नोएडा के सेक्टर 78 की महागुन मॉडर्न सोसाइटी की महिलाओं ने तय किया है कि वे अपने घर के सारे काम ख़ुद करेंगी. बाहर से किसी कामवाली बाई की मदद नहीं लेंगी. इसकी वजह पिछले दिनों एक कामवाली को लेकर पैदा अनुभव और विवाद रहा. इस विवाद पर आगे बढ़ने से पहले वह घटनाक्रम देखें जो यहां तक चला आया. सोसाइटी के एक परिवार ने कामवाली पर चोरी का आरोप लगाया जो उसके मुताबिक कामवाली ने मान लिया. जब वे कामवाली को लेकर सोसाइटी के दफ़्तर जा रहे थे तो वह भाग निकली. कामवाली के मुताबिक वह डर के मारे बेसमेंट में छुपी रही जबकि सोसाइटी का कहना है कि वह किसी घर में तबीयत ख़राब होने के बहाने से रह गई. जो भी हो, संभव है, चोरी के आरोप के बाद वह महिला डर गई हो. असुरक्षित और कमजोर लोगों के भीतर जितनी मज़बूती होती है, उतना ही अनावश्यक डर भी होता है. तो यह भी हो सकता है कि चोरी के लिए बदनाम होने से लेकर नौकरी छूटने और जेल जाने तक के अंदेशे ने उसे बदहवास बना दिया हो.

लेकिन अगली सुबह उसकी बस्ती वाले हंगामा करने चले आए. उन्होंने आरोप लगाया कि उसे चोरी के आरोप में बंधक बना कर रखा गया है. इन हंगामा करने वालों में बहुत सारे लोग वे थे जो 2600 परिवारों की इस सोसाइटी में पहले से काम कर रहे थे. उन्होंने गालियां दीं, पत्थर फेंके, तोड़फो़ड़ की, सोसाइटी वालों को अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस बुलानी पड़ी. यह निस्संदेह एक भयावह दृश्य रहा होगा. सोसाइटी वाले उन लोगों के निशाने पर थे जिन पर वे भरोसा करते रहे, जिनके भरोसे वे अपने घर छोड़ते रहे. इसके बाद स्वाभाविक है कि सोसाइटी के बाशिंदे अपने लिए सुरक्षात्मक कदम उठाएं.

महानगरों की जो नई संरचना है, उसमें सोसाइटी और झुग्गी बस्तियां बिल्कुल समानांतर बसती हैं. एक भव्य सोसाइटी बनती है तो उसके बाहर एक बड़ी झोपड़पट्टी खड़ी हो जाती है

इस बीच, पूरे किस्से में एक और पहलू निकल आया. सोसाइटी वालों ने आरोप लगाया कि वह बांग्लादेश की है. जाहिर है, वह बंगाली तो रही ही होगी, संभव है, बांग्लादेश की भी हो- गरीबी और मजबूरी देश नहीं देखती, पलायन उसका इकलौता रास्ता होता है. लेकिन वह कहीं की भी हो, अब तक सस्ते में सुलभ थी, इसलिए चलाई जा रही थी. जब उससे ख़तरा महसूस हुआ तो सबको उसकी पहचान याद आई. यह अलग बात है कि वह बंगाली न होकर, बिहार, झारखंड और ओडिशा की भी होती तो भी इतना ही हंगामा होता.

बहरहाल, यह खबर नोएडा के एक अपार्टमेंट से उठकर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की तमाम सोसाइटियों में चिंता का विषय बन चुकी है. सबके अंतरंग संवाद में यह बात उठ रही है कि वे बांग्लादेशी कामवालियों से सावधान रहें और अपने यहां काम करने वालों का ‘पुलिस वेरिफिकेशन’ कराएं.

लेकिन महागुन सोसाइटी ने अपने संकट से निबटने का जो रास्ता खोजा है, क्या वह व्यावहारिक है? जिस दौर में कामकाजी महिलाएं लगातार बढ रही हैं, उस समय निचले तबके की कामकाजी महिलाओं पर पाबंदी लगाना दरअसल अपने पांव भी बांध लेना है. सोसाइटी के परिवारों की महिलाएं सिर्फ शौक की वजह से घरेलू सहायिकाएं नहीं रखतीं. उनमें से कई नौकरीपेशा होंगी या कोई रोज़गार करती होंगी. दिल्ली और आसपास के इलाकों में बहुत सारी महिलाओं का रोज़गार बस इसलिए संभव हो पाता है कि वे अपने घर में किसी सहायिका को रख पाती हैं. जो सिर्फ घरेलू महिलाएं होती हैं, उनके हिस्से भी अब इतनी ज़िम्मेदारियां होती हैं कि उनका काम भी अंशकालिक मदद के बिना नहीं चल पाता. तो जब ये सहायिकाएं नहीं होंगी तो इन महिलाओं को सिमट कर अपने घरों में क़ैद रह जाना होगा. सोसाइटी के पुरुषों को यह फैसला भले कम प्रभावित करे, लेकिन स्त्रियों के लिए इस पर अमल काफ़ी मुश्किल होगा.

कहा जा सकता है कि जब जान और सुरक्षा का सवाल हो तो ऐसे समझौते मायने नहीं रखते. लेकिन क्या पिछले दिनों इस सोसाइटी में जो कुछ घटा, वह एक बस्ती के लोगों का हिंसक व्यवहार भर है जिससे सभ्य सोसाइटियों को बचाया जाना चाहिए? यह एक जटिल सवाल है जो हमारी वर्ग चेतना के खिलाफ़ पड़ता है. क्योंकि महानगरों की जो नई संरचना है, उसमें सोसाइटी और झुग्गी बस्तियां बिल्कुल समानांतर बसती हैं. एक भव्य सोसाइटी बनती है तो उसके बाहर एक बड़ी झोपड़पट्टी खड़ी हो जाती है. जब यह सोसाइटी बन रही होती है तो वे मज़दूर पास ही अपने रहने का जुगाड़ करते हैं और जब वह बन जाती है तो वह उसके छोटे-छोटे लेकिन बेहद जरूरी काम निबटाते हैं. अख़बार फेंकने, कार साफ़ करने, कूड़ा उठाने, इस्त्री करने या घरों में कामकाज करने के लिए जो लोग आते हैं, वे ऐसी ही बस्तियों से आते हैं. इन्हीं में से कुछ सब्ज़ियां बेचते हैं, कुछ तरह-तरह के ठेले लगाते हैं, कुछ रिक्शा और ऑटो तक चलाते हैं. यह पारस्परिक निर्भरता बहुत कुछ आपसी भरोसे पर चलती है. मुझे याद है, 2001 में जब हम गाज़ियाबाद के वसुंधरा इलाक़े में रहने आए थे, तब बिजली और पानी के सामान्य इंतज़ामों से वंचित, और लगभग अंधेरे और एकांत में डूबी 110 फ्लैटों वाली उस इमारत में बस 12 परिवार रहते थे. लेकिन हमारे साथ बहुत सारे मज़दूर परिवार रहते थे जिनसे हमारी ज़रूरतें भी पूरी होती थीं और उस सन्नाटे में सुरक्षा का एहसास भी मिलता था.

इस मोड़ पर कामकाजी भारत के निचले सिरे पर खड़े लोगों की एक और दुखती हुई रग सामने आती है. हम इसे असंगठित क्षेत्र बोलने के आदी हैं. लेकिन वह असंगठित क्षेत्र से भी नीचे का मामला है   

बेशक सोसाइटी के निवासियों और काम वालों में कई बार यह भरोसा टूटता भी है. कभी-कभी चोरी की घटनाएं हो जाती हैं, कभी-कभी कामवालियां कुछ अतिरिक्त पैसे लेकर चली जाती हैं. ऐसा ही भरोसा महागुन सोसाइटी में टूटा. लेकिन इस पारस्परिकता का एक और विडंबनापूर्ण पहलू है. ज़्यादातर सोसाइटियों में- ख़ासकर इन दिनों बन रही तथाकथित हाई एंड कहलाने वाली इमारतों में सोसाइटी के मालिकों और मज़दूरों के बीच का फ़ासला लगभग अमानुषिक स्तरों पर पहुंचाया जा रहा है. कई जगहों पर कामवालियों के लिफ्ट के इस्तेमाल पर पाबंदी है. वे बस सीढियों से आ-जा सकती हैं. कई जगह उनके लिए अलग लिफ्ट है. बेहद-चमकते-दमकते अपार्टमेंट्स के कई-कई फ्लैटों में काम करने के बावजूद उनके लिए कायदे के बाथरूम का इंतज़ाम नहीं होता. यही नहीं, ज़्यादातर सोसाइटियों में महिलाएं आपस में तय कर लेती हैं कि वे कामवालियों को कितने पैसे देंगी. इस मोल-तोल में कामवालियां अक्सर घाटे में रहती हैं. उन्हें बिना नागा किए लगातार काम करना पड़ता है. छुट्टी लेने का मतलब ‘दीदी’ की डांट सुनना होता है. बेशक, कई घरों में उन्हें नाश्ता-वाश्ता मिल जाता होगा, कभी-कभार कुछ पुराने कपड़े और खिलौने भी, लेकिन यह सब कुछ काम कराने वाले की निजी दया पर निर्भर करता है, उनके अधिकार का मामला नहीं होता.

दरअसल इस मोड़ पर कामकाजी भारत के निचले सिरे पर खड़े लोगों की एक और दुखती हुई रग सामने आती है. हम इसे असंगठित क्षेत्र बोलने के आदी हैं. लेकिन वह असंगठित क्षेत्र से भी नीचे का मामला है. यहां काम कर रहे दरबानों, मालियों, कामवालियों के पैसे अक्सर न्यूनतम मज़दूरी से भी नीचे होते हैं. उन्हें एक साथ-साथ कई-कई घरों में काम करना पड़ता है और उनकी नौकरी की निश्चिंतता बस इस पर निर्भर रहती है कि काम कराने वाले किसी बात से नाराज तो नहीं होते. कायदे से होना यह चाहिए कि जिन्हें हम काम वालियां कहते हैं, उनका भी एक दर्जा तय होना चाहिए, उनकी भी सेवा शर्तें स्पष्ट होनी चाहिए. यही बात बाकी छोटे-छोटे दूसरे रोज़गारों या सेवाओं पर लागू होती है. अगर उनकी ज़िंदगी सुधरेगी, कुछ बेहतर होगी तो इससे हमारी ज़िंदगी भी कुछ बेहतर और आश्वस्ति से भरी होगी. तब आपसी सम्मान भी बढ़ेगा और चोरियां का अंदेशा भी घटेगा.

अगर मान लें कि यह सब बहुत आदर्शवादी विचार हैं जिन पर अमल होना संभव नहीं है तो जो रास्ता महागुन सोसाइटी वाले अपना रहे हैं, वह भी असंभव होने के साथ-साथ ख़तरनाक भी है. अगर बाहर रहने वाली कामवालियां और उनकी बस्ती के लोग तय कर लें कि वे भी सोसाइटी वालों की कोई मदद नहीं करेंगे तो मुसीबत दोतरफा होगी. तब सोसाइटी का कचरा कौन उठाएगा, वहां झाड़ू कौन लगाएगा, वहां अखबार कौन बांटेगा, वहां कारों की सफ़ाई कौन करेगा? इन सब कामों के लिए बाहर से लोग मंगाए जाएंगे तो वे ख़र्चीले भी साबित होंगे और एक नई तरह का तनाव भी पैदा करेंगे. यही नहीं, सोसाइटी के बाहर पड़ी एक बेरोजगार, अनजान और दुश्मन मान ली गई आबादी सोसाइटी के भीतर के लिए ज़्यादा खतरनाक साबित होगी. सिर्फ निजी सुरक्षा गार्ड और पुलिस के भरोसे समाज नहीं चलते, पारस्परिक भागीदारी भी बढ़ानी और जोड़नी पड़ती है.

महागुन सोसाइटी का संकट इसकी ओर एक इशारा है. लेकिन नए बनते समाज के खाते-पीते लोगों को बाज़ार पर, मुद्रा पर और अपनी ताकत पर इतना भरोसा है कि उन्होंने इस संकट का हल खोजने की कोशिश करने की जगह ख़ुद को सिकोड़ लिया, बंद कर लिया. अगर वे खुलते तो शायद चोरी के एक मामूली से विवाद के साथ शुरू हुआ झगड़ा अंततः एक सकारात्मक शुरुआत के साथ ख़त्म होता. लेकिन उन्होंने बांग्लादेशी खोजने शुरू कर दिए. जाहिर है, समस्या कहीं ज्यादा बड़ी है और इसका वास्ता राष्ट्रवाद से नहीं, हमारी सिकुड़ती सामाजिकता से है. हम इसका विस्तार करेंगे तो महागुन जैसी घटनाओं का अंदेशा घटेगा. अगर इसे सिकोड़ेंगे तो अपनी सोसाइटी की सुरक्षा से बाहर अपने लिए ऐसा अनजान समाज खड़ा करेंगे जिसमें आपसी रिश्ता बस संदेह का होगा. यह जरूरी है कि सोसाइटी और समाज के बीच का फ़ासला कुछ कम हो.