गुरमीत राम रहीम पर फ़ैसला आने के बाद से उपजी हिंसा और उसके बाद के हालात पर राजनैतिक चुप्पी कोई नयी बात नहीं है. गलत के साथ अगर किसी के हित जुड़े हुए हों तो फिर उसमें इसे गलत कहने की इच्छाशक्ति बहुत कम ही देखी जाती है.
महाभारत में भीष्म, द्रोणाचार्य आदि जीवन भर ‘गलत’ के साथ जुड़े रहे. आज गुरमीत राम रहीम वाले मामले में हमारे राजनीतिक नेतृत्व के साथ कुछ ऐसी ही स्थिति दिखती है. प्रतिकार कर सकते हैं, पर करते नहीं हैं. सबके अपने-अपने हित जुड़े हैं.
तीन तलाक वाले मुद्दे पर सबका फ़ायदा था. सब एक सुर में बोल पड़े. गुरमीत राम रहीम के अनुयायी बहुत बड़ा वोट बैंक हैं. सब चुप रह गए. यह राजनैतिक चुप्पी या एक सुर में चहचहाना कदम ताल जैसा लगता है. लेकिन सैनिकों की कदम ताल विश्वास जगाती है. राजनेताओं की कदम ताल समाज को डराती है.
पर ऐसे भी उदाहरण हैं जब प्रभाव रखने वाले व्यक्तियों ने इस ‘गलत’ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और दुनिया ने उसे सुना भी. चाहे नुकसान का खतरा कितना भी बड़ा क्यों न रहा हो, ये लोग झुके नहीं.
महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था. सरकार बिलकुल ठप्प हो गयी थी. बस कुछ दिन और गुज़र जाते तो शायद घुटनों पर आ जाती. गांधी अपनी शर्तों पर 1922 में ही देश की तकदीर बदल सकते थे. तभी चौरा-चौरी हत्याकांड हो गया. 22 पुलिसकर्मी एक थाने में जलाकर मार दिए गए. गांधी स्तब्ध रह गए. सोचने लगे कि उनसे क्या भूल हुई जो शांतिप्रिय आंदोलन एकदम से हिंसक हो उठा.
राष्ट्रपिता के सामने आंदोलन की सार्थकता और देश की आजादी का सवाल खड़ा हो गया था. बहुत लाजमी था कि उद्देश्य को ध्यान में रखकर वे आंदोलन को चलने देते. पर उनकी अंतरात्मा ने ऐसा करने से मना कर दिया. उनके लिए साध्य और साधन, दोनों महत्वपूर्ण थे. नतीजतन असहयोग आन्दोलन बंद कर दिया गया. देश भर में उनकी आलोचना हुई. कांग्रेस उनके फैसले से हैरान थी.
लेकिन गांधी के मन में कोई संशय नहीं था. खुद को हिंसा का दोषी मानते हुए वे प्रायश्चित स्वरूप उपवास पर चले गए और जाते जाते कह गए कि हिंसा के ज़रिये प्राप्त की गई आजादी का कोई मूल्य नहीं है. उनका मानना था कि शायद समाज अभी अहिंसा के मर्म को समझा नहीं है और आजादी के लिए तैयार नहीं है. बाकी इतिहास है.
1964 में तब मार्टिन लूथर किंग को नोबेल शान्ति पुरस्कार प्रदान किया था. अटलांटा निवासी मार्टिन लूथर तब महज़ 37 वर्ष के थे और अमरीका के अश्वेत आन्दोलन के प्रणेता थे. किंग के सम्मान में शहर के मेयर इवान एलन ने एक सामूहिक रात्रि भोज का आयोजन किया इसमें उन्होंने शहर के रसूखदार लोगों को आमंत्रित करने का फ़ैसला किया. लोगों ने मेयर इवान एलन के आमंत्रण को तवज्जो नहीं दी. कारण कि शहर में श्वेत लोग बहुसंख्यक थे और उन्हें किसी अश्वेत को सम्मानित करना अपनी तौहीन लगी.
मेयर ने कोका-कोला कंपनी के भूतपूर्व प्रेसिडेंट रोबर्ट वुडरूफ को हालात से रूबरू कराया और उनसे अटलांटा के बड़े उद्योगपतियों को उनका निमंत्रण स्वीकार करने की अपील करने को कहा. कोका कोला कंपनी तब वैश्विक या बहुराष्ट्रीय कंपनी बनने की प्रकिया में थी और अटलांटा में उसका हेडक्वार्टर था. अटलांटा शहर तब इस बात के लिए भी जाना जाता था कि कोका कोला का दफ्तर उस शहर में है. यह शहर के लिए एक सम्मान से कम नहीं था.
रोबर्ट वुडरूफ ने तब कंपनी के सीईओ जे पॉल ऑस्टिन को मेयर की मदद करने को कहा. जे पॉल ऑस्टिन ने दक्षिण अफ्रीका में 14 साल बिताये थे और रंगभेद के समाज और व्यवसाय पर प्रभाव को काफ़ी नज़दीक से देखा था. उन्होंने एक मीडिया कॉन्फ्रेंस बुलाई और कह दिया, ‘अगर यह शहर (अटलांटा) मार्टिन लूथर का सम्मान नहीं कर सकता तो हम कोका-कोला के दफ़्तर को इस शहर से कहीं और ले जायेंगे चाहे कितना भी नुकसान क्यों न हो.’
उनकी बात ने असर किया. मेयर इवान एलन का मार्टिन लूथर किंग के सम्मान में दिया गया भोज सफल रहा. लगभग 1600 लोगों ने इसमें हिस्सा लिया. इस सम्मान से अभिभूत हुए मार्टिन लूथर किंग ने अपने भाषण में कहा, ‘मेरे अपने शहर में मेरा इतना शानदार स्वागत और यह सम्मान मुझे ताउम्र याद रहेगा.’ इसी भोज में सब लोगों ने खड़े होकर अमेरिका का मशहूर गाना ‘वी शेल ओवरकम’ गाया.
कब राजनैतिक पार्टियां और हम अपना हित छोड़कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के हिसाब से फ़ैसला लेंगे? हम कब यह गाना गाने के लिए खड़े होंगे? सोचने की बात है.
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