अंग्रेज़ी में एक मुहावरा है, ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’. इसी शीर्षक से ब्रिटिश लेखक जेफ़री आर्चर ने 80 के दशक में ब्रिटेन की सियासत पर एक काल्पनिक उपन्यास भी लिखा था. इसका मतलब है किसी विशेष समूह में शामिल व्यक्तियों में किसी एक का ओहदा, प्रतिष्ठा, हैसियत आदि सबसे ऊपर होना. इसे देश की केंद्रीय सरकार में प्रधानमंत्री के पद से समझा जा सकता है. मंत्रिमंडल में सभी मंत्री ही होते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की हैसियत बाक़ी सभी मंत्रियों से ज़्यादा होती है. उसके मुताबिक़ ही मंत्रिमंडल तय होता है. वह इसका मुखिया है. दुनिया के लिए प्रधानमंत्री ही देश का चेहरा होता है. और यही वह पद है जिस पर आज़ादी के बाद दलित वर्ग का कोई व्यक्ति अभी तक नहीं पहुंचा है.
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ऊपर जो छोटी सी भूमिका है, उसका कांशीराम के जीवन की एक घटना और उद्देश्य दोनों से गहरा संबंध है. कहते हैं कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कांशीराम ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देने वाले कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे. वे राष्ट्रपति बनकर चुपचाप अलग बैठने के लिए तैयार नहीं हुए.
यह क़िस्सा पहले भी बताया जाता रहा है. लेकिन इस पर खास चर्चा नहीं हुई कि आख़िर अटल बिहारी वाजपेयी कांशीराम को राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहते थे. कहते हैं कि राजनीति में प्रतिद्वंद्वी को प्रसन्न करना उसे कमज़ोर करने का एक प्रयास होता है. ज़ाहिर है वाजपेयी इसमें कुशल होंगे ही. लेकिन जानकारों के मुताबिक वे कांशीराम को पूरी तरह समझने में थोड़ा चूक गए. वरना वे निश्चित ही उन्हें ऐसा प्रस्ताव नहीं देते.
वाजपेयी के प्रस्ताव पर कांशीराम की इसी अस्वीकृति में उनके जीवन का लक्ष्य भी देखा जा सकता है. यह लक्ष्य था सदियों से ग़ुलाम दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना. उसे ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’ बनाना. मायावती के रूप में उन्होंने एक लिहाज से ऐसा कर भी दिखाया. कांशीराम पर आरोप लगे कि इसके लिए उन्होंने किसी से गठबंधन से वफ़ादारी नहीं निभाई. उन्होंने कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी से समझौता किया और फिर ख़ुद ही तोड़ भी दिया. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि कांशीराम ने इन सबसे केवल समझौता किया, गठबंधन उन्होंने अपने लक्ष्य से किया. इसके लिए कांशीराम के आलोचक उनकी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन कांशीराम ने इन आरोपों का जवाब बहुत पहले एक इंटरव्यू में दे दिया था. उन्होंने कहा था, ‘मैं उन्हें (राजनीतिक दलों) ख़ुश करने के लिए ये सब (राजनीतिक संघर्ष) नहीं कर रहा हूं.’
अपने राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष के दौरान कांशीराम ने, उनके मुताबिक़ ब्राह्मणवाद से प्रभावित या उससे जुड़ी हर चीज़ का बेहद तीखे शब्दों में विरोध किया, फिर चाहे वे महात्मा गांधी हों, राजनीतिक दल, मीडिया या फिर ख़ुद दलित समाज के वे लोग जिन्हें कांशीराम ‘चमचा’ कहते थे. उनके मुताबिक ये ‘चमचे’ वे दलित नेता थे जो दलितों के ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ में दलित संगठनों का साथ देने के बजाय पहले कांग्रेस और बाद में भाजपा जैसे बड़े राजनीतिक दलों में मौक़े तलाशते रहे.
कांशीराम और उनकी विचारधारा को मानने वाले लोग कहते हैं कि इन जैसे नेताओं ने दलित संघर्ष को कमज़ोर करने का काम कामयाबी से किया. अपनी किताब ‘चमचा युग’ में कांशीराम ने इसके लिए महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराया है. उन्होंने लिखा है कि अंबेडकर की दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को गांधीजी ने दबाव की राजनीति से पूरा नहीं होने नहीं दिया और पूना पैक्ट के फलस्वरूप आगे चलकर संयुक्त निर्वाचक मंडलों में उनके ‘चमचे’ खड़े हो गए.
चमचों की ज़रूरत
कांशीराम का मानना था कि जब-जब कोई दलित संघर्ष मनुवाद को अभूतपूर्व चुनौती देते हुए सामने आता है, तब-तब ब्राह्मण वर्चस्व वाले राजनीतिक दल, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, उनके दलित नेताओं को सामने लाकर आंदोलन को कमज़ोर करने का काम करते हैं. कांशीराम ने लिखा है, ‘औज़ार, दलाल, पिट्ठू अथवा चमचा बनाया जाता है सच्चे, खरे योद्धा का विरोध करने के लिए. जब खरे और सच्चे योद्धा होते हैं चमचों की मांग तभी होती है. जब कोई लड़ाई, कोई संघर्ष और किसी योद्धा की तरफ से कोई ख़तरा नहीं होता तो चमचों की ज़रूरत नहीं होती, उनकी मांग नहीं होती. प्रारंभ में उनकी उपेक्षा की गई. किंतु बाद में जब दलित वर्गों का सच्चा नेतृत्व सशक्त और प्रबल हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की सजा सकी. इस मुक़ाम पर आकर, ऊंची जाति के हिंदुओं को यह ज़रूरत महसूस हुई कि वे दलित वर्गों के सच्चे नेताओं के ख़िलाफ़ चमचे खड़े करें.’
अंत समय तक ‘शू्न्य’
1958 में ग्रेजुएशन करने के बाद कांशीराम ने पुणे स्थित डीआरडीओ में बतौर सहायक वैज्ञानिक काम किया था. इसी दौरान अंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुट्टी को लेकर किए गए संघर्ष से उनका मन ऐसा पलटा कि कुछ साल बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर ख़ुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक दिया. अपने सहकर्मी डीके खरपडे के साथ मिलकर उन्होंने नौकरियों में लगे अनुसूचित जातियों -जनजातियों, पिछड़े वर्ग और धर्मांतरित अल्पसंख्यकों के साथ बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लायीज फेडरेशन (बामसेफ़) की स्थापना की. यह संगठन आज भी सक्रिय है और देशभर में दलित जागरूकता के कार्यक्रम आयोजित करता है. 1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की शुरुआत की जिसे डीएस4 के नाम से जाना जाता है, और 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गठन किया. आगे चलकर उन्होंने मायावती को उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनाया. ऐसा देश के किसी भी सूबे में पहली बार हुआ था.
इस पूरे सफ़र में कांशीराम ने लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ा. इसके लिए सैकड़ों किलोमीटर साइकल दौड़ाई और मीलों पैदल चले. ऐसे भी मौके आए जब उन्होंने फटी कमीज़ पहनकर भी दलितों की अगुवाई की. उन्हें नीली या सफ़ेद कमीज़ के अलावा शायद ही किसी और रंग के कपड़े में देखा गया हो.
90 के दशक के मध्य तक कांशीराम की हालत बिगड़ने लगी थी. उन्हें शुगर के साथ ब्लड प्रेशर की भी समस्या थी. 1994 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा. 2003 में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हो गया. लगातार ख़राब होती सेहत ने 2004 तक आते-आते उन्हें सार्वजनिक जीवन से दूर कर दिया. आख़िरकार नौ अक्टूबर, 2006 को दिल का दौरा पड़ने से दलितों की राजनीतिक चेतना का मानवीय स्वरूप कहे जाने वाले इस दिग्गज की मृत्यु हो गई.
कांशीराम ने केवल एक व्यक्ति के लिए कुछ नहीं किया. ये व्यक्ति वे ख़ुद थे. घर त्यागने से पहले परिवार के लिए वे एक चिट्ठी छोड़ गए थे. इसमें उन्होंने लिखा था, ‘अब कभी वापस नहीं लौटूंगा’. और वे सच में नहीं लौटे. न घर बसाया और न ही कोई संपत्ति बनाई. परिवार के सदस्यों की मृत्यु पर भी वे घर नहीं गए. परिवार के लोग कभी लेने आए तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया.
संसार में ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व विरले ही हुए हैं जिन्होंने अपने संघर्ष से वंचितों को फ़र्श से अर्श तक पहुंचाया, लेकिन ख़ुद के लिए आरंभ से अंत तक ‘शून्य’ को प्रणाम करते रहे. कांशीराम ऐसी ही एक मिसाल हैं. वे संन्यासी नहीं थे, लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि जीवन में कुछ त्यागने के प्रति जो समर्पण कांशीराम ने दिखाया, वैसा बड़े-बड़े संन्यासी भी नहीं कर पाते.
कांशीराम के बाद
कई मानते हैं कि कांशीराम के नहीं होने का सबसे ज़्यादा दुख शायद उनके समय में बीएसपी से जुड़े उन कार्यकर्ताओं को होगा जो पार्टी छोड़ने या उससे निकाले जाने के बाद कहीं और नहीं गए. ये लोग कांशीराम का नाम नहीं लेते, आज भी उन्हें ‘मान्यवर’ या ‘साहब’ कहकर बुलाते हैं. ये लोग बीएसपी और कांशीराम के नाम पर राजनीतिक संघर्ष करने आए थे. आज न कांशीराम हैं और न ही मौजूदा बीएसपी वह बीएसपी है जो उनके समय हुआ करती थी.
ऐसा क्यों है, इसके लिए पहले भी बहुत से लेखों में बहुत से कारण बताए गए हैं. जानकारों के एक वर्ग के मुताबिक पार्टी के चिह्न हाथी को गणेश बताने के बाद कोई कट्टर समर्थक भी शायद ही बीएसपी को ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ नारा लगाने वाली पार्टी कहने का दावा करे. खुद मायावती की शैली में वह पैनापन नहीं दिखता जिससे वे अपने भाषणों में मनुवादी विचारधारा को ‘चीर’ दिया करती थीं. वे समय के साथ परिपक्व हुईं, लेकिन उनकी मौजूदा राजनीति कांशीराम की विरासत को आगे बढ़ाती दिखने के बजाय उनकी कमी का एहसास ज़्यादा दिलाती है. आलोचक कहते हैं कि कांशीराम ने वंचित समाज के लिए घर छोड़ा और मायावती को उसके लिए तैयार किया, और मायावती ने दलित समाज के लिए राजनीति करने का दावा करते-करते ख़ुद का ‘घर’ तैयार कर लिया है. दलितों के लिए 30 साल से भी ज़्यादा समय तक संघर्ष करने के बाद बीएसपी के उपाध्यक्ष के रूप में उन्हें अपना भाई ही मिला.
हालांकि इन बातों को बीएसपी समर्थक, जिनमें कई दलित बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, अक्सर ख़ारिज करते हैं. जानकार मानते हैं कि पार्टी की मुखिया मायावती और उनके समर्थकों का यही रवैया उसके मौजूदा हाल के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है. बीएसपी अब दलितों की पार्टी नहीं रही, यह दावा करना फ़िलहाल तो सही नहीं होगा, लेकिन 2007 के बाद पार्टी के व्यवहार में जो बदलाव आए और जो मौजूदा हालात हैं, उन पर कांशीराम के समय के कार्यकर्ताओं को सहर अंसारी का यह शेर पसंद आ सकता : मैं झूठ को सच से क्यूं बदलूं और रात को दिन में क्यूं घोलूं, क्या सुनने वाला बहरा है, क्या देखने वाला अंधा है.
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