इस पुस्तक के परिच्छेद ‘बारह’ का एक अंश -

‘धोंडिराव - ...गांव-खेड़ों के तमाम शूद्र लोगों को यूरोपियन कलेक्टरों से अकेले में मिलकर उनको अपनी शिकायतें क्यों नहीं बताना चाहिए?

ज्योतिराव - अरे, जिनको बेर की गांठ किधर होती है, यह मालूम नहीं, ऐसे डरपोक खिलौनों को ऐसे भयंकर कर्मचारियों के सामने खड़े होने की हिम्मत कैसे होगी? और ये लोग अपनी शिकायतें सही ढंग से उनके सामने कैसे-क्या बता पायेंगे? ऐसी हालत में किसी लंगोट बहादुर ने बड़ी हिम्मत से किसी बुटलेर की मदद से यूरोपियन कलेक्टर को अकेले में मिलकर और उनके सामने खड़े होकर यह कहा कि ‘(ब्राह्मण) कर्मचारियों के सामने हमारी कोई सुनवाई नहीं होती’. तब इतने चार शब्द कहने की इन कलम-कसाइयों को भनक भी लग गयी, कि मान लो हो गया इनका काम तमाम. फिर उस अभागे आदमी के नसीब ही फूट गये.

...फिर आधे कलम-कसाई तुरन्त हर तरह के दस्तावेजों के साथ पुरावे लेकर वादी के (साक्षीदार) गवाहदार बन जाते हैं. ये लोग उनके झगड़े में इतनी उलझन पैदा कर देते हैं कि उसमें सत्य क्या है, यह पहचान पाना ही मुश्किल होता है. इस सत्य-असत्य को खोज निकालने के लिए बड़े-बड़े विद्वान यूरोपियन कलेक्टर और जज लोग अपनी सारी अकल खर्च कर देते हैं, फिर भी उनके छिपे हुए रहस्य का कुछ भी पता नहीं चलता, और न कुछ भी हाथ लगता है...अन्त में ब्राह्मण कर्मचारियों की इसी प्रकार की प्रवृत्ति की वजह से कई गरीब किसान शूद्रों के मन में यह बात आती होगी कि यहां हमारी किसी शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं है. इसलिए बड़ी मजबूरी में आकर उन्होंने अपनी ही खुदकुशी की होगी या नहीं?’


किताब : गुलामगिरी

लेखक : ज्योतिराव गोविन्दराव फूले

अनुवादक : विमलकीर्ति

प्रकाशक : वाणी

कीमत : 125 रुपये


एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करना सभ्यता के सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की लगभग सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. यूरोप में जहां गुलामों-दासों की खरीद-फरोख़्त का शर्मनाक इतिहास रहा है, वहीं भारत में जातिप्रथा के कारण पैदा हुआ जबरदस्त इंसानभेद आज तक बना हुआ है. ‘गुलामगिरी’ इसी भेद-भाव की बुनियाद पर चोट करने वाली किताब है जिसे 19वीं सदी के महान भारतीय विचारक, समाजसेवी और क्रांतिकारी समाज-सुधारक ज्योतिराव गोविन्दराव फूले (ज्योतिबा फूले) ने लिखा है.

इसमें उन्होंने धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं के साथ-साथ ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को नए सिरे से परिभाषित किया है. साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की है. 1873 में लिखी गई इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के झूठे दंभ से परिचित कराना था. इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फूले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकलकर, आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस मायने में यह किताब काफी महत्वपूर्ण है कि यहां इंसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कटघरे में खड़ा किया गया है.

‘गुलामगिरी’ दो पात्रों (धोंडिराव और ज्योतिराव) के सवाल-जवाबों के माध्यम से जाति और धर्म की तार्किक व्याख्या की कोशिश करती है. एक जगह हिंदू धर्म के मत्स्य अवतार की सच्चाई पर बात करते हुए ज्योतिराव धोंडिराव से कहते हैं - ‘उसके बारे में तू ही सोच कि मनुष्य और मछली की इन्द्रियों में, आहार में, मैथुन में और पैदा होने की प्रक्रिया में कितना अन्तर है? उसी प्रकार उनके मस्तिष्क में, मेधा में, कलेजे में ,फेफड़े में, अंतड़ियों में, गर्भ पालने-पोसने की जगह में, और प्रसूति होने के मार्ग में कितना चमत्कारिक अन्तर है... नारी स्वाभाविक रूप से एक ही बच्चे को जन्म देती है. लेकिन मछली सबसे पहले कई अण्डे देती है...कुछ मूर्ख लोगों ने मौका मिलते ही अपने प्राचीन ग्रन्थों में इस तरह की काल्पनिक कथाओं को घुसेड़ दिया होगा.’

अंग्रेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुत कुछ पता है, लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंग्रेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था. ज्योतिबा फूले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इसके सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं समझते थे. दिलचस्प बात है कि वे अंग्रेजों के शासन को अत्याचारियों के शासन की तरह से भी नहीं देख रहे थे.

एक जगह ज्योतिबा लिखते हैं - ‘जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अन्दर अपनी जिन्दगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से, बीवी-बच्चों से, भाई-बहनों से मिलने के लिए या स्वतन्त्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इन्तजार करता है, उसी तरह का इन्तजार इन लोगों को भी बेसब्री से होना स्वाभाविक ही है. ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मती कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आयी. इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए. इसीलिए ये लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं... यदि वे यहां न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने उन्हें कभी सम्मान और स्वतन्त्रता की जिन्दगी न गुजारने दी होती.’

ज्योतिबा अधिकतर हिंदू ग्रंथों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिखी गई किताबों से बढ़कर कुछ भी नहीं मानते. इस कारण से वे ऐसी सभी किताबों का तिरस्कार और बहिष्कार करना चाहते हैं जो एक इंसान को दूसरे इंसान से हीन व्यवहार करने को प्रेरित करे. वे कहते हैं - ‘इन ग्रंथों के बारे में किसी ने कुछ भी सोचा होता कि यह बात कहां तक सही है? क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं? तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरन्त समझ में आ जाती. लेकिन इस प्रकार के ग्रन्थों से सर्वशक्तिमान, सृष्टि का निर्माता जो परमेश्वर है, उसकी समानतावादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है. इस तरह के हमारे जो ब्राह्मण-पण्डा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वे ही लोग अभी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं...उन ग्रंथों को देखकर-पढ़कर हमारे अंग्रेज, फ्रेन्च, जर्मन, अमेरिकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिये बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रन्थों को (ब्राह्मणों ने) केवल अपने मतलब के लिए लिख रखा है.’

गुलामगिरी मूलतः मराठी में लिखी गई किताब है जिसका डॉ विमलकीर्ति ने हिंदी अनुवाद किया है. भाषा के हिसाब से देखा जाए तो 144 साल पहले लिखी गई इस किताब का उन्होंने अच्छा अनुवाद किया है. यथास्थितिवाद किसी भी समाज और दौर के लिए खतरनाक है. ज्योतिबा फूले की यह किताब यथास्थितिवाद से लड़ने का रास्ता दिखाती है और हौसला भी देती है. ज्योतिबा जातिवाद का दंश झेलकर स्वयं हीनता में नहीं जाते, बल्कि दूसरों को हीनता से बाहर आने का रास्ता दिखाते हैं. समाज में जब तक जातिव्यवस्था के अंश बचे रहेंगे, तब तक गुलामगिरी जैसी क्रांतिधर्मा किताबों की प्रासंगिकता बनी रहेगी.