भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय की कंपनी के टर्नओवर में 16 हजार गुना बढ़ोतरी की खबर सामने आने के बाद मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर है. इसके बचाव में वरिष्ठ भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह को भी सामने आना पड़ा है. उधर, विपक्ष ने इस मामले की सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) से जांच की मांग की है. पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा की बात करने वाला चौकीदार आज कहां चला गया? 10-12 साल से अमित शाह के बेटे की कंपनी कुछ नहीं कमा रही थी, लेकिन 2014 के बाद से अचानक कमाने लगी.’
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की बात लगातार करते रहते हैं. साथ ही वे भ्रष्टाचार को लेकर विपक्षी पार्टियों पर निशाना साधने से नहीं चूकते. बीते महीने नई दिल्ली में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने कहा, ‘भ्रष्टाचार के मामले में जो भी पकड़ा जाएगा, वह बचेगा नहीं. मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है. जिसके ऊपर भी इस तरह के आरोप लगेंगे, उनपर कार्रवाई की जाएगी.’ 2014 के चुनाव में ‘बहुत हुआ भ्रष्टाचार-अबकी बार मोदी सरकार’ का नारा देकर सत्ता में आने वाली भाजपा का दावा है कि उसपर अब तक भ्रष्टाचार के दाग नहीं लगे हैं.
लेकिन जानकार इस दावे पर सवाल उठाते हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार पर भले ही भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हों, लेकिन, उसके राज में इससे लड़ने वाली संस्थाएं जरूर कमजोर होती हुई दिखी हैं. उनके मुताबिक भ्रष्टाचार को लेकर सरकार की क्या मंशा है, इसका अनुमान काफी हद तक इसके खिलाफ रामबाण माने जाने वाले लोकपाल की नियुक्ति को लेकर उसकी बेरुखी से भी लगाया जा सकता है. साढ़े तीन साल बाद भी यह काम अधूरा पड़ा है. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है. इसके अलावा केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को लेकर भी सरकार सवालों के घेरे में है.
केंद्रीय सूचना आयोग के गठन को इसी हफ्ते 12 साल पूरे हुए हैं. इसका गठन 12 अक्टूबर, 2005 को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून -2005 के तहत किया गया था. इसी दिन महाराष्ट्र के शाहिद रजा बर्नी ने पहला आरटीआई आवेदन पुणे स्थित पुलिस स्टेशन में दायर किया था. कानून के मुताबिक आयोग को आरटीआई से जुड़ी शिकायत की जांच करने के साथ दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाने का भी अधिकार दिया गया है. किसी मामले पर आयोग का फैसला आखिरी और बाध्यकारी होता है. यानी इसे आगे चुनौती नहीं दी जा सकती है. इसमें मुख्य सूचना आयुक्त के साथ कुल 10 सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान देखा गया है कि काम का बोझ होने के बाद भी आयुक्तों की नियुक्तियों में काफी देर की जा रही है.
बीते साल सितंबर में सरकार ने आयोग में दो आयुक्तों की नियुक्ति के लिए आवेदन निकाला था. आरटीआई के तहत मिली जानकारी के मुताबिक सरकार को इन पदों के लिए कुल 225 आवेदन मिले. हालांकि, इसके एक साल बाद भी इन दो पदों पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं की जा सकी है. बीते महीने एक अन्य आयुक्त शरत सभरवाल का कार्यकाल पूरा हो चुका है. सीआईसी की वेबसाइट से हासिल जानकारी के मुताबिक सूचना आयुक्त मंजुला पराशर का कार्यकाल भी अगले साल जनवरी में पूरा हो जाएगा.
आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में सेवानिवृत्त कोमोडोर लोकेश बत्रा ने बीते महीने आरटीआई के तहत सीआईसी से जानकारी मांगी थी. लोकेश के मुताबिक सीआईसी ने उन्हें बताया कि इस बारे में उसके और कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के बीच कोई बातचीत ही नहीं हुई है. आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करने की जिम्मेदारी डीओपीटी की ही है.
आयोग में खाली पदों पर नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार के ढीले-ढाले रुख का यह पहला मामला नहीं है. इससे पहले भी नवंबर, 2015 में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र को छह हफ्ते के भीतर खाली पदों को भरने का आदेश दिया था. इसके बाद 18 दिसंबर, 2015 को पूर्व रक्षा सचिव राधा कृष्ण माथुर को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया था. इसके दो महीने बाद सरकार ने फरवरी, 2016 को तीन आयुक्तों- अमिताव भट्टाचार्य, बिमल जुल्का और दिव्य प्रकाश सिन्हा की नियुक्ति की.
आरटीआई कानून के मुताबिक मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जाता है. इसके बाद समिति द्वारा चयनित उम्मीदवार के नाम पर राष्ट्रपति मुहर लगाते हैं. इन्हें चुनाव आयुक्त के बराबर ही वेतन और अन्य सुविधाएं दी जाती हैं. साथ ही, इनसे अपेक्षा की जाती है कि इन्हें कानून, लोकसेवा, प्रबंधन, पत्रकारिता या प्रशासन के क्षेत्र में काम करने का अनुभव होगा. नियुक्ति की एक शर्त ये भी है कि संबंधित व्यक्ति संसद या विधानसभा के किसी सदन का सदस्य या फिर किसी लाभ के पद पर न हो. साथ ही किसी राजनीतिक पार्टी या कारोबारी संस्थान से जुड़े हुए व्यक्ति को भी इसके लिए अयोग्य माना गया है. आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की आयु सीमा तक तय किया गया है.
केंद्रीय सूचना आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्था को लेकर मोदी सरकार का ढीला- ढाला रवैया शासन संभालने के एक साल बाद ही सामने आ गया था. उस वक्त मुख्य सूचना आयुक्त राजीव माथुर अपने पद से 22 अगस्त, 2015 को सेवानिवृत हुए थे. इसके बाद सरकार यह खाली पद भरने को लेकर कुंभकर्ण बनी दिखी. सरकार को नींद से जगाने के लिए आरटीआई कार्यकर्ता लोकेश बत्रा, आरके जैन और सुभाष चंद्र अग्रवाल ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की. इस याचिका पर सुनवाई के बाद सरकार ने 10 जून, 2016 को मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर विजय शर्मा की नियुक्ति की. यानी करीब 10 महीने तक यह पद खाली रहा. उस वक्त मीडिया में आई रिपोर्टों की मानें तो आयोग के पास लंबित मामलों की संख्या बढ़कर 39 हजार हो गई थी. फिलहाल यह संख्या 24,000 से अधिक बताई जाती है.
आजादी के बाद आरटीआई कानून की गिनती आम आदमी की नजर में एक महत्वपूर्ण कानून के रूप में की जाती है. इसे आम लोगों के सशक्तिकरण और सरकार की जवाबदेही तय करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया. बीते 12 वर्षों में इसके जरिए सरकार और इससे जुड़े संस्थानों के कई काले-चिट्ठे लोगों के सामने आए. इसके साथ ही, इसके लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या की खबरें भी देश के अलग-अलग हिस्सों से आईं. सीआईसी को लेकर सरकार की मंशा पर जानकारों का कहना है कि आरटीआई कानून को जिस मकसद के साथ लागू किया गया था, सरकार उसकी ही धज्जियां उड़ाती हुई दिखती हैं. उनके मुताबिक एक ओर सरकार भ्रष्टाचार को खत्म कर एक नए और श्रेष्ठ भारत बनाने की बात करती है और दूसरी ओर इससे लड़ने के लिए बनाए गए हथियारों की धार को कुंद करती हुई दिखती है.
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