भारत में राष्ट्र और राष्ट्रवाद को लेकर जैसी बहस आज छिड़ी है, वह भारत की राजनीतिक आज़ादी के बाद इस पर छिड़ी सबसे तेज बहस कही जा सकती है. राष्ट्र को मोटे तौर पर एक राजनीतिक इकाई माना जाता है जिसे अपनी पहचान या अस्मिता कायम करने के लिए झंडे और राष्ट्रगान जैसे प्रतीकों की जरूरत होती है. लेकिन राष्ट्रवाद का छोटा सा इतिहास बताता है कि किसी राष्ट्र को एकटजुट रखने के लिए सिर्फ प्रतीक ही काफी नहीं हैं.
राष्ट्र एक भावनात्मक इकाई भी है. इसके सदस्यों के बीच हृदयगत जुड़ाव और साझेदारी इसके होने की अहम् शर्त है. किसी झंडे या गान के प्रति श्रद्धा के पीछे भी यही जुड़ाव और साझेदारी कार्य करती है. मानव समाज चूंकि गतिशील है, इसलिए कोई भी सहमति, समझौता और भावनात्मक एकजुटता सार्वकालिक नहीं हो सकते. इन्हें लगातार बनाए रखने के लिए परस्पर प्रेम, विश्वास और आत्मीय संवादों से सींचते रहने की जरूरत होती है.

हमारे यहां कुछ समय पहले ‘भारत माता’ और ‘गोमाता’ को लेकर काफी बहस चली है. अब ‘वंदे मातरम्’ को लेकर भी वह बहस फिर से चल पड़ी है. झंडा, सेना और टैंक को लेकर भी एक राष्ट्रवादी बहस चल ही रही है. ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि महात्मा गांधी जैसे भारतीय राष्ट्र के निर्माता ‘वंदे मातरम्’ जैसे राष्ट्रीय गीत के बारे में क्या सोचते थे. ध्यान रहे कि यह वो दौर था जब भारत एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित नहीं हुआ था और इसके लिए संघर्ष ही चल रहा था.
वंदे मातरम् से महात्मा गांधी का परिचय उनकी किशोरावस्था में ही हो गया था. लेकिन बंकिम चंद्र द्वारा अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में इसे डाले जाने के लगभग 25 वर्ष बाद गांधीजी ने इस पर गहराई से विचार किया था. इसका कारण था कि यह गीत तब तक न केवल पूरे बंगाल में बल्कि भारत के अन्य हिस्सों में भी एक राष्ट्रवादी गीत के रूप में फैल चुका था. अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान ही दो दिसंबर, 1905 के ‘इंडियन ओपिनियन’ में महात्मा गांधी ने इस पर एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने इस पूरे गीत को गुजराती और हिंदी में छापा था. लेख का शीर्षक था- ‘वंदे मातरम् : बंगाल का शौर्यमय गीत’.
उन्होंने लिखा - ‘बंगाल में स्वदेशी माल का उपयोग करने संबंधी आंदोलन के सिलसिले में विराट सभाएं की गई हैं. उनमें लाखों लोग एकत्रित हुए हैं और सभी ने बंकिमचंद्र का गीत गाया है. कहा जाता है कि यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है कि राष्ट्रगीत बन गया है. अन्य राष्ट्रों के गीतों से यह मधुर है और इसमें उत्तम विचारों का समावेश है. दूसरे राष्ट्रों के गीतों में अन्य राष्ट्रों के बारे में खराब विचार होते हैं. इस गीत में ऐसी कोई बात नहीं है. इस गीत का मुख्य उद्देश्य केवल स्वदेशाभिमान पैदा करना है. इसमें भारत को माता का रूप देकर उसकी स्तुति की गई है. जिस प्रकार हम अपनी मां में सभी गुणों के होने वाली भावना रखते हैं, उसी प्रकार कवि ने भारत माता में सभी गुण माने हैं.’
इसके 10 वर्ष बाद 27 अप्रैल, 1915 को गांधी मद्रास में विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करने पहुंचे. इस कार्यक्रम की शुरुआत विद्यार्थियों ने ‘वंदे मातरम्’ गाकर ही की. इस पर गांधीजी ने जो कहा था, उसे आज फिर से सुनना और समझना जरूरी लगता है. उन्होंने कहा - ‘और अब हम उस मनोहर राष्ट्रीय गीत की बात लें, जिसे सुनते ही हम सब श्रद्धा से उठ खड़े हुए. उसमें कवि ने उन सभी विशेषणों का प्रयोग कर डाला है जिनका उपयोग भारतमाता के लिए संभव है. उन्होंने भारत माता को सुहासिनी, सुमधुर भाषिणी, सुवासिनी, सर्वशक्तिमती, सर्वसद्गुणवती, सत्यवती, सुजला सुफला, शस्यश्यामला और महान स्वर्णयुग में ही संभव हो, ऐसे मनुष्यों से बसी हुई बताया है. क्या हमें यह गीत गाने का अधिकार है? मैं अपने आप से पूछता हूं, ‘क्या मुझे उस गीत को सुनकर तुरंत उठ खड़े होने का कोई अधिकार है?...’
‘… निस्संदेह कवि ने हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है, जिसके शब्द किसी भविष्य-द्रष्टा के शब्द-मात्र हैं, और हमारी इस मातृभूमि का वर्णन करते हुए उन्होंने जो शब्द कहे हैं, उनमें से प्रत्येक को चरितार्थ करना आप लोगों का - जो भारत की आशा हैं, काम है. इस समय तो मैं यही समझता हूं कि मातृभूमि के वर्णन में इन विशेषणों का प्रयोग बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण है, और कवि ने मातृभूमि की ओर से जो दावे किए हैं, उन्हें आपको और मुझे सिद्ध करना है.’
आज भी हमारी नवपीढ़ियों को शायद यही समझना है कि हमें अपने राष्ट्र का निर्माण रोज-रोज करना है. परस्पर प्रेम, विश्वास, सद्भावना और मैत्रीपूर्ण संवाद से ही हमें अपनी विभिन्नताओं को समझना और स्वीकार करके चलना है. तभी हम वंदे मातरम् गीत में व्यक्त कवि की भावनाओं को चरितार्थ कर पाएंगे. यह तो खैर हम जनता को समझना है. लेकिन हमारे हुक्मरानों को क्या समझना है? एक ऐसे समय में जब झंडा, टैंक और राष्ट्रगीत को जबरन आरोपित कर उसे दिनचर्या का हिस्सा बनाने की कोशिश चल रही है, तो यहां भी वंदे मातरम् के संबंध में गांधीजी की कही गई एक और बात लागू होती है.
बिहार के चंपारण के बाद गुजरात में खेड़ा सत्याग्रह का दौर चल रहा था. महात्मा गांधी सरदार पटेल के साथ गुजरात में घूम-घूमकर जन जागृति कर रहे थे. इस दौरान 22 अप्रैल, 1918 को बोरसद तालुक के पालेज गांव में उन्होंने लगभग एक हजार किसानों को संबोधित किया. कार्यक्रम की शुरुआत में लड़कियों से वंदे मातरम् गवाया गया. लड़कियों ने ठीक सुर और लय में इसे नहीं गाया. इस पर गांधीजी ने क्या खूब कहा - ‘हमारी दैनिक जीवनचर्या में दो कमजोरियां दिखाई देती हैं. एक, हमारे काम ऊपरी होते हैं और दूसरे, हम जो भी करते हैं समझकर नहीं करते. जैसे कोई अभिनेता नाटक में अपने कंठस्थ किए गए अभिनय को दुहराता है वैसे ही हम भी कार्य करते हैं. इसलिए उसका अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाता है. जैसे नाटक में हरिश्चन्द्र की भूमिका निभा रहे अभिनेता में सत्य की संपूर्ण व्याप्ति नहीं होती, हमारे समाज का व्यापार भी इसी प्रकार चल रहा है. यहां इन कन्याओं ने वंदे मातरम् गीत गाकर यही सिद्ध किया है. हमें अपना काम अधूरे मन से करने की आदत हो गई है. लेकिन जब तक हम अपना कार्य पूरे मन से नहीं करेंगे तब तक हमें सफलता न मिलेगी.’
यही होता है जब हम किसी चीज को जबरदस्ती लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बना देते हैं. प्रार्थनाएं या गीत चाहे कितने ही भावप्रवण और उदात्त विचारों से भरे हुए क्यों न हों, यदि उन्हें किसी नियम के तहत रोज-रोज गवाने की अनिवार्यता तय कर दी जाती है, तो वे अपना वास्तविक महत्व खो बैठते हैं. उनमें निहित भावनाएं और अर्थ कहीं पीछे छूट जाते हैं. बल्कि हमारा उस ओर ध्यान ही नहीं जाता. उन्हें रटना और बड़बड़ाते हुए सामूहिक स्वर में बोल देना बस खानापूर्ति बनकर रह जाती है. वह अपने आप में एक रूढ़ व्यवहार या कर्मकांड बनकर रह जाता है.
1937 में कांग्रेस कार्यसमिति ने इस गीत के प्रथम दो पद्यांशों को राष्ट्र-गान के रूप में सुझाया था. लेकिन साथ ही उसने यह प्रस्ताव भी दिया था कि लोग चाहें तो इसके साथ या इसके बदले कोई और राष्ट्र-गान भी गा सकते हैं. उस दौरान तिरंगे झंडे तक का विरोध हुआ था. वंदे मातरम् को हिन्दू धर्म से जुड़ा मानकर जब कुछ मुस्लिम संगठनों और मिशनरी विद्यालयों ने इसे गाने पर ऐतराज जताया था, तो महात्मा गांधी ने इस गीत की महान भावना को समझते हुए भी इसे जबरन थोपे जाने का विरोध ही किया था.
27 जून, 1939 को बम्बई में एक सभा को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा—‘जिन लोगों को झंडे और सांप्रदायिक एकता से प्रेम है, उनके लिए बुद्धिमानी इसी में है कि अल्पमत चाहे कितना ही नगण्य क्यों न हो, वे उसके विरोध को मान लें. ...वंदे मातरम् के गायन पर भी वही लागू होता है. सवाल यह नहीं है कि यह गीत किसने लिखा और कैसे एवं कब बना. बंग-भंग के दिनों में यह हिन्दुओं और मुसलमानों, सभी का बहुत ही प्रभावशाली युद्ध का नारा बन गया था. यह साम्राज्यवाद विरोधी नारा था. जब मैं अपनी किशोरावस्था में ‘आनन्द मठ’ या उसके अमर लेखक बंकिम चंद्र के बारे में कुछ नहीं जानता था, तब भी ‘वंदे मातरम्’ ने मुझे अभिभूत कर दिया था. और जब मैंने पहली बार ‘वंदे मातरम्’ को गाते हुए सुना तब मैं मंत्रमुग्ध हो गया था...’
‘…पवित्रतम् राष्ट्रीय भावना इस गीत में मैंने देखी. मुझे महसूस ही नहीं हुआ कि यह केवल हिन्दुओं के लिए रचा गया है. बदकिस्मती से आज हमारे बुरे दिन आ गए हैं. जो कुछ पहले खरा सोना था, आज वह खोटी धातु हो गया है. ऐसे वक्त में अपने शुद्ध सोने को बाजार में लाना और उसे खोटी धातु के दामों बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है. मैं यह खतरा नहीं उठाऊंगा कि मिली-जुली भीड़ में ‘वंदे मातरम्’ का गायन हो और उसपर कोई झगड़ा करे. यदि इसका प्रयोग हम न करें, तो भी इस राष्ट्रीय गीत को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी.’
राष्ट्रगान, राष्ट्रीय गीत या देशभक्ति के ऐसे किसी भी प्रतीक को सबके लिए बाध्यकारी या अनिवार्य बनाते समय हमें गांधीजी की इन बातों का याद रखना जरूरी है. राष्ट्र की असल बुनियाद हैं परस्पर विश्वास, प्रेम, सद्भाव और संवाद. बिना इसके कोई भी जबरिया प्रतीक बेमानी है, निरर्थक है, ऊपरी और दिखावटी है. वह फायदे की जगह नुकसान पहुंचाने वाला ही है.
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