यह किंचित सुखद आश्चर्य की बात है कि गांधी में अभी भी नौजवानों की दिलचस्पी बनी हुई है. कुछ समय पहले महू के तीन मुसलमान नौजवान आए जो गांधी के बारे फैली भ्रांतियों पर बात करना चाहते थे. उनके पास जो सवाल थे वे ही सवाल मैंने देश के अलग-अलग हिस्से में बार-बार सुने हैं. एक आरोप यह है कि उन्होंने ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर ऐय्याशी की और लड़कियों और औरतों का लाभ उठाया. दूसरा आरोप है कि उन्होंने पटेल और उनके पहले सुभाष को दरकिनार करके नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाया. तीसरा संगीन आरोप है कि उन्होंने भगत सिंह की फासी न सिर्फ नहीं रुकवाई बल्कि उसे जल्दी करवाने में अंग्रेजों के साथ मिलकर साजिश की.
लेकिन बड़ा आरोप गांधी पर देश के बंटवारे को लेकर है. यह कि उन्होंने देश का विभाजन करवाया. अगर करवाया नहीं तो कम से कम रुकवाया नहीं.
ये आरोप तो हर जगह सुनने को मिलेंगे. लेकिन अगर आप वामपंथियों के बीच हैं तो वे बड़ी मुश्किल और वक्त की मजबूरी की वजह से गांधी की उपादेयता से सहमत तो दिखेंगे, लेकिन जब वे इसे लेकर आश्वस्त हों कि वे प्रायः अपनों के बीच ही हैं तो देश की आज की दुर्दशा के लिए वे भी गांधी को दोषी बल्कि अपराधी ठहराते सुनाई पड़ते हैं.उनकी कई शिकायतें गांधी से हैं, एक है पूंजीपतियों से गांधी की मित्रता, और पूंजीपतियों के प्रति उनकी पक्षधरता.
देश अगर गांधी की जगह भगत सिंह की राह चलता तो ये दुर्दिन न देखने पड़ते, ऐसा उनका ख्याल है. वे धर्म और राजनीति का घालमेल करने के लिए गांधी को कभी माफ़ नहीं कर सकते. सर्वधर्म समभाव जैसी लुंजपुंज अवधारणा ने धर्मनिरपेक्षता को लेकर ख़ासा भ्रम पैदा किया. उनका विचार है कि साम्प्रदायिकता और धर्म के बारे में भगत सिंह के विचार अधिक अनुकरणीय हैं.
दलित समुदाय के सन्दर्भ में विशेषकर बुद्धिजीवियों के बीच गांधी सबसे बड़े अपराधी मालूम पड़ते हैं. उन्होंने दलितों का सरपरस्त बनने की कोशिश की, उन्हें हरिजन कहकर उनकी वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालने का प्रयास किया. पूना में उपवास करके आम्बेडकर को बाध्य किया कि वे उनके साथ समझौता करें. इस तरह दलितों को उन्होंने उनके असली प्राप्य से वंचित किया.
गांधी ने अहिंसा का नाम जाप करके हिंदुओं को मर्दानगी के रास्ते से विचलित किया और उन्हें कापुरुष बना दिया. दिलचस्प यह है कि ऐसा कहने वाले और वामपंथी सहमत हैं कि यह झूठा प्रचार है. लेकिन उनके हिसाब से यह भी गलत इतिहास है कि देश को आज़ादी गांधी के नेतृत्व में मिली. उनके अनुसार यह क्रांतिकारियों और और दूसरे जुझारू आंदोलनों का नतीजा था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.
यह नहीं कि हिंदुओं में ही गांधी को लेकर नाराज़गी है. मुसलमानों में भी वे कोई ख़ास लोकप्रिय नहीं हैं. उनके एक हिस्से का ख्याल है कि वे ढके तौर पर हिंदू राज ही लाने की कोशिश कर रहे थे. अभी हाल में गांधी पर एक व्याख्यान देते हुए हिलाल अहमद ने अपनी नानी की याद के हवाले से बताया कि मुसलमानों के एक हिस्से में यह दुःख है कि गांधी ने मुसलमानों को मरवाया.
मुसलमानों के बीच गांधी को लेकर विवाद है, यह महू के उन युवा मित्रों ने भी बताया. लेकिन उनसे उलट हिंदुओं में यह विचार है कि वे मुसलमानों के पक्षधर थे और अपने आख़िरी दिनों में उन्होंने हिन्दुओं पर होनेवाले हमलों का कोई विरोध नहीं किया और न पाकिस्तान में उनपर जो जुल्म हो रहा था, उसके विषय में कभी कुछ कहा.
गांधी पर भारतीय चर्चा इस तरह उनके बारे में परस्पर विरोधी ख्यालों के बीच से गुजरती है. हाल में शिक्षकों के एक समूह के साथ गांधी पर बातचीत के क्रम में ये ही सारे ख्याल निकलकर सामने आए. यह पूछने पर आखिर यह सब कुछ मालूम कैसे हुआ,एक सन्नाटा-सा छा गया.कोई यह नहीं बता पाया कि किस किताब या किस विद्वान के शोध के माध्यम से उन्हें ये सारी बातें गांधी के विषय में मालूम हुईं. फिर यह समझ में आया कि तकरीबन तीस शिक्षकों के उस समूह में,जिन्हें गांधी में रुचि है, एक को छोड़कर किसी ने गांधी का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. एक ने ‘हिंद स्वराज’ पढ़ रखा था.बाकी की जानकारी का स्रोत या तो सोशल मीडिया , खासकर वाट्स एप था या टेलीविज़न, या फिर किसी न किसी से सुनकर उन्होंने गांधी के बारे में अपनी धारणा बनाई थी. मैंने उनसे पूछा कि यदि उनके छात्र इसी प्रकार किसी भी विषय पर कुछ लिखें, जिसमें उनके ज्ञान के स्रोत वैसे ही हों,जैसे उनके गांधी को लेकर थे तो वे क्या करेंगे! वे सहमत थे कि यह मुनासिब तरीका नहीं है किसी के बारे में भी कोई धारणा बनाने का.
कुछ साल पहले दिल्ली के एक प्रतिष्ठित संस्थान में चर्चा के बाद वहां कम करनेवाले एक सज्जन मेरे पास आए और कहा कि आप यह तो मानेंगे कि नाथूराम गोडसे पढ़े लिखे थे और उन्होंने गांधी की हत्या कुछ सोच समझ कर ही की होगी. यह समझदारीवाली बात थी और मैं उनसे असहमत नहीं हो सकता था. गांधी की हत्या किसी क्षणिक पागलपन के दौरे में नहीं की गई थी.वह एक लंबी योजना का ही नतीजा थी जिसमें गोडसे ने उनपर गोली चलाने की साहसी भूमिका ली थी.
गोडसे के बारे में इतने आदर के साथ बात करने वाले कहते हैं कि गांधी की भारत के प्रति निष्ठा को लेकर उन्हें संदेह नहीं लेकिन वे अपने अंतिम दिनों में भारत के लिए हानिकारक हो रहे थे और उनका जल्दी खत्म हो जाना ही भारत के लिए श्रेयस्कर होता. इसलिए वे गांधी की हत्या को एक पवित्र कार्य मानते हैं. जैसे राम ने रावण का वध किया, कृष्ण ने कंस का, वैसे ही गोडसे ने गांधी का संहार किया. उनकी मानें तो गांधी की हत्या के दिन को उनके मोक्ष दिवस के रूप में मनाए जाने की ज़रूरत है न कि शहीद दिवस के तौर पर. उनके अनुसार आज़ाद भारत का पहला शहीद कहलाने का हक नाथूराम गोडसे का है.
गोडसे की किताब के खुलेआम बिकने और पीढ़ी दर पीढ़ी उसकी निरंतर बनी लोकप्रियता को देखकर जर्मन हैरान हो जाते हैं. उन्होंने इतने बरस बाद हिटलर की आत्मकथा को जर्मनी में प्रकाशित करने की इजाजत को लेकर हाल में ही इतनी बड़ी बहस जो की है. लेकिन इसके बावजूद आज से कई बरस पहले वर्धा में एक युवक ने मुझसे पूछा कि आखिर गांधी की मौत कैसे हुई. उससे बात करके समझ में आया कि हमारी स्कूली किताबों ने गांधी के जीवन की इस घटना पर प्रायः चुप्पी साध रखी है.
कुल मिलाकर गांधी उनके अपने देश में एक अफवाह से अधिक कुछ नहीं. इस अफवाह की धुंध के पीछे छिपे गांधी को उजागर करने में किसी संस्था की रुचि नहीं, कम से कम गांधी के नाम पर बने संस्थानों की तो कतई नहीं. और यह तब है जब गांधी को जानना इतना सरल है. उनका लिखा हजारों पृष्ठों वाली सौ खण्डों की रचनावली में मौजूद है.उनके सचिवों महादेव देसाई और प्यारेलाल की डायरियां भी मौजूद हैं.
लेकिन गांधी को जानना दो कारणों से मुश्किल है: धर्मनिरपेक्ष भारत को लेकर नाराज़गी और दूसरे अहिंसा के सिद्धांत को लेकर क्षोभ या संशय. यह इसके अलावा है कि गांधी प्रश्नों से परे श्रद्धा की आभा में घिरे हुए हैं. श्रद्धा और घृणा की धुंध और धुएं को हटाए बिना गांधी को जानना कठिन होगा.और शुरुआत उस तरीके से की जा सकती है जो नेहरू ने गांधी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे युवक अटेनबरो को सुझाया था, ‘गांधी को देवता मत बना देना,उन्हें इंसान की तरह ही चित्रित करना.’
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