गुजरात में राज्यसभा की सबसे चर्चित सीट पर कांग्रेस के अहमद पटेल ने बेहद रोमांचक तरीके से जीत हासिल कर ही ली. विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत के चलते राज्यसभा की तीन में से दो सीटों का भारतीय जनता पार्टी के पाले में जाना लगभग तय था. लेकिन तीसरी सीट भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए नाक का सवाल बन गयी थी. 20 सालों में ऐसा पहली बार हुआ था कि इस सीट के दो दावेदार थे. एक तरफ कांग्रेस की तरफ से चार बार लगातार राज्यसभा सदस्य रह चुके अहमद पटेल थे तो दूसरी ओर हाल ही में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए बलवंत सिंह. सूत्रों के मुताबिक बलवंत सिंह ने यह कदम भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के इशारे पर उठाया था.

गुजरात में 2005 में हुए विवादित सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में अमित शाह को करीब तीन महीने साबरमती जेल की हवा खानी पड़ी थी. यह 2010 की बात है. उस समय केंद्र में यूपीए सरकार थी और अहमद पटेल उसके प्रमुख रणनीतिकार. बताया जाता है कि अपने खिलाफ हुई इस पूरी कार्यवाही के पीछे अमित शाह अहमद पटेल को जिम्मेदार मानते थे.

तीन साल में समय बदला और कांग्रेस हाशिए पर आ खड़ी हुई. दूसरी तरफ अमित शाह का कद अपनी पार्टी के साथ देश भर की राजनीति में बहुत तेजी से मजबूत हुआ. उन्होंने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया. जानकारों के मुताबिक शाह ने इस मुहिम की शुरुआत अपने चिर प्रतिद्वंदी माने जाने वाले अहमद पटेल के खिलाफ बिसात बिछा कर की.

बताया जाता है कि अमित शाह इस चुनाव में पटेल को हराने के लिए साम-दाम, दंड-भेद हर नीति अपनाने को तैयार थे. राज्यसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शंकर सिंह वाघेला उर्फ बापू का अपने छह समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ देना शाह की ही मुहिम का हिस्सा माना गया. जहां जानकारों ने इस चुनाव को अमित शाह के अहम की लड़ाई बताया वहीं कांग्रेस के लिए यह चुनाव अस्तित्व के सवाल के तौर पर देखा जाने लगा. इस लड़ाई में पार्टी जैसे-तैसे अपने 43, एक एनसीपी और एक जदयू विधायक के समर्थन से अपनी साख बचाने में सफल रही है. अहमद पटेल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहाकार हैं और पार्टी के चाणक्य माने जाते हैं. ऐसे में उनकी जीत और भाजपा की हार के कई मायने निकाले जा रहे हैं.

भाजपा के लिए सीख

पिछले कुछ अरसे से भाजपा जबरदस्त फॉर्म में है. उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में भारी बहुमत पाने के साथ-साथ पार्टी उन राज्यों में भी सरकार बनाने में सफल रही है जहां अब तक ऐसा सोचना भी उसके लिए दूर की कौड़ी था. इसके अलावा कई राज्य ऐसे भी हैं जहां भाजपा का खाता बिना कोई चुनाव जीते ही खुल गया. त्रिपुरा ऐसे ही राज्यों में शुमार है जहां हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के छह विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं. इन तमाम कामयाबियों का श्रेय पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के रणनैतिक कौशल को दिया जाता है. हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का महागठबंधन छोड़ भाजपा में शामिल होना शाह की उपलब्धियों की ताजा बानगी के तौर पर देखा जाता है.

राजनैतिक विशेषज्ञों के मुताबिक एक के बाद एक लगातार मिली इन सफलताओं के चलते भाजपा के आम कार्यकर्ता से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक शाह को ऐसा अचूक तीर माना जाने लगा जिसका निशाने पर लगना तय होता है. एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक विश्वास के इस स्तर को अतिविश्वास या भ्रम की उस श्रेणी में रखते हैं जिसका टूटना तय है.

जानकार अहमद पटेल की जीत को भाजपा के लिए एक बड़ी सीख के तौर पर देख रहे हैं. उनके मुताबिक अपने विपक्षियों को हद से ज्यादा कमजोर आंकना पार्टी की बड़ी भूल साबित हुई. विशेषज्ञों के मुताबिक पहले खुद ही किसी आम चुनाव को इतनी हवा देना और उसके बाद अपने ही गृह राज्य में असफल हो जाना किसी भी बड़े नेता की छवि के लिए ठीक नहीं है.

कांग्रेस के लिए संजीवनी

शंकर सिंह वाघेला के कांग्रेस से छोड़ने से लेकर अहमद पटेल के जीतने तक चले इस हाईवोल्टेज घटनाक्रम को जानकार अपने-अपने नजरिए से देख रहे हैं. इनमें से कुछ के मुताबिक यदि हर बार की तरह इस बार भी अहमद पटेल बिना चुनाव के ही अपनी सीट निकालने में कामयाब रहते तो कार्यकर्ताओं पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता. विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार यह सीट जीतने के लिए कांग्रेस को केंद्र से लेकर राज्य तक एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा है. उनकी मानें तो इससे मिली जीत के चलते पार्टी सभी राज्यों में खुद से वाघेला जैसे अतिरिक्त वजन को दूर करने की हिम्मत जुटा पाएगी और निराशा के इस दौर में उसे अपनी क्षमताओं का सही आकलन करने में निश्चित तौर पर मदद मिलेगी.

इस पूरी उठापटक को राजनीतिकार प्रदेश में तीन महीने बाद होने वाले विधासभा चुनावों के लिए कांग्रेस के वार्म-अप के तौर पर देख रहे हैं. उनके अनुसार इसके चलते अगले विधानसभा चुनाव में गुजरात में कांग्रेस की जीत यानी ‘चमत्कार’ भले न हो. लेकिन पार्टी भाजपा के उस दावे की धज्जियां उड़ा सकती है जिसके मुताबिक अमित शाह प्रदेश में 150 से ज्यादा सीटें जीतकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तोहफा देने की बात कर रहे हैं.

फिलहाल अहमद पटेल की जीत को पार्टी का आम कार्यकर्ता अपनी जीत मानकर खुश दिख रहा है और आत्मविश्वास से लबरेज भी. राजनीतिकारों का कहना है कि इस जीत ने न सिर्फ गुजरात बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में नए प्राण फूंक दिए हैं और इसका असर गुजरात सहित अन्य राज्यों के विधानसभा और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर पड़ना तय है.

शंकरसिंह वाघेला का अब क्या होगा?

90 के दशक में गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके शंकरसिंह वाघेला करीब 17 साल पहले भाजपा का दामन छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए थे. तब से उन्हें प्रदेश संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां मिलती रहीं. लेकिन इस बार खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की जिद पर अड़े वाघेला ने मांग पूरी न होने पर कांग्रेस का साथ छोड़ दिया.

हालांकि खुले तौर पर उन्होंने भाजपा के साथ जाने की खबरों का खंडन किया. लेकिन सूत्र बताते हैं कि पर्दे के पीछे वे भाजपा के ही साथ थे. वाघेला के समधी बलवंत सिंह का अहमद पटेल के सामने भाजपा की तरफ से खड़ा होना, वाघेला का सिंह को वोट देना, राज्यसभा चुनाव के दौरान वाघेला के पुत्र और विधायक महेंद्र सिंह वाघेला द्वारा अमित शाह के पैर छूने की खबरें आना इस बात का इशारा भी करती हैं. जानकार कहते हैं कि यदि बलवंत सिंह यह चुनाव जीत जाते तो प्रदेश की राजनीति में वाघेला का कद बढ़ सकता था लेकिन अब स्थिति अलग है.

एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक वाघेला का नाम अब मौकापरस्त नेताओं की सूची में शामिल हो चुका है जिनपर कोई भी संगठन बड़ा दांव खेलने से बचेगा. दूसरे, कांग्रेस से जुड़े रहने पर वाघेला को अपेक्षाकृत ज्यादा सम्मान मिलने की संभावना थी. दूसरी तरफ भाजपा से प्रदेश के सैकड़ों विधायक लंबे अरसे से जुड़े हुए हैं. जानकार कहते हैं कि ऐसे में वाघेला और उनके मुठ्ठीभर समर्थकों के आने या जाने से प्रदेश भाजपा पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. विशेषज्ञों के मुताबिक इस तरह अब वाघेला और उनके बेटे के साथ-साथ उनके समर्थकों का राजनैतिक भविष्य भी दांव पर है.

अशोक गहलोत को फायदा

वाघेला के अलावा राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का भविष्य भी इस चुनाव से जुड़ा हुआ था. दरअसल अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी कांग्रेस के अंतर्कलह की खबरें सामने आती रही हैं जिनके मुताबिक पार्टी दो प्रमुख खेमों में बंटी है. इनमें से एक गुट प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट के समर्थन में है तो दूसरा गहलोत के.

पार्टी हाईकमान ने गुजरात में गुरुदास कामत की जगह अशोक गहलोत को चुनाव प्रभारी की जिम्मेदारी सौंपी थी. मुश्किल हालात और भाजपा की सेंधमारी के बीच बेंगलुरु गए 44 विधायकों का लगभग एकजुट रहना पार्टी के अन्य नेताओं के साथ गहलोत के लिए भी अच्छे संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. इससे पहले अशोक गहलोत पंजाब में भी कांग्रेस के प्रचार के लिए गए थे जहां पार्टी सरकार बनाने में सफल रही. जानकारों की मानें तो ये सभी उपलब्धियां राजस्थान में अगले साल होने वाले मुख्यमंत्री चुनावों में उन्हें फायदा पहुंचा सकती हैं.

विजय रूपाणी और आनंदी बेन जैसे कई नेताओं का भविष्य भी तय होगा

यदि बात गुजरात के भाजपा नेताओं की करें तो मौजूदा मुख्यमंत्री विजय रूपाणी अमित शाह के नजदीकी माने जाते हैं. जबकि पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के प्रधानमंत्री मोदी के साथ अच्छे संबंध हैं. यही कारण है कि मोदी के बाद प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी को आनंदी बेन ने संभाला था. लेकिन पिछले दो साल में दलितों से जुड़े ऊना कांड और हार्दिक पटेल के अगुवाई में पाटीदार आंदोलन जैसे प्रदर्शनों के चलते आनंदी बेन को हटाकर रूपाणी को मौका दिया गया.

लेकिन जानकारों के मुताबिक पिछले करीब एक साल में रुपाणी भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाए हैं. लिहाजा राज्यसभा चुनाव में अमित शाह का दांव चूकने का खामियाजा विजय रूपाणी को उठाना पड़ सकता है. माना जा रहा है कि अगले विधानसभा चुनावों में पार्टी एक बार फिर आनंदी बेन पटेल को आगे कर सकती है.

इनके अलावा प्रदेश की राजनीति में कुछ छोटे-बड़े परिवर्तन और देखने को मिल सकते हैं. वाघेला के जाने से कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी और वरिष्ठ नेता अर्जुन मोडवाडिया का पार्टी में कद और बढ़ेगा. दूसरे वाघेला समर्थक विधायकों के जाने से जो जगह खाली हुई है वहां नए चेहरों को सामने लाया जा सकता है जो नए वोटर को रिझाने में सफल हो सकते हैं.

इनके अलावा हाल ही में भाजपा से जुड़ी जदयू ने गुजरात में अपने इकलौते विधायक छोटू वसावा द्वारा अहमद पटेल को वोट दिए जाने से नाराज होकर प्रदेश में अपने महासचिव और चुनाव प्रभारी अरुण श्रीवास्तव को पार्टी से निष्कासित कर दिया है. ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि आने वाले समय में वसावा और श्रीवास्तव दोनों नेता कांग्रेस से जुड़ सकते हैं. वहीं एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार की घोषणा के बावजूद गुजरात में पार्टी के दो में से एक विधायक कांधल जडेजा ने कांग्रेस के बजाय भाजपा को वोट दिया है. तो संभव है कि वे भी एनसीपी छोड़कर भाजपा से जुड़ जाएं. इसके अलावा बेंगलुरु ले जाए गए 44 विधायकों में से साणंद के विधायक करम सिंह मकवाड़ा ने क्रॉस वोटिंग की थी. ऐसे में संभावना है कि वे भी अब वाघेला या भाजपा खेमे की तरफ खिसक लेंगे.