आजकल यह कहने का चलन काफी बढ़ गया है कि देखो, सुपरस्टार भी कहानी-प्रधान फिल्में करने लगे हैं. शाहरुख खान, करण जौहर, फराह खान और आदित्य चोपड़ा जैसे अपने पुराने जोड़ीदार निर्देशकों की जगह नए फिल्मकारों के साथ पचास पार के बादशाह को तलाश रहे हैं और कहानी-प्रधान फिल्में बनाने वाले इम्तियाज अली, गौरी शिंदे, आनंद एल राय और राजकुमार हिरानी के आगे समर्पण कर रहे हैं.
सलमान खान अपने करियर में पहली बार कायदे की कहानी में, गुंथे हुए कायदे के किरदार निभा रहे हैं और ‘बजरंगी भाईजान’ व ‘सुल्तान’ जैसी स्टोरी बेस्ड फिल्में करके भी महानायक की अपनी छवि को अपार विस्तार दे रहे हैं. अक्षय कुमार धारदार सामाजिक विषयों और प्रेरणादायक जिंदगियों को कमर्शियल मसाला स्पेस में कारगर बना रहे हैं और एक जमाने में दूसरों के रोल काटने के लिए मशहूर रहने के बावजूद कहानी का रोल अपनी फिल्मों में से अब नहीं काट रहे हैं.
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लेकिन आमिर खान यह सब करने के साथ-साथ इन सबसे अलग हटकर एक अनूठा काम बरसों से कर रहे हैं. बाकी जितने भी सितारे इस तरह की फिल्में अब जाकर कर रहे हैं – या फिर वे सितारे जो बरसों से ऐसी फिल्में गाहे-बगाहे करते आए हैं - उनकी ये ‘कहानी-प्रधान’ फिल्में अंत तक ‘सितारा-केंद्रित’ ही रहती हैं. नायक के इर्द-गिर्द ही आखिर तक वे घूमती हैं और कहानी भले ही एक छोटी सी बच्ची की क्यों न हो (जैसे ‘बजरंगी भाईजान’) लेकिन फिल्म के अंत में उस बच्ची की जीत से ज्यादा अहम, और बड़ी जीत, नायक की होती है. आमिर खान हिंदी सिनेमा के अकेले ऐसे दुर्लभ सुपरसितारे हैं, जो कहानी अगर मांगे, तो फिल्म के क्लाइमेक्स में खुद को पीछे रखकर लाइमलाइट में किसी दूसरे को आने भी देते हैं, और खुलकर छाने भी देते हैं.
यह हम सब जानते ही हैं कि हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए इस क्लाइमेक्स की कितनी अहमियत होती है. एक साधारण फिल्म को बढ़िया क्लाइमेक्स तुरंत मनोरंजक फिल्म बना देता है और दर्शक तृप्त होने की खुशफहमी पालकर सिनेमाघरों से प्रसन्नचित्त होकर बाहर निकलते हैं. अच्छी फिल्म में बढ़िया क्लाइमेक्स चार चांद लगा देता है और ‘आनंद’ से लेकर ‘दो बीघा जमीन’, ‘गाइड’, ‘लगान’, ‘ए वेडनसडे’, ‘सैराट’, ‘लुटेरा’, ‘मसान’, ‘क्वीन’ और ‘बाहुबली : द बिगनिंग’ जैसी बहुत बढ़िया फिल्मों को भी हम उनके क्लाइमेक्स के लिए अलग से याद करते हैं. इसलिए तो सिर्फ हिंदी सिनेमा ही नहीं, दुनियाभर का सिनेमा स्टारपावर के बिना क्लाइमेक्स की कल्पना तक नहीं करता. सिनेमा के विशेषज्ञों और समीक्षकों से लेकर लेखक-निर्माता-निर्देशक तक सब जानते हैं कि ऐसा करना महा रिस्की हो सकता है.
लेकिन आमिर खान की ‘रंग दे बसंती’ (2006) याद कीजिए. हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शामिल राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस फिल्म का शुरुआती क्लाइमेक्स याद कीजिए. फिल्म में डीजे बनकर लगातार छाए रहने और पांच नायकों की कहानी के प्रमुख नायक होने के बावजूद क्लाइमेक्स आने पर आमिर ने रेडियो स्टेशन का माइक सिद्धार्थ की तरफ बढ़ा दिया था. फिल्म के निर्णायक क्षण हिंदी सिनेमा के लिए तब तक अंजान सिद्धार्थ नामक युवा अभिनेता के हाथों में दे दिए थे और फिर इसी युवा अभिनेता के संवादों ने वाया मीडिया देशभर के युवाओं में आक्रोश भरा था. क्लाइमेक्स के अंतिम क्षणों में जरूर आमिर वापस फिल्म का जरूरी हिस्सा बन गए थे लेकिन ग्यारह साल पहले फिल्म की रिलीज के वक्त तो आमिर की इस दरियादिली पर विश्वास तक करना मुश्किल था. क्योंकि सुपरस्टार युक्त हिंदी फिल्मों में ऐसा कभी घटित होते देखा ही नहीं था. लेकिन यही तो एक प्रबुद्ध अभिनेता का कहानी के प्रति समर्पण था, कि पूरी फिल्म में महानायक की तरह व्यवहार करने के बाद उसने कहानी-पटकथा की मांग अनुसार एक युवा अभिनेता के हाथों में क्लाइमेक्स की डोर पकड़ा दी थी.
कुछ ऐसा ही अगले साल 2007 में ‘तारे जमीं पर’ में भी टीचर बनकर आमिर ने किया. क्लाइमेक्स में खुद को किनारे कर छोटे से दर्शील सफारी को लाइमलाइट में चमकने का मौका दिया और पेंटिंग कॉम्पटिशन में उसके हाथों हारना भी मंजूर किया. बिना खुद के नायकत्व का ढिंढोरा पीटे, बच्चों के सामने बिना कोई भावुक करने वाली हीरोइक स्पीच देकर, इस आलातरीन फिल्म को एक उत्कृष्ट यथार्थवादी समापन से नवाजा.
और फिर, 2016 में आई ‘दंगल’ को तो कौन ही भूल सकता है भला! हिंदुस्तान की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली इस फिल्म के निर्णायक क्लाइमेक्स में आमिर खान कहीं दूर एक अंधेरे कमरे में बंद थे! गीता फोगाट और उनकी फाइट पर फोकस करने वाले इस क्लाइमेक्स में ताली बजाने और हौसला अफजाई करने तक के लिए वे दर्शकदीर्घा में मौजूद नहीं थे. जैसा कि स्पोर्ट्स फिल्मों में हमेशा ही होता है, रिंग के अंदर जब एक नायक (या नायिका) आखिरी फाइट के दौरान पिट-पिटकर बेहोश हो रहे होते हैं, तब रिंग के बाहर खड़ा उनका कोच या गुरु या पिता या प्रेमी उनका हौसला बढ़ाने के लिए कोई जादुई मंतर जरूर ड्रामेटिक अंदाज में चिल्लाकर फूंकता है. लेकिन आमिर इस सदाबहार क्लीशे तक का उपयोग करने के लिए क्लाइमेक्स में मौजूद नहीं थे और उन्होंने व निर्देशक नितेश तिवारी ने 10 मिनट से ज्यादा लंबे इस कठिन क्लाइमेक्स को पूर्णत: 24 साल की नई-नवेली अभिनेत्री फातिमा सना शेख के भरोसे छोड़ दिया था.
कोई और अभिनेता होता, जो आमिर खान जितना ही अविश्वसनीय शारीरिक श्रम करने के लिए तैयार होता, तो वो सिर्फ ऐसे क्लाइमेक्स की वजह से फिल्म छोड़ देता!
कहानी और पटकथा के प्रति आमिर खान का यह समर्पण- जिसके लिए इन फिल्मों के निर्देशक भी उतनी ही तारीफ के काबिल हैं - इस साल दिवाली पर रिलीज हुई परी-कथा नुमा लेकिन उत्कृष्ट ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ में भी पूरे शबाब पर था. (अगर आपने ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ अभी तक नहीं देखी है तो यहीं रुकिए और नीचे वाला पैरा छोड़कर आगे पढ़िए और स्पॉइलर्स से बचिए!)
इस फील-गुड सिनेमा में जायरा वसीम के किरदार के मसीहा का रोल निभाने के बावजूद आमिर खान ने कहीं भी कहानी पर सुपरस्टार वाली आभा की परछाईं नहीं पड़ने दी है. अपने ओवर द टॉप किरदार को रचने में भले ही कितनी भी मेहनत की हो, लेकिन कहीं ऐसा नहीं लगने दिया है कि वे इस मेहनत और खुद के निर्माता होने की कीमत को कहानी से वसूल रहे हों. साथ ही,एक बार फिर,वे क्लाइमेक्स में बिलकुल ही किनारे पर खड़े रहते हैं और ‘तारे जमीं पर’ की ही तर्ज पर जायरा वसीम के अवॉर्ड जीतने के बाद मंच पर जाकर कोई भावुक स्पीच नहीं देते हैं. एक छोटी सी मां-बेटी की कहानी को अपना नाम और काम देकर बहुत बड़ा भी बनाते हैं लेकिन ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ को शुरू से लेकर अंत तक अद्भुत काम करने वाली जायरा वसीम का ही रहने देते हैं.
इस लेख की तैयारी करते वक्त हमने खूब ढूंढ़ा भी. लेकिन न तो हिंदी फिल्मों में और न ही अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में आमिर खान जैसे दबदबे वाला कोई दूसरा सुपरस्टार नजर आया, जो खुद की ही ‘कई’ फिल्मों के क्लाइमेक्स में खुद को किनारे रखने की हिम्मत रखता हो. ऐसा सिर्फ और सिर्फ कहानी के भले के लिए करता हो और कहानी व विषय वस्तु को महानायक मानकर खुद सबसे बड़ा नायक बन जाता हो.
आपको नजर आए तो जरूर बताइएगा.
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