बिगड़ते आर्थिक हालात को लेकर इन दिनों केंद्र की मोदी सरकार विपक्ष ही नहीं, अपने वरिष्ठ नेताओं के भी निशाने पर है. 2014 के आम चुनाव से पहले तत्कालीन यूपीए सरकार पर ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ और रोजगारविहीन विकास को लेकर हमला करने वाली भाजपा सत्ता में आने के तीन साल बाद भी खुद उन्हीं मोर्चों पर जूझती हुई दिख रही है. साथ ही, अब इन समस्याओं से निपटने के लिए भी वह उन्हीं रास्तों पर बढ़ती हुई दिख रही है जिन पर यूपीए सरकार चली थी.

बीते महीने की 25 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यकाल में पहली बार बिबेक देबरॉय के नेतृत्व में पांच सदस्यीय आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) का गठन किया. यह परिषद प्रधानमंत्री द्वारा सौंपे गए आर्थिक सहित अन्य मुद्दों का विश्लेषण कर उन्हें अपनी सलाह देगी. यह खुद ही या प्रधानमंत्री या फिर किसी और की सलाह पर भी सरकार को सुझाव देने का काम करेगी. इस परिषद के अन्य सदस्यों में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला, पूर्व व्यय सचिव रतन वाटल, राष्ट्रीय लोक वित्त और नीति संस्थान के निदेशक रतिन रॉय और इंदिरा गांधी विकास शोध संस्थान की प्रोफेसर आशिमा गोयल हैं.

आर्थिक सलाहकार परिषद का इतिहास

आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन सबसे पहले अगस्त, 1998 में वाजपेयी सरकार ने किया था. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 10 सदस्यीय ईएसी में अलग-अलग विचारधाराओं से जुड़े हुए अर्थशास्त्री शामिल थे. इसके सदस्यों में अर्थव्यवस्था को लेकर उदारवादी रुख रखने वाले आईजी पटेल और अशोक देसाई थे तो समाजवाद के पैरोकार पीएन धर और अर्जुन सेनगुप्ता भी. इसके बाद 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुरेश तेंदुलकर और 2009 में सी रंगराजन की अध्यक्षता में ऐसी ही परिषद का गठन किया था. 2009 से 2014 के दौरान सी रंगराजन की अध्यक्षता में ईएसी काफी सक्रिय थी. इसने गरीबी उन्मूलन और उद्योगों सहति कई महत्वपूर्ण आर्थिक मसलों पर अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी थी.

आर्थिक सलाहकार परिषद के आर्थिक और सियासी समीकरण

आर्थिक मामलों के कई जानकार ईएसी गठित करने के फैसले का स्वागत करते हुए भी इसकी टाइमिंग पर सवाल उठा रहे हैं. इनका कहना है कि मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा होने में करीब डेढ़ साल का ही वक्त बाकी है, और सत्ताधारी भाजपा अभी से चुनावी मोड में आती हुई दिख रही है. साथ ही, कई राज्यों में आम चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं. इनमें गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हैं. माना जा रहा है कि अगर इन परिस्थितियों में परिषद आर्थिक सुधार के लिए सख्त कदमों की सिफारिश करती है, तो चुनावी फायदे-नुकसान को देखते हुए मोदी सरकार के लिए इन्हें लागू करना आसान नहीं होगा. भारत में ऐसे उदाहरण आम हैं जब सरकारें आर्थिक सुधार की जगह राजनीतिक फायदे को ही वरीयता देती हुई दिखी हैं.

अगले साल मोदी सरकार के लिए अपना पूर्णकालिक बजट पेश करने का आखिरी मौका होगा. जानकारों के एक वर्ग के मुताबिक ऐसी स्थिति में वह लोक-लुभावन घोषणाएं न करके सख्त आर्थिक कदम उठाएगी, इसकी संभावना कम ही दिखती है. इसके साथ ही ईएसी के पास अगले बजट से पहले विभिन्न मसलों पर अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए वक्त भी कम है. माना जाता है कि बजट बनाने की प्रक्रिया इसे संसद में रखे जाने के छह महीने पहले ही शुरू हो जाती है. ऐसे में वित्त मंत्रालय आगामी बजट में परिषद की सिफारिशों को शामिल कर पाएगा, इसकी संभावना भी धुंधली ही दिखती है. अभी परिषद के कामकाज को लेकर कोई सवाल उठाना जल्दबाजी होगी लेकिन, इसके गठन के करीब तीन हफ्ते बाद भी इसकी वेबसाइट को अपडेट नहीं किया जा सका है.

11 अक्टूबर को लिया गया आर्थिक सलाहकार परिषद की वेबसाइट का स्क्रीनशॉट
11 अक्टूबर को लिया गया आर्थिक सलाहकार परिषद की वेबसाइट का स्क्रीनशॉट

ईएसी के गठन की टाइमिंग के साथ-साथ इसके अध्यक्ष और एक सदस्य की नियुक्ति और आने वाले दिनों में नीति आयोग की भूमिका को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय पूर्णकालिक सदस्य हैं. इनके साथ रतन वटाल भी आयोग के सदस्यों में शामिल हैं. माना जा रहा है कि जिन परिस्थितियों में परिषद का गठन किया गया है, उसे देखते हुए इन दोनों सदस्यों की नीति आयोग के कामकाज में भूमिका सीमित हो सकती है. द स्टेट्समैन की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिबेक देबरॉय जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है, राजीव कुमार को नीति आयोग का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद नाखुश दिख रहे थे. बताया जाता है कि वे आयोग से सम्मान के साथ विदाई चाहते थे.

जानकार दो सदस्यों को लेकर ईएसी गठित करने के फैसले को नीति आयोग को हाशिए पर डालने वाला कदम होने की आशंका भी जाहिर कर रहे हैं. ढाई साल से अधिक वक्त गुजरने के बाद भी यह साफ नहीं हो पाया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने और इससे जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए नीति आयोग ने किस तरह की भूमिका निभा पाई है. आयोग का गठन एक जनवरी, 2015 को योजना आयोग की जगह सरकारी थिंक टैंक के रूप में किया गया था. इसे गठित करने का मकसद केंद्र और राज्य सरकारों को नीति से संबंधित निर्देश और सलाह देना था.

इन सब कारणों के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि वे परिषद की सिफारिशों को कहां तक मानने के लिए तैयार हो पाएंगे. मीडिया में आई रिपोर्टों की मानें तो अब तक प्रधानमंत्री मोदी की मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम और नीति आयोग के साथ संवादहीनता की स्थिति रही है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार की कार्यशैली पर भाजपा के वरिष्ठ मंत्री और वाजपेयी सरकार में विनिवेश मंत्री रहे अरुण शौरी ने एक न्यूज चैनल के साथ खुलकर अपनी बात रखी. उन्होंने आर्थिक संकट के बारे में बात करते हुए कहा, ‘इसके आर्थिक कारण नहीं हैं. इसका कारण है, सरकार का नेचर, सरकार का ढांचा. ढाई लोगों की सरकार है. न उनमें विशेषज्ञ हैं और न वे किसी विशेषज्ञ की बात सुनते हैं.’ कई जानकारों के मुताबिक अरुण शौरी की इस बात की पुष्टि बीते साल नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले से भी होती है. सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया है कि इस फैसले को लेने की प्रक्रिया क्या थी और इनमें कौन-कौन शामिल थे.

सरकार भले ही देश की आर्थिक स्थिति पस्त होने की बात नकारती रही हो, लेकिन जानकारों के मुताबिक ईएसी का गठन संकेत करता है कि इस बात को वह न सिर्फ मन ही मन मान चुकी है बल्कि इस पर काम करना शुरू भी कर चुकी है. हालांकि, बहुत से लोगों का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए भले ही सरकार के साथ अब ईएसी हो लेकिन, वक्त उसका साथ देता नहीं दिखता.