वायु प्रदूषण ने साल 2019 के अक्टूबर-नवंबर में कुछ ऐसी स्थितियां बना दी थीं कि देश की राजधानी में स्वास्थ्य के लिहाज से आपातकाल घोषित करना पड़ गया था. इससे निपटने के लिए जहां एक तरफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक पैनल ने दिल्ली-एनसीआर में कुछ हफ्तों के लिए सभी निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध लगा दिया था. वहीं, दूसरी ओर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राज्य के सभी स्कूलों को भी कुछ समय तक बंद रखने का आदेश दे डाले थे.
बीते कई सालों से सर्दियों की शुरूआत में हालात प्रदूषण से इतने खतरनाक हालात बन रहे हैं कि ज़िंदगी लगभग रुक सी जाती है. सारी दुनिया की तरह, पहले से ही कोरोना महामारी से जूझ रहा दिल्ली-एनसीआर का इलाका अब प्रदूषण की चपेट में आना भी शुरू हो गया है. नतीजा यह हुआ है कि सरकार एक और मोर्चे पर लोगों की जान बचाने और शहर में गतिविधियां चालू रखने के लिए तैयारियां करती दिख रही है. जो नहीं बदला है, यह है कि हर साल की तरह इस साल भी पर्यावरण पर चर्चाएं एक बार फिर जोर-शोर से चलने लगी हैं जिनमें अक्सर ही पेड़ों का जिक्र आना भी लाजिमी है. ऐसे में इन दिनों इस समझाइश का लेन-देन एक बार फिर शुरू हो गया है कि जितनी गुंजाइश हो हमें अपने आसपास पेड़ लगाने और उन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए.
लेकिन दिल्ली जैसे शहर में जहां परिवार फ्लैटों में बसते हैं वहां पर कौन, कहां पेड़ लगाएगा और कैसे अपना पर्यावरण बचाएगा. इसलिए फिलहाल साफ-सुथरी सांस के लिए फौरी उपाय के तौर पर, घर के बाहर - ब्रीदिंग मास्क और अंदर - इंडोर प्लांट्स, को अपनाया जा रहा है. दिल्ली में हर साल लौटने वाले स्मॉग की वजह से इंडोर प्लांट्स की चर्चा और बिक्री दोनों ही बढ़ गई है.
हो सकता है, आपको यह सुनकर एक जोर का झटका लगे कि इंडोर प्लांट्स हवा को शुद्ध करने में उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाते हैं, जितना बीते कुछ समय से आपको बताया जा रहा है. लेकिन इससे पहले इस बात की चर्चा कर ली जाए कि इंडोर प्लांट्स का चलन शुरू कहां से और कैसे हुआ. दरअसल, इंडोर प्लांट्स को एयर प्यूरिफायर मानने का यह मिथक भी कई और बातों की तरह हमारे यहां पश्चिम से आया है. कई यूरोपियन और अमेरिकन देशों में कड़ाके की सर्दियां शुरू होते ही ज्यादातर घर एयरटाइट डिब्बों में बदल जाते हैं और उनमें वेंटिलेशन की गुंजाइश नहीं के बराबर रह जाती है. ऐसे में घर की हवा को साफ-सुथरा रखने के सस्ते उपाय के तौर पर यहां पर इंडोर प्लांट्स का इस्तेमाल किया जाता है.
इंडोर प्लांट्स के बारे में इस मिथक की शुरूआत सन 1989 में जारी नासा के एक शोध पत्र से हुई. नहीं, शोध पत्र में कोई गलत जानकारी नहीं दी गई थी. दरअसल इसे रिपोर्ट करने वाले ज्यादातर पत्रकारों ने रिपोर्ट को अच्छी तरह से पढ़ने की बजाय ऊपर-ऊपर से समझ में आई जानकारी के आधार पर इंडोर प्लांट्स के तमाम फायदे गिनवा दिए. उदाहरण के लिए इन पौधो के बारे में बताया गया कि ये कमरे में मौजूद 90 प्रतिशत प्रदूषकों को, मात्र 24 घंटे में खत्म कर देते हैं, या लगभग 100 वर्ग फीट एरिया में हवा की सफाई के लिए केवल एक ही पौधा काफी है. कुछ रिपोर्टों में आपको यह गिनती 10 से 20 के बीच भी मिल सकती है और कुछ में ऐसा करने वाले पौधों के नामों की लिस्ट भी. यह सही है कि इन पौधों की उपस्थिति कमरे में थोड़ी मात्रा में ऑक्सीजन बढ़ाने में मददगार होती है लेकिन उनसे वातावरण में कोई महसूस किया जा सकने वाला फर्क आ जाए, ऐसा संभव नहीं है. सामान्य हालात में तो फिर भी इनकी उपस्थिति को असरदार माना जा सकता है लेकिन जैसा प्रदूषण दिल्ली जैसे शहरों में होता है, वहां तो इनके होने या न होने को कोई मतलब निकलता नज़र नहीं आता है.
नासा की रिपोर्ट पर लौटें तो इसमें एक्टिवेटेड कार्बन प्लांट फिल्टर का जिक्र किया गया है. एक्टिवेटेड कार्बन यानी चारकोल में प्रयोग के लिए उगाए गए पौधों को एक्टिवेटेड कार्बन प्लांट फिल्टर कहा जाता है. इन्हें छोटे-छोटे चैंबरों में रखकर यह परीक्षण किया गया था. इन चैंबरों में कुछ रासायनिक प्रदूषकों जैसे बेंजीन, फार्मल्डिहाइड और ट्राइक्लोरोएथिलीन इंजेक्ट किए गए जिनकी मात्रा 24 घंटे के बाद लगभग 58 प्रतिशत तक कम हो चुकी थी. यह जांच करने के लिए कि यह कमाल पौधे का है या एक्टिवेटेड कार्बन का, प्रयोग के अगले चरण में पौधों की सारी पत्तियां हटा दी गईं. लेकिन इस बार भी प्रदूषकों की मात्रा लगभग पहले जितनी ही - 50 फीसदी - कम हो गई थी. इस आधार पर वैज्ञानिकों ने माना कि यह एक्टिवेटेड कार्बन यानी चारकोल था जो प्रदूषण को कम कर रहा था.
इंडोर प्लांट्स के फायदे गिनाते हुए इस बात का भी जिक्र किया जाता है कि यह सभी तरह के प्रदूषकों पर काम करता है. लेकिन नासा ने शोध में केवल तीन तरह के प्रदूषकों पर ही यह अध्ययन किया था. यानी सभी तरह के प्रदूषक कम होने की बात का कोई आधार ही नहीं है. जहां तक कमरे से 90 प्रतिशत प्रदूषक कम करने का सवाल है, वह तो और भी बड़ा जुमला लगता है. क्योंकि प्रयोग के दौरान आदर्श परिस्थितियों में भी केवल 50 से 58 प्रतिशत तक ही प्रदूषक कम हुए थे, वह भी किसी औऱ वजह से. इसके अलावा इस प्रयोग में चैंबर में केवल एक ही बार प्रदूषक इंजेक्ट किए गए थे जबकि घरों में हर सेकंड वायु प्रदूषकों की गिनती बढ़ती रहती है. ये प्रदूषक साफ-सफाई के लिए इस्तेमाल होने वाले रसायनों, मच्छर भगाने वाले कॉइल-लिक्विड या फर्नीचर पर इस्तेमाल होने वाले फैब्रिक वगैरह से लगातार निकलते रहते हैं.
इसके अलावा एक कमरे के लिए भी एक ही पेड़ काफी होने की बात भी सही नहीं मानी जा सकती क्योंकि नासा का प्रयोग करीब दो फीट की लंबाई-चौड़ाई वाले एक चैंबर में किया गया था. यानी कि एक एक्टिवेटेड कार्बन प्लांट फिल्टर एक बहुत छोटे से क्षेत्रफल में फैले प्रदूषण को ही सही कर पा रहा था. कुछ वैज्ञानिकों की राय है कि एक दस फीट लंबाई-चौड़ाई वाले कमरे की हवा में फर्क लाने के लिए कम से कम सौ पौधों की जरूरत होगी.
ऐसा नहीं है कि हाउस प्लांट से जुड़े सारे प्रयोग सिर्फ छोटे चैंबर्स में ही किए गए हैं. सिडनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी के कुछ वैज्ञानिकों ने अलग-अलग ऑफिस बिल्डिंग्स में एक, तीन और छह पौधे प्रयोग के लिए रखे और पाया कि पौधों की उपस्थिति के बाद भी वहां मौजूद प्रदूषकों की मात्रा में कोई विशेष अंतर नहीं आया था. यानी कि बिना एक्टिवेटेड कार्बन के, व्यावहारिक परिस्थितियों में किए गए प्रयोग का नतीजा सिफर ही रहा. नेशनल ज्योग्राफिक की यह रिपोर्ट भी इस तरह के कई दावों को नकारती है और स्पष्टता से कहती है कि घर की साधारण मिट्टी में लगाए चुनिंदा पौधे आपके कमरे की हवा साफ करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
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