रपति का दया याचिकाओं पर फैसला करना भी उसका स्वतंत्र अधिकार नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय से ठुकराए जाने के बाद जो दया याचिकाएं राष्ट्रपति के पास पहुंचती हैं, उन पर भी राष्ट्रपति केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार ही फैसला करता है और उसके सुझाव मानने को बाध्य होता है.
संसद के फैसलों की संवैधानिकता को देखने-परखने के बाद राष्ट्रपति अंतिम मुहर का काम करता हो, ऐसा भी नहीं है. तमाम ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब राष्ट्रपति द्वारा किसी कानून पर हस्ताक्षर करने के बाद भी देश की सर्वोच्च अदालत ने उस कानून को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद्द किया है. कुछ समय पहले ही जजों की नियुक्ति संबंधी कानून के साथ भी ऐसा ही हुआ था. इसी तरह दया याचिकाओं पर राष्ट्रपति के ‘अंतिम फैसले’ को भी सर्वोच्च न्यायालय पलट चुका है और पलटने का अधिकार रखता है.
ऐसे में यह सवाल वाजिब ही लगता है कि जब हमारे राष्ट्रपति के पास कोई भी ठोस या अनन्य शक्तियां नहीं हैं, तो फिर इस पद की जरूरत ही क्या है? औपचारिकताएं निभाने के अलावा जो भी महत्वपूर्ण दायित्व राष्ट्रपति निभाता है, उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कोई समिति या किसी अन्य वैकल्पिक व्यवस्था के जरिये भी पूरा किया ही जा सकता है. और जहां तक औपचारिकताएं निभाने का सवाल है तो अगर राष्ट्रपति नाम की यह औपचारिकता देश के नागरिकों पर करोड़ों रुपये का भार न डाल रही होती तो इसे निभाते रहने में कोई हर्ज भी नहीं था.
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