इसी पुस्तक से : ‘भगत - (बोलना शुरू करता है) जिस्म पर लगे घाव आदमी की ताक़त का सबूत नहीं होते जनाब. ताक़त कहीं और से आती है. ख़ून बहना कोई बड़ी बात नहीं है...वो अपना हो...या सामने वाले का. बड़ी बात ये है कि जिस्म से टपकी हुई एक बूंद आने वाली नस्ल के सारे के सारे खू़न में आग लगा सकती है या नहीं. इनसानी ज़िन्दगी बहुत क़ीमती होती है. हंसते-हंसते उसको फांसी के तख़्ते पे चढ़ा देना हिम्मत का काम ज़रूर है...मगर समझदारी का नहीं. वक़्त और मौक़ा तय किए बग़ैर अपनी जान गंवाना बेवकूफी है. हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संग्राम के सौ साल के इतिहास में शायद यही कमी रह गई...(सारे ख़ामोशी से सुन रहे हैं)
...बाकी जहां तक आज़ादी का सवाल है...तो बतला दूं कि हिन्दुस्तान को सिर्फ़ आज़ादी की जरूरत नहीं है. और कहीं अगर ये हमें ग़लत तरीके से मिल गई तो मुझे कहने में हिचक नहीं कि आज से सत्तर साल बाद भी हालात ऐसे रहेंगे. गोरे चले जाएंगे...भूरे आ जाएंगे. कालाबाज़ारी का साम्राज्य होगा...घूसखोरी सर उठा के नाचेगी. अमीर और अमीर होते जाएंगे...ग़रीब और ग़रीब...और धर्म...जाति और ज़ुबान के नाम पर इस मुल़्क में तबाही का ऐसा नंगा नाच शुरू होगा... जिसको बुझाते-बुझाते आने वाली नस्लों और सरकारों की कमर टूट जाएगी.’

नाटक : गगन दमामा बाज्यो
लेखक : पीयूष मिश्रा
प्रकाशक : राजकमल
कीमत : 125 रुपये
बेशक भगत सिंह इस धरती पर ज्यादा समय तक सांस नहीं ले सके, पर वे इस मुल्क की आवाम के दिलों में आज भी धड़कते हैं. वे इस देश के ऐसे गिने-चुने नायकों में से हैं जिनका जादू उनके दौर से लेकर आज की युवा पीढ़ी पर भी कायम है. ‘गगन दमामा बाज्यो’ इसी युग नायक भगत सिंह के जीवन पर आधारित नाटक है.
‘गगन दमामा बाज्यो’ गुरु ग्रन्थ साहिब की एक सूक्ति है. इसका अर्थ है, ‘तू आज से भिड़ जा, बाकी देख लेंगे.’ पीयूष मिश्रा का यह नाटक भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों के इसी जोश-जज्बे और इसके आसपास की मानवीय संवेदनाओं को समेटता है. भगत सिंह द्वारा ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक पार्टी (एचआरए)’ का सदस्य बनने की इच्छा जताने के समय का बेहद रोचक वर्णन यह नाटक करता है -
‘बिस्मिल : (अंधेरे में) क्यों आना चाहते हो एचआरए में?
भगत : जिस वजह से आप लोग हैं...
बिस्मिल : अपनी वजह बताओ.
भगत : वजह सबकी एक है. मुल्क की आज़ादी.
बिस्मिल : कैसे मिलगी...?
भगत : लड़ना पड़ेगा.
बिस्मिल : अंधेरे में तीन-चार अंग्रेज लड़कों को पीटने को लड़ना कहते हो?
भगत : वो शुरुआत थी. और शुरुआत तो कभी ना कभी होती है. (अशफ़ाकुल्लाह ख़ान की आवाज़ गूंजती है) लड़ तो पिछले सौ साल से रहे हैं. अभी तक तो मिली नहीं...आज़ादी.
भगत : शायद लड़ने के तरीके में ग़लती रह गई. (हल्की-सी हंसी फैलती है)
अशफ़ाक : (मुस्कुराहट भरा स्वर) और उस ग़लती को तुम ठीक करने आए हो...
बिस्मिल : शादी में शहीद होने से बच कर भागे हो बरख़ुरदार...? (फिर हंसी की लहर)
भगत : (मुस्कुराता है) शहीद वहां भी होना है तो कम से कम महबूबा तो पसन्द की हो...(इस बार एक हल्का ठहाका)
अशफाक : जवानी में मौत और महबूबा में कोई फ़र्क़ नहीं दिखता... जब तक कि वो सामने न आ जाए...
बिस्मिल : बहुत तकलीफ़ होती है मरने में...बरख़ुरदार...
भगत : आपको कैसे मालूम? आप कभी मरे हैं क्या? (एक सन्नाटा) (बिस्मिल असहज हो कर पहलू बदलते हैं)...
बिस्मिल : (थोड़े असहज) इस कमरे में बैठा हर शख़्स कभी ना कभी...थोड़ा-बहुत मरा है. इनके जिस्म के घाव इस बात के सबूत हैं.’
भगत सिंह का मकसद सिर्फ अंग्रेजों से मुल्क को आजादी दिलानाभर नहीं था, बल्कि वे एक ऐसे देश की कल्पना करते थे जिसमें आजादी के बाद आम इंसान को सम्मान और समानता के साथ जीने का मौका मिल सके. वे समाजवाद को इस देश के लिए सबसे बेहतर व्यवस्था मानते हुए अपने साथी फणीन्द्रनाथ घोष और ललित मोहन बनर्जी से बहस करते हैं -
‘फणीन्द्रनाथ घोष : लेकिन मिस्टर सिंह, इस सोशलिज्म नाम की साइंस में धर्म के लिए कोई जगह नहीं है, जो हमारे देश की परम्परा है...!
भगत सिंह : (एक हंसी के साथ) हमारे देश की परम्परा ग़रीबी है...! हमारे देश की परम्परा भूख है...! हमारे देश की परम्परा फ्रस्ट्रेशन है और हम इसी परम्परा को अपने सीने से चिपकाकर ज़िन्दगी-भर घूमना चाहते हैं. धर्म इन्सानी कौम के लिए एक अफ़ीम है...जो उसे एडिक्ट तो कर सकती है...उसे भरपेट खाना नहीं खिला सकती.
ललित मोहन बनर्जी : आप ये कैसे कह सकते हैं? उससे व्यक्ति का विश्वास बढ़ता है.
भगत : उससे व्यक्ति का ख़ौफ़ बढ़ता है.
बनर्जी : उस व्यक्ति में आध्यात्मिक शक्ति आती है.
भगत : और वो सारी शक्ति मिलकर एक वक़्त की भूख नहीं मिटा सकती.
फणीन्द्र : आप भूख को ही इतना ऊंचा स्थान क्यों देते हैं?
भगत : देते तो आप भी हैं. मैं बोल देता हूं, आप बोलते नहीं.’
पीयूष मिश्रा का यह नाटक भगत सिंह की विचारधारा से संपूर्णता में पाठकों का परिचय कराने में सफल होता है. इस नाटक में भगत सिंह के जीवन से जुड़े एक बिल्कुल अनछुए पहलू का भी जिक्र मिलता है, और वह है ‘भगत सिंह की विधवा’, जिसके बारे में लेखक का कहना है -
‘इतिहासकारों का इस बारे में मत है कि ऐसी कोई लड़की नहीं थी. मगर...पंजाब की हर गली में भगत सिंह की विधवा को लेकर गीत गाए जाते हैं. एक ऐसी लड़की, जिसने उनकी मृत्यु के बाद कभी शादी नहीं की. यह कितना सच है...कितना नहीं, यह तो मुझे नहीं मालूम’.
यह नाटक पढ़ाकू भगत सिंह, खूबसूरत भगत सिंह, शान्त भगत सिंह, हंसोड़ भगत सिंह, इंटलेक्चुअल भगत सिंह, युगदृष्टा भगत सिंह, दुस्साहसी भगत सिंह और प्रेमी भगत सिंह से एक साथ हमें मिलवाने में सफल होता है.
यह नाटक भगत सिंह की ‘हिंसा में विश्वास रखने वाले इंसान’ की छवि को भी तोड़ता है. असेंबली में बम फेंकने के बाद एक जगह पीयूष, भगत सिंह से कहलवाते हैं - ‘इन्सान के लिए हमारा इश्क किसी से भी कम नहीं है. इसलिए इन्सान का खू़न करने की ख़्वाहिश रखने का तो सवाल ही नहीं उठता. हमारा एकमात्र उद्देश्य था कि एक धमाका करें, क्योंकि बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ही ज़रूरत होती है. हमने उनको चेतावनी दी है जो आंख मूंदकर अन्धों समान इस रेस में दौड़ते चले जा रहे हैं... हमारी क्रांति कोई बम और पिस्तौलों की संस्कृति नहीं है. हमारे लिए उसका अर्थ है...बदलाव...चेंज.’
इस संगीतमय नाटक का फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह’ के लेखन में काफी योगदान है. इसे पढ़ते हुए बार-बार इसका मंचन देखने की इच्छा प्रबल होती जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस नाटक का मंचन दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देगा, आंखों की कोर नम कर देगा, उन्हें कुछ कर गुजरने की बेचैनी और ज्यादा कुछ न कर पा सकने की छटपटाहट से भी भर देगा!
पीयूष मिश्रा का यह नाटक हमें भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, अशफ़ाक़उल्ला खान, चन्द्रशेखर आजाद और उन जैसे असंख्य क्रांतिकारियों के देशप्रेम के जुनून से मिलवाने में सफल होता है. साथ ही यह नाटक आज के उन युवाओं को कटघरे में भी खड़ा करता है, जिनके लिए सोशल साइट पर आजादी के संदेश फॉरवर्ड करना, तिरंगे की प्रोफाइल फोटो लगाना ही देशप्रेम का प्रतीक बनकर रह गया है.
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