पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का इन दिनों अपनी ही पार्टी की सरकार पर हमला सुर्खियों में है. भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने नोटबंदी को आपदा बताते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली को कटघरे में खड़ा किया है. उन्होंने कहा कि जीडीपी पहले ही गिर रही थी और नोटबंदी ने आग में घी डालने का काम किया. कांग्रेस ने भी यशवंत सिन्हा के बयान का समर्थन किया है. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा, ‘मैं देशभर में घूमता हूं, जहां लोग अब कह रहे हैं कि अच्छे दिन तो आए नहीं, ये बुरे दिन कब जाएंगे.’
2014 के आम चुनाव में भाजपा ने मतदाताओं से देश के समग्र विकास के लिए कांग्रेस की 60 साल की तुलना में 60 महीने की मांग की थी. बीते मंगलवार को केंद्र की मोदी सरकार के 40 महीने यानी दो-तिहाई कार्यकाल पूरे हो चुके हैं. किसी सरकार के लिए इतना वक्त जनता से किए गए वादों को पूरा करने के लिए काफी माना जा सकता है. लेकिन, फिलहाल मोदी सरकार 2014 में देशवासियों से किए गए वादों को पूरा करने की जगह इन मोर्चों पर विफल या जूझती हुई दिख रही है. यही वजह है कि अब गैरों के साथ-साथ अपनों ने भी उस पर हमला शुरू कर दिया है.
बीते आम चुनाव में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के स्टार प्रचारकों ने भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन, रोजगार, महिला सुरक्षा, आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा और किसानों की खुदकुशी जैसे बड़े मुद्दों पर कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार पर ताबड़तोड़ निशाना साधा था. उस वक्त माना गया कि इन्हीं मुद्दों पर देश की जनता ने 30 साल बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट जनादेश दिया है. भाजपा ने अकेले 543 सीटों में से 282 सीटें हासिल की थीं. हालांकि, मोदी सरकार के दो-तिहाई कार्यकाल पूरा होते-होते अब विपक्ष ने इन्हीं मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरना शुरू कर दिया है. माना जा रहा है कि अगर स्थिति ऐसी ही या इससे बदतर हुई तो भाजपा को 2019 के चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
रोजगार
भाजपा ने 2014 के चुनाव में कांग्रेस पर 10 वर्षों से देश को रोजगारविहीन विकास में घसीटने का आरोप लगाया था. साथ ही, अपने चुनावी घोषणापत्र में उसने युवाओं सहित लोगों के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाने का वादा किया था. हालांकि, सत्ता में आने के 40 महीने बाद भी लोगों को रोजगार मिलने की जगह बेरोजगारों की फौज बढ़ती ही दिख रही है. ऊपर से सरकारी और निजी क्षेत्रों में रोजगार के घटते मौकों ने आग में घी डालने का काम किया है. इसके अलावा बीते साल सरकार के नोटबंदी जैसे बड़े फैसले की वजह से भी लाखों लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है.
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय स्तर पर 997 रोजगार केंद्रों द्वारा नौकरी देने की दर केवल 0.57 फीसदी है. नेशनल करियर सर्विस (एनसीएस) के मुताबिक 2015 में इन केंद्रों के जरिये आवेदन करने वाले प्रति 500 उम्मीदवारों में से केवल तीन को ही नौकरी मिली. इसके अलावा देश में साल दर साल रोजगार केंद्रों की प्लेसमेंट दर में गिरावट दर्ज की जा रही है. 2013 में यह आंकड़ा 0.74 फीसदी था जो जैसा कि पहले जिक्र हुआ, 2015 में घटकर 0.57 फीसदी रह गया है. इसके अलावा सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना भी रोजगार देने के मामले में जूझ रही है. जुलाई, 2017 तक इस योजना के तहत 30.67 लाख लोगों को प्रशिक्षित किया गया या फिर उनका प्रशिक्षण चल रहा है. इनमें से केवल 2.9 लाख को ही रोजगार मिल पाया है. दो अक्टूबर, 2016 को शुरू की गई इस योजना के तहत अगले चार वर्षों (2016-20) तक एक करोड़ लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य तय किया गया है.
बीते मई में मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बढ़ती बेरोजगारी के सवालों को खारिज किया था. उनका कहना था, ‘हमने रोजगार को नए ढंग से देखने-समझने का नजरिया विकसित करने की कोशिश की है, क्योंकि 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सभी को नौकरी देना संभव नहीं है.’ आलोचकों का कहना है कि मोदी सरकार इस मामले में विफल रहने के बाद अब स्वरोजगार पर जोर देती हुई दिख रही है. कुछ समय पहले कांग्रेस ने सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा था कि बीते तीन साल में केवल एक लाख लोगों को ही नौकरी मिल पाई है और इस दौरान सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है. जानकार आगे भी रोजगार के मौके कम होने की आशंका जता रहे हैं.
महिला सुरक्षा
भाजपा ने 2014 के चुनावी प्रचार के दौरान महिला सुरक्षा को लेकर भी यूपीए सरकार पर निशाना साधा था. पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता में आने पर महिला अस्मिता को वरीयता देने की बात कही थी. तब पार्टी का एक नारा बहुत मशहूर हुआ था- ‘बहुत हुआ नारी पर वार-अबकी बार मोदी सरकार’. 2014 में एक इंटरव्यू में नरेंद्र मोदी से जब महिलाओं के खिलाफ अपराध के बारे में पूछा गया था तो उनका कहना था कि इस मामले में कांग्रेस शासित सात राज्यों में सबसे बदतर स्थिति है.
लेकिन अब महिला सुरक्षा के मोर्चे पर भाजपा सरकार का रिकॉर्ड उसके वादों पर सवाल खड़ा करता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार अब तक के शासन में महिलाओं को सुरक्षा देने में विफल ही रही है. एनसीआरबी के मुताबिक साल 2013 के दौरान पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,09,546 मामले दर्ज किए गए. प्रति लाख आबादी के लिहाज से अपराध की दर 52.24 थी. यानी एक लाख आबादी में से 52 महिलाएं अपराध की शिकार हुई थीं. दूसरी ओर, तमाम दावों के बावजूद मोदी सरकार के कार्यकाल में इन आंकड़ों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. साल 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल मामलों की संख्या बढ़कर 3,27,394 हो गई. साथ ही, प्रति एक लाख में 54 महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया गया. अगर राज्यों की बात करें तो दिल्ली जहां सत्ता की पैठ है और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के कंधों पर ही है, वहां महिला सुरक्षा की सबसे बदतर स्थिति है. साल 2015 के दौरान दिल्ली में प्रति लाख आबादी पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के 17,104 मामले दर्ज किए गए, जो 2013 की तुलना में 4,216 अधिक है. इस दौरान अपराध दर में भी 37.5 अंकों की बड़ी बढ़ोतरी दर्ज की गई.
आतंकवाद और आतंरिक सुरक्षा
अप्रैल, 2014 में भाजपा का चुनावी घोषणापत्र जारी करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘देश के लिए चाहे आतंरिक सुरक्षा का मामला हो, चाहे बाहरी खतरों का, भारत सक्षम हो, सामर्थ्यवान हो, इस पर हम प्रतिबद्ध हैं. जीरो टॉलरेन्स के साथ देश को इस दिशा में आगे बढ़ना होगा.’
लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के दौरान जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं करीब डेढ़ गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है. सरकारी आंकड़ों की मदद से तैयार की गई हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 2014 में राज्य में आतंकी घटनाओं की संख्या 222 थी जो, 2016 में बढ़कर 322 हो गई. साथ ही, बीते तीन वर्षों के दौरान कुल 795 आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया. इन घटनाओं में 178 सुरक्षाकर्मियों के साथ 64 नागरिकों की भी मौतें हुईं. इसके अलावा साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल (एसएटीपी) के मुताबिक 2013 में यूपीए-2 के वक्त आतंकी घटनाओं में मारे जाने वाले नागरिकों की कुल संख्या 81 थी, जो 2017 में अब तक 105 हो चुकी है.
देश की आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी सरकार का प्रदर्शन पिछली सरकार की तरह सवालों से घिरा दिखता है. एसएटीपी के आंकड़ों के मुताबिक 2013 में नक्सलवाद की वजह से कुल 421 जानें गई थीं. इसके तीन साल बाद यानी 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 433 हो चुका है.
कृषि संकट और किसानों की खुदकुशी
इस साल जून महीने में देश के कई राज्यों में किसानों का उग्र रूप देखने को मिला. बाजार में अपनी फसलों की सही कीमत नहीं मिलने की वजह से किसानों ने इन्हें सड़कों पर फेंक दिया. इसके साथ ही आंदोलन शुरू होने के महीनेभर के दौरान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित देश के कई राज्यों से बड़ी संख्या में किसानों की खुदकुशी के मामले सामने आए. इससे पहले दिसंबर, 2016 में एनसीआरबी द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2015 में किसानों की खुदकुशी के मामलों में 42 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई. वर्ष 2014 में आत्महत्या की संख्या 12,360 थी, जो कि 2015 में बढ़ कर 12,602 हो गई.
बताया जाता है कि दूसरों के लिए अनाज उगाने वाले किसानों की खुदकुशी की मुख्य वजह उनके कंधों पर कर्ज का बोझ है. इस समस्या से निपटने के लिए इस साल उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब में कर्जमाफी का ऐलान किया गया था. हालांकि, भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में कर्जमाफी के नाम पर किसानों को नौ पैसे से लेकर 84 पैसे देने तक के हैरान करने वाले मामले सामने आए हैं. इसके अलावा वैश्विक रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि बंपर पैदावार भी किसानों के लिए मुसीबत साबित हो रही है. इसके मुताबिक 2016-17 में इसकी वजह से दलहन उगाने वाले किसानों की आय में 16 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. इसके उलट किसानों की फसल लागत 3.7 फीसदी बढ़ गई है. क्रिसिल के मुताबिक कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में तुअर और मूंग की बाजार कीमत तो इसकी सरकारी दर (एमएसपी) से भी कम दर्ज की गई.
2014 में भाजपा ने किसानों से वादा किया था कि यदि उसकी सरकार केंद्र में आती है तो एमएसपी के रूप में उन्हें फसल की लागत से 50 फीसदी अधिक रकम लाभ के रूप में दी जाएगी. लेकिन 40 महीने बाद भी इस मांग को पूरा करवाने के लिए किसानों को खेतों की जगह सड़कों पर उतरना पड़ रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने तो संसद में बयान दिया कि प्रधानमंत्री ने चुनाव से पहले इस तरह का कोई वादा ही नहीं किया था. केंद्र के साथ ही अब सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग ने खेती पर अपने तीन वर्षीय एजेंडे में एमएसपी को सीमित करने की पैरवी की है.
महंगाई
2014 में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में देश में बेलगाम महंगाई के लिए कांग्रेस को कोसते हुए इस पर लगाम कसने के लिए कई उपायों की बात कही थी, मसलन जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ सख्त उपाय करना, कीमत स्थिरीकरण कोष की स्थापना करना और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की क्षमता में बढ़ोतरी करना. लेकिन, मोदी सरकार अब तक महंगाई रूपी डायन से लोगों को निजात नहीं दिला पाई है.
अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें कम होने के बावजूद केंद्र सहित राज्य सरकारों लोगों को राहत देने के मूड में नहीं है. केंद्र इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालने की बात कर रहा है. बीते 13 सितंबर को देश में पेट्रोल-डीजल की कीमत मोदी सरकार के कार्यकाल में सबसे ऊंचे स्तर पर थी. इसके बाद कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने जब मोदी सरकार को निशाने पर लिया तो केंद्रीय पर्यटन मंत्री केजे अल्फोन्स ने बेतुका बयान दिया. उनका कहना था, ‘पेट्रोल कौन ख़रीदता है? किसी के पास एक कार है, बाइक है, वह निश्चित ही भूखा नहीं रह रहा. जो भी भुगतान कर सकता है, उसे करना होगा.’
जानकार बताते हैं कि पेट्रोल-डीजल में बढ़ोतरी का मुद्दा केवल कार या बाइक चलाने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि, इससे वस्तु और सेवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी होती है. साथ ही इसका असर किसानों के लिए खेती की लागत पर भी पड़ता है. पेट्रोल-डीजल के अलावा जीएसटी लागू होने की वजह से भी लोगों को कई जरूरी चीजों के लिए पहले से अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है. इसके अलावा सरकार ने रसोई गैस पर चरणबद्ध तरीके से सब्सिडी खत्म करने की बात कही है.
कालाधन और भ्रष्टाचार
साल 2014 के चुनाव में कालाधन एक बड़े चुनावी मुद्दे के रूप में सामने आया था. भाजपा ने अपने घोषणापत्र में भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम करके कालाधन पैदा न हो, यह सुनिश्चित करने की बात कही थी. इसके साथ ही पार्टी ने विदेशों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी. चुनावी अभियान के दौरान भाजपा ने लोगों से कहा था कि अगर केंद्र में उनकी सरकार बनी तो हर भारतीय (सवा सौ करोड़) के खाते में 15-15 लाख रुपये दिए जाएंगे. हालांकि, बाद में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इसे एक चुनावी जुमला करार दिया. इसके बाद नोटबंदी का ऐलान करते वक्त भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका मकसद कालेधन को खत्म करना बताया था. लेकिन, 60 में से 40 महीने बीतने के बाद भी मोदी सरकार इस मोर्चे पर विफल दिख रही है.
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की नोटबंदी पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी के दौरान अवैध घोषित किए गए 500 और 1,000 रुपये के नोटों में से 99 फीसदी हिस्से वापस आ गए. इसके अलावा नोटबंदी के दौरान (नवंबर-दिसंबर, 2016) जनधन खातों में बड़े पैमाने पर पैसे जमा होने की बात सामने आई. आर्थिक मामले के जानकारों ने इस पर इन खातों के जरिए बड़े पैमाने कालेधन को सफेद किए जाने की आशंका जाहिर की है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ समय पहले कहा कि नोटबंदी ने कालेधन को सफेद कर दिया. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो संसद में नोटबंदी को ‘संगठित लूट’ करार दिया था.
नोटबंदी के अलावा कालेधन को बाहर लाने की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मार्च अंत तक 21,000 लोगों ने अपने पास कुल मिलाकर केवल 4,900 करोड़ रुपये ही कालाधन होने की बात स्वीकार की है. इस योजना के तहत घोषित की जाने वाली राशि पर 50 फीसदी का आयकर और जुर्माना देना था. साथ ही 25 फीसदी राशि को अगले चार वर्षों तक बिना किसी ब्याज के पास सरकार के पास जमा करना था. इससे पहले जून, 2016 से सितंबर 2016 तक चली आय घोषणा योजना के तहत करीब 71 हजार लोगों ने 67,382 करोड़ रुपये की राशि घोषित की थी. इससे सरकार को करीब 13 हजार करोड़ रुपये का कर मिला था. जानकारों के मुताबिक ये आंकड़े अपेक्षा से कहीं कम हैं.
भाजपा ने पिछले आम चुनाव में कालेधन के साथ-साथ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी यूपीए-2 सरकार को घेरा था. पार्टी ने लोकपाल के लिए अन्ना आंदोलन को भी अपना समर्थन जाहिर किया था. लेकिन, पिछली सरकार द्वारा इस संबंध में कानून लाए जाने के बाद भी मोदी सरकार लोकपाल का गठन नहीं कर पाई है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र की मंशा पर सवाल उठाया है. इसके अलावा शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से सतर्कता आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को भी पारदर्शी बनाने की बात कही है. जानकारों की मानें तो मोदी सरकार में भले ही यूपीए-2 सरकार की तरह बड़े-बड़े घोटाले सामने नहीं आए हैं. लेकिन, भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली संस्थाओं के कमजोर होने के लक्षण जरूर दिखाई दे रहे हैं. बीते जुलाई में जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी-कैग) ने अपनी रिपोर्ट संसद में सामने रखी तो रेलवे, रक्षा सहित कई अहम क्षेत्रों में कई खामियां और भ्रष्टाचार के मामले सामने आए थे.
इन सभी महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा अर्थव्यवस्था के भी कई मानकों पर सरकार की कमजोरी साफ-साफ नजर आ रही है. केंद्र तमाम दावों के बीच मौजूदा वित्त वर्ष (2017-18) की पहली तिमाही में जीडीपी (विकास दर) घटकर केवल 5.7 फीसदी रह गई. यह बीते तीन साल की किसी भी तिमाही का सबसे खराब आंकड़ा है. इसके अलावा निर्यात में भी भारी कमी देखी जा रही है. नोटबंदी के बाद अब जीएसटी की वजह से छोटे और मझौले उद्यमियों की हालत खराब है. मेक इन इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसी अहम योजनाएं भी कछुआ रफ्तार से चल रही हैं जिससे इनके 2019 में मंजिल पर पहुंचने की काफी कम संभावना ही दिखती है.
जानकारों की मानें तो मोदी सरकार को जल्द ही इन मुद्दों पर अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी. नहीं तो विपक्ष अगले चुनाव में उन्हीं मोहरों के सहारे भाजपा को मात देने की कोशिश कर सकता है, जिन्हें आगे बढ़ाकर भाजपा ने 2014 में सत्ता हासिल की थी. कुछ मायनों में इसकी शुरुआत तो हो ही चुकी है.
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