हमारे समय और समाज में बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका है इसे लेकर ख़ासे मत-मतान्तर हैं. एक छोर पर ऐसे भक्तगण हैं जो सारे बुद्धिजीवियों को वामपन्थी मानकर उनकी भूमिका मानने से इनकार करते हैं क्योंकि स्वयं उनके कट्टर दक्षिणपन्थ में कोई ख़ास बुद्धिजीवी हैं नहीं. दूसरे छोर पर ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि हमारे समय और समाज में बौद्धिक उपस्थिति बहुत क्षीण हो गयी है क्योंकि बुद्धिजीवी मुखर और सक्रिय नहीं रह गये हैं. ऐसे कई हैं जिन्हें लगता है कि हमारा समय, दुर्भाग्य से, कायरता और चुप्पी का होता जा रहा है. ऐसे भी हैं जिन्हें एहसास यह है कि बुद्धिजीवी अपनी भूमिका और महत्व को लेकर अतिरंजना में डूबे रहते हैं और दरअसल हमेशा ही उनकी स्थिति और प्रभाव सीमित रहे हैं. कभी कहा गया था कि बुद्धिजीवी का काम सत्ता से निडर होकर सच बोलना है और अब कहा जा रहा है कि सच क्या है यह बेहद संदिग्ध मामला हो गया है.

इस संदर्भ में ईरानी राजनैतिक दार्शनिक रामिन जहांबेगलू ने अपने दया कृष्ण स्मृति व्याख्यान में इस ओर ध्यान दिलाया कि इन दिनों न सिर्फ़ सार्वजनिक बुद्धिजीवी उतार पर हैं, तथाकथित जन यानी पब्लिक भी उतार पर है. दोनों बुरी तरह से बिखरते जा रहे हैं. विचार और कर्म के बीच जो दूरी होती है उसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी किसी हद तक कम कर पाते थे. लेकिन इधर कर्म की ऐसी प्रधानता है कि विचार अपने आप में गौण होता जा रहा है. विचार की कसौटी के बजाय कर्म की कसौटी की अधिक प्रतिष्ठा हो गयी है: जो विचार किसी तरह की सकर्मकता से नहीं जुड़ता उसकी व्यर्थता स्वयंसिद्ध मानी जाने लगी है. सही है कि विचार को कर्म परिवर्तित, संशोधित, परिष्कृत और ठोस बनाता है. पर उतना ही सही यह भी है कि कर्म को विचार अधिक गहरा, अधिक मानवीय, अधिक व्यापक, अधिक टिकाऊ बनाता है- कर्म की व्याप्ति विचार से ही संभव हो पाती है.
इस बीच एक और बड़ी घटना यह हुई कि विचार और कर्म दोनों के क्षेत्र बहुत व्यापक और दृश्य-श्रव्य रूप से मीडिया के अहाते में आ गये हैं. स्वयं मीडिया को यह भ्रम है कि वह विचार का उद्गम-स्थल हो गया है और विचार को यह ग़लतफ़हमी कि बिना मीडिया में आये विचार की प्रासंगिकता अधूरी है. इसका एक नतीजा यह भी है कि बहुत सारे चतुर-चपल पत्रकार या टिप्पणीकार अब विचारक माने जाने लगे हैं और उन्हें भी ऐसा भ्रम होता गया है. विचार बहुत तेज़ी से अभिमत या राय में बदल गये हैं. यहां आक्रामकता का बहुत नाटकीय प्रभाव पड़ता है. इतना शोर-गुल हर समय मचा रहता है कि उसमें चुपचाप रहकर गंभीरता से विचार करना कठिन होता जाता है. एक तरह की तेज़ी और अधीरता विचार को अपनी वस्तुनिष्ठ भूमिका से विपथ कर रही है. सच्चे-खरे और साहसी बुद्धिजीवी हमेशा कम होते हैं- वे इस समय और कम हो गये हैं और उनकी बात को ध्यान में सुनने-गुननेवाले भी तेज़ी से कम हो रहे हैं.
नलिनी का क्षोभ
अगर जयश्री चक्रवर्ती में पर्यावरण को लेकर भारतीय चिन्ता व्यक्त होती है तो उनसे कहीं वरिष्ठ नलिनी मलानी में राजनीति द्वारा किये जा रहे मानवीय ध्वंस पर गहरी चिन्ता उनकी पाम्पिदू प्रदर्शनी में चरितार्थ होती है. नलिनी के यहां अधिक मुखरता है, आवाज़ों का भयानक तुमुल (मुठभेड़) है, चीख़-पुकार और नाटकीयता है: कई नयी तकनीकों को बहुत निर्भीक और सशक्त उपयोग है. नलिनी का संसार अधिक अंतरराष्ट्रीय इस मायने में है कि उसमें व्यक्त हिंसा, ख़ून-ख़राबे आदि को व्यापक विश्व-संदर्भ में देखा-पहचाना जा सकता है. अगर जयश्री की कलाकृति विलाप है तो नलिनी की कृतियां चीत्कार और ललकार हैं. दोनों ही भारतीय स्त्री द्वारा अब बेहिचक विन्यस्त (स्थापित) की जा रही अस्वीकार की विधाएं हैं. जयश्री की दुनिया स्थानीय होकर सार्वभौम है, नलिनी का संसार सार्वभौम होकर स्थानीय है. उन्हें परस्पर-विरोधी युग्म की तरह देखने के बजाय परस्पर-पूरक युग्म की तरह भी देखा जा सकता है.
यों तो एक बड़ी पुनरवलोकी प्रदर्शनी को, उसकी विविधता को किसी एक पद में संकलित करना असंभव है. फिर भी यह कहा जा सकता है कि यह प्रदर्शनी नलिनी मलानी के क्षोभ की गाथा है. हत्या, हिंसा, बलात्कार, निषेध आदि से पोसी गयी राजनीति के विरुद्ध खड़ी उदग्र और उग्र अस्वीकार की कला की कथा. नलिनी के यहां स्मृति की बड़ी भूमिका है: तकलीफ़ को उदीप्त करने में और मरहम लगाने में भी स्मृति काम करती है.
एक अन्य स्तर पर यह कला भूलने के विरुद्ध चेतावनी है. वह 2002 में हुए गुजरात नरसंहार को एक वीडियो में याद करती यह उक्ति एक चश्मदीद गवाह के हवाले से उद्धृत करती हैं: ‘उन्होंने छः बरस के एक बच्चे के मुंह में पेट्रोल उड़ेला और एक जली माचिसकाड़ी फेंक दी: बच्चा एक बम की तरह फूट पड़ा.’ वे यह भी एक कलाकृति पर अंकित करती हैं कि ‘जब जीवित लोग आगे नहीं लड़ सकेंगे तो मृतक लड़ेंगे.’ इस प्रदर्शनी का शीर्षक ही है: ‘मृतकों का विद्रोह’. एक और वीडियो में एक औरत चीख़ती है ‘तुम्हें और हमें यहीं रहना है, साथ रहना है फिर क्यों देश को बरबाद करने के चक्कर में पड़े हो? हमें इसका जवाब चाहिये?’ अन्ततः यह ऐसी कला है कि हम अपनी जबावदेही से मुकर या भाग नहीं सकते. यह गहरे अर्थ में परिष्कृत कला है जो तरह-तरह से हमें अपनी जबावदेही का एहसास कराती है.
70 वर्ष की हो गयीं नलिनी में, शुक्र है, क्षोभ, रोष और साहस बाक़ी है. उनके यहां स्त्रीत्व और क्षोभ में, परिष्कार और प्रयोगशीलता और राजनैतिक समझ में कोई दूरी नहीं है. इस अवसर पर प्रकाशित एक भारी कैटलाग में जिन व्यक्तियों के प्रति आभार प्रकट किया गया है उनमें अप्रत्याशित रूप से मेरा नाम भी है. स्वयं नलिनी ने याद दिलाया कि 1978 में मध्य प्रदेश कला परिषद के अंतर्गत मैंने उनकी, विवान सुंदरम और सुधीर पटवर्धन की एक संयुक्त प्रर्दशनी आयोजित की थी. वहीं से एक तरह से बाद में प्रसिद्ध गीता कपूर द्वारा संग्रहीत प्रदर्शनी ‘प्लेस फ़ार पीपुल’ का सूत्रपात हुआ था.
धुआं-कथा
धुआं गाढ़ा या महीन हो सकता है पर हर हालत में भंगुर होता है: होता है पर जल्दी ही ग़ायब भी हो जाता है. ठहराव उसकी आदत में नहीं, बहुत देर रमना उसके स्वभाव में नहीं. पर उसे लेकर बहुत सारा रूमान होता रहता है: ‘शाम भी थी धुआं-धुआं हुस्न भी था उदास उदास, दिल को कई कहानियां याद सी आकर रह गयीं.’ लेकिन उसे लेकर एक पूरी पुस्तक हो सकती है यह कभी सोचा नहीं था. पैरिस की शेक्सपीयर एंड कम्पनी में जब नाटिंग हिल एडीशन्स द्वारा प्रकाशित और जान बर्जर तथा सेलबुक देमिरेल द्वारा लिखित-चित्रित पुस्तक ‘स्मोक’ देखी तो विस्मय हुआ. ज़्यादातर चित्रांकन तुर्की लेखक-चित्रकार देमिरेल के हैं और इबारत बर्जर की जो विश्वविख्यात कलालोचक, उपन्यासकार और कवि थे. दोनों ही धूम्रपान के आदी रहे. इसलिए यह नयनाभिराम पुस्तक धूम्रपान के पक्ष में, उसके बचाव में रची गयी है.
प्राक्कथन में कहा गया है कि बिना आग के कभी धुआं नहीं होता. यह पहली बार किसी ने कहा था यह सुझाते हुए कि अफ़वाह में भी दम होता है. मीडिया में आजकल शब्द एक धुआं-परदे का काम करते हैं लपटों को छुपाते हुए. उत्तर कोरिया की सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि उन्होंने एक सबमरीन से हाइड्रोजन बम की आज़माइश की है. इस पर अन्तहीन बहस कि यह सही है कि धोखा. इस पर कोई विचार नहीं कि इस समय संसार के समुद्रों में रात दिन निर्देश की प्रतीक्षा में पूरी तरह से लैस लगभग साठ सबमरीनें हैं.
जब हम साथ धूम्रपान करते हैं तो संसार पर अपने मतों का विनिमय करते हैं. हम सपनों की अदला-बदली करते हैं. हम ट्रेन में धूम्रपान करते थे यहां तक कि हवाईजहाज़ में भी. उस समय एशट्रे मेहमानी के उपकरण थे. फिर कुछ हुआ और सब कुछ बदल गया. धूम्रपान करनेवाले असावधान हत्यारे क़रार दिये गये. वे उन सबके लिए ख़तरा बन गये जो उनके इर्दगिर्द हैं, बच्चे भी. बदनामी का एक अभियान शुरू हुआ. धूम्रपान ऐकान्तिक (पूर्ण) बीमारी बन गया. इस दौरान ग्रह का गरमतर होना जारी रहा, कार्बन मोनोऑक्साइड के द्वारा अबाध...
यह एक दस्तावेज़ है जिसमें थोड़े से धुएं के बरक़्स अधिक ज़हरीले और व्यापक धुएं को रखा गया है. धूम्रपान से होनेवाली संग-सोहबत के बीत गये समय पर एक तरह का विलाप किया गया है. पर उसका संक्षिप्त और सटीक होना उसके मर्म को दीप्त और उद्दीप्त दोनों ही करता है.
बर्जर की विश्व-कीर्ति एक आलोचक और उपन्यासकार की है. पर उन्होंने जब-तब संक्षेप में किसी आमफ़हम थीम पर कुछ लिखने या चित्र बनाने की परंपरा को भी बराबर क़ायम रखा है. जब सभी लोग बड़े-बड़े विषयों पर बहुत विस्तार और उत्साह से लिख-पढ़ रहे हों ‘स्मोक’ जैसे संक्षेप से काम लेना और हमारे ही समय की किसी मर्मघटना को दर्ज करना गद्य में कविता करने जैसा है. कोई भी विषय छोटा-बड़ा अपने आप में नहीं होता: भाषा में उसको दर्ज करने के कौशल और मर्मस्पर्शिता से उसका महत्व बनता या बिगड़ता है.
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