कॉलेजियम के फैसले अब से सार्वजनिक होंगे, यह फैसला खुद कॉलेजियम ने हाल ही में लिया है. इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट में ‘कॉलेजियम रेसोल्यूशंस’ शीर्षक से एक नया कॉलम भी बना दिया गया है. कॉलेजियम के सभी फैसले अब से इस कॉलम में जाकर कोई भी देख सकता है. मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में लिए गए इस फैसले को जजों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की दिशा में एक ऐतिहासिक, अहम और अभूतपूर्व कदम माना जा रहा है.
यह फैसला अभूतपूर्व है भी. कॉलेजियम व्यवस्था की पारदर्शिता हमेशा से सवालों के घेरे में घिरती रही है. कॉलेजियम किस आधार पर किसी व्यक्ति को जज नियुक्त करता है और किस आधार पर किसी की नियुक्ति पर रोक लगाता है, यह तथ्य कभी सार्वजनिक नहीं किये जाते थे. लिहाजा इस व्यवस्था को बदलने या कम-से-कम इसे पारदर्शी बनाने की लंबे समय से मांग उठती रही है. यही कारण है कि कॉलेजियम के फैसलों का अब पहली बार सार्वजनिक होना बेहद अहम माना जा रहा है. लेकिन इस फैसले से वाकई न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता आ पाएगी, इसकी संभावनाएं बेहद कम ही नज़र आती हैं. क्योंकि हाल ही में कॉलेजियम ने अपने जिन फैसलों को सार्वजनिक किया है, वह साफ-साफ सिर्फ औपचारिकता ही नजर आती है.
बीती तीन अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने केरल उच्च न्यायालय में तीन और मद्रास उच्च न्यायालय में छह जजों को नियुक्त किया है. इन जजों की नियुक्ति के लिए जो आधार सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने बताए हैं, उन पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि यह नई पहल कम से कम अभी तो सिर्फ नाम के लिए ही है. उदाहरण के लिए, केरल उच्च न्यायालय में जिन तीन जजों की नियुक्ति हुई है उनके नाम हैं अशोक मेनन, एनी जॉन और नारायण पिशारादी. अशोक मेनन की नियुक्ति के बारे में कॉलेजियम ने लिखा है, ‘हमारे साथ ही हमारे सहयोगियों ने भी उन्हें उच्च न्यायालय में नियुक्ति के योग्य माना है. हमारे एक सहयोगी ने बताया कि वो श्री मेनन को बीते कई सालों से जानते हैं, उनकी ईमानदारी बेदाग़ है, बतौर न्यायिक अधिकारी उनकी बहुत अच्छी छवि है...’ दिलचस्प यह है कि एनी जॉन और नारायण पिशारादी की नियुक्ति का आधार भी अक्षरशः यही बताया गया है.
कॉलेजियम ने अपना फैसला सार्वजनिक करते हुए यह भी लिखा है कि ‘हमने देखा है कि केरल उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने कुछ सीनियर न्यायिक अधिकारियों के नामों को अनदेखा करते हुए यह संस्तुति की है. इन नामों को अनदेखा किये जाने के उच्च न्यायालय के कारणों से हम भी सहमत हैं.’ ठीक ऐसा ही मद्रास में नियुक्त हुए छह जजों के मामले में भी कहा गया है. लेकिन वे क्या कारण थे जिनके चलते कॉलेजियम ने वरिष्ठता में आगे होने के बावजूद भी कुछ न्यायिक अधिकारियों को उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया, इस बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं है. जबकि कॉलेजियम के फैसलों को सार्वजनिक करने की मांग ही इसीलिए होती रही है. इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि किसी को नियुक्त करने या उसे अनदेखा करने के कारण बताने के नाम पर सिर्फ एक निश्चित प्रारूप को हमारे सामने रखा जा रहा है.
ऐसा ही एक और उदाहरण ए जाकिर हुसैन का है. मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए उन्हें अयोग्य मानते हुए कॉलेजियम ने लिखा है - ‘हमारे सामने मौजूद दस्तावेज और इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वे उच्च न्यायालय में पदोन्नत किये जाने के योग्य नहीं हैं.’ अक्षरशः यही आधार डॉ. के अरुल को नियुक्ति के अयोग्य मानने के लिए बताया गया है. सिर्फ एक जज को अयोग्य ठहराते हुए कॉलेजियम ने यह बताया है उक्त जज का नाम पहले भी दो बार ख़ारिज किया जा चुका है और इस बार भी हम उसे उच्च न्यायालय में पदोन्नत करने के योग्य नहीं समझते. बाकी सभी मामलों में निश्चित प्रारूप को ही आधार बनाकर जजों को योग्य या अयोग्य बताया गया है.
इससे साफ है कि कॉलेजियम के फैसलों को सार्वजनिक करने के नाम पर शायद सिर्फ नाम ही बदलने वाले हैं उनसे जुड़ी जानकारियां नहीं. ऐसे में कानून के कुछ जानकारों का मानना है कि कॉलेजियम का ये हालिया कदम एक औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला. हालांकि कुछ कानूनविदों का यह भी मानना है कि अगर कभी सर्वोच्च न्यायालय का कॉलेजियम किसी नाम पर सहमति नहीं बना पाया और कॉलेजियम के सदस्यों ने अपनी अलग-अलग राय दर्ज करवाई, तब शायद नियुक्त होने वाले जजों से जुडी जानकारियां विस्तार से जनता तक पहुंच सकें.
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