‘पंडित नैन सिंह ने जो भौगोलिक जानकारियां जुटाईं उन्होंने एशिया के नक्शे पर किसी दूसरे खोजकर्ता की तुलना में ज्यादा जानकारी जोड़ी है.’
चर्चित विद्वान और लेखक सर हेनरी यूले ने यह बात तब कही थी जब लंदन स्थित रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी (आरजीएस) ने 1868 में महान खोजकर्ता, सर्वेयर और मानचित्रकार नैन सिंह को रावत को अपने विशेष पदक से सम्मानित किया था. औपनिवेशिक भारत के एक साधारण सर्वे कर्मचारी की तारीफ में उन्होंने ये शब्द यूं ही नहीं कहे थे. नैन सिंह ने जो किया था वह इंसानी हौसले की असाधारण मिसाल था और हमेशा रहेगा.
19 वीं शताब्दी की शुरुआत में ही अंग्रेजों ने भारतीय उप-महाद्वीप में महान त्रिकोणमितीय सर्वे (जीटीएस) की शुरूआत कर दी थी. इसके तहत आधुनिक विधियों से सारे भारतीय भू-भाग के नक्शे बनने थे. तब हिमालय के आगे तिब्बत का क्षेत्र विदेशियों के लिए वर्जित था. इसकी सजा के रूप में जान तक ली जा सकती थी. यानी इस इलाके में कोई सर्वे होना नामुमकिन था. अंग्रेजों को लगा कि तिब्बत की जगह पर नक्शे में खाली जगह छोड़नी पड़ेगी.

सर्वे के सामरिक और व्यापारिक कारण भी थे. उस समय के बड़े साम्राज्य सिल्क रूट जैसे तिब्बत के व्यापारिक मार्गों का फायदा उठाना चाहते थे. यही वह दौर भी था कि जब रूसी साम्राज्य का हस्तक्षेप मध्य एशिया तक बढ़ चुका था. वह कभी भी तिब्बत होते हुए भारत में भी हस्तक्षेप कर सकता था.
ब्रिटिश अधिकारी पशोपेश में थे. तिब्बत खुलेआम जाना संभव नहीं था और छिपकर जाने में जान का खतरा था सो इस तरह कोई जाने को तैयार नहीं था. ऐसे में तत्कालीन सर्वेयर जनरल कैप्टन माउंटगुमरी ने इस समस्या का तोड़ निकालने की कोशिश की. उन्हें लगा कि तिब्बत से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में ऐसे पढ़े-लिखे, भरोसेमंद और बुद्विमान लोगों की खोज की जाए तो वेश बदलकर तिब्बत जाएं और वहां की अहम भौगोलिक जानकारियां इकठ्ठा कर सकें.
इसी अभियान के तहत 1863 में सबसे पहले 33 वर्षीय हेडमास्टर नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह रावत को चुनकर जीएसटी के देहरादून कार्यालय में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया. वे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के मुनस्यारी क्षेत्र के रहने वाले थे. इन दोनों को थर्मामीटर और दिशासूचक यन्त्रों की जानकारी दी गई. दूरी का हिसाब कदमों से लगाने की ट्रेनिंग हुई. सर्वेयरों को सिखाया गया कि कैसा भी उबड़-खाबड़ इलाका हो, कैसे हर कदम लगभग 31.5 इंच का ही पड़ना चाहिए.
बताते हैं कि इन दोनों सर्वेयरों को एक माला भी दी गई थी. सौ कदम पूरा करते ही ये सर्वेयर माला का एक दाना आगे खिसका देते थे. याने सौ दानों की माला का फेरा पूरा होते ही ये सर्वेयर, दस हजार कदम चलकर ठीक पांच मील की दूरी तय करते थे. किसी जगह की ऊंचाई खौलते पानी के तापमान से निकालनी होती.
नैन सिंह और मानी सिंह 1865 में काठमांडू होते हुए तिब्बत में दाखिल हुए थे. बताते हैं कि मानी सिंह कुछ ही दिनों बाद पश्चिमी तिब्बत से वापस आ गए, लेकिन नैन सिंह व्यापारियों के कारवां के साथ लामा के भेस में ल्हासा पहुंच गए. उन्होंने दुनिया में सबसे पहले ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई नापी. इसके साथ उन्होंने इस शहर के अक्षांश और देशान्तर की भी गणना की. यह आज की आधुनिक मशीनों से की गई गणना के बहुत करीब है.
गणनाओं को करने के बाद नैन सिंह उन्हें या तो कविताओं के रुप में याद रखते या फिर पूजा-चक्र में छुपा कर रख देते. कई बार वे पकड़े जाने से बाल-बाल बचे. तिब्बत के रास्ते नापते हुए नैन सिंह मानसरोवर के रास्ते कुल 1200 मील पैदल चलकर अपना पहला अभियान खत्म कर 1866 में वापस लौटे.
1867 से शुरू हुए अपने दूसरे अभियान में नैन सिंह ने पश्चिमी तिब्बत का भौगोलिक सर्वे किया. अपने आखिरी सफर (1874-75) में नैन सिंह लेह से ल्हासा होते हुए तवांग (आसाम) पहुंचे. वे पहले व्यक्ति थे जो सांगपो नदी के साथ 800 किलोमीटर पैदल चले. उन्होंने ही दुनिया को बताया कि सांगपो और ब्रहमपुत्र एक ही है. उन्होंने सतलज और सिन्धु के उद्गम भी खोजे. नैन सिंह ने सर्वेयरों की एक परंपरा शुरू कर दी. उनके बाद उनके चचेरे भाई किशन सिंह, कल्याण सिंह आदि ने विभिन्न इलाकों से तिब्बत में प्रवेश कर महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारियां इकट्ठा कीं. इनके आधार पर कैप्टन माउंटगुमरी ने तिब्बत का सटीक नक्शा बनाया.
नैन सिंह अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने ‘अक्षांश दर्पण’ और ‘इतिहास रावत कौम’ नाम से दो पुस्तकें भी लिखीं. उनकी, ‘यात्रा डायरियां दुनिया भर के खोजकर्ताओं के लिए पवित्र ग्रंथ हैं. उनकी खोजों के लगभग 140 सालों बाद भारत सरकार को भी उनकी याद आई. साल 2004 में उनके नाम से एक डाक टिकट जारी किया गया. गूगल भी अपने डूडल के जरिये इस महान सर्वेयर को याद कर चुका है.
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