इन दिनों आईपीएल सहित कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट आयोजनों में मैदान पर हिंदी में लगे विज्ञापन देखने को मिलने लगे हैं. वहीं पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर ने अपने एक ट्वीट की कैरेक्टर लिमिट सिर्फ इसलिए बढ़ा दी कि कुछ भाषाओं से सटीक अभिव्यक्ति के लिए ज्यादा कैरेक्टर्स की जरूरत पड़ती है. ट्विटर ने इस फैसले में हिंदी को भी शामिल किया है. इसके साथ ही आजकल टीवी पर आने वाले गूगल के विज्ञापनों पर गौर करें तो ज्यादातर वक्त वह हिंदी में विकल्प दिखा रहा होता है. इन सबको मिलाकर देखें तो सोशल मीडिया पर खासी चर्चित रही यह चुटकी सच्ची लगती है कि हिंदी बस पुस्तक मेलों और साहित्यिक गोष्ठियों में ही खतरे में है!

इस समय हिंदी के बढ़ते असर की एक और बानगी चर्चा में है. विश्व के प्रतिष्ठित शब्दकोशों में से एक ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के पब्लिशर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (ओयूपी) ने इस साल से अंग्रेजी की ही तरह साल का सबसे लोकप्रिय हिंदी शब्द चुनने का फैसला किया है. ‘वर्ष का हिंदी शब्द’ उस शब्द को चुना जाएगा जो बीते एक साल में चर्चा में रहा हो. यह एक शब्द इस बात को दिखाएगा कि पूरे साल देश में क्या माहौल रहा. इस शब्द के चयन का पैमाना यही होगा कि वह पूरे 12 महीने आम-ओ-खास में चलन में रहा हो. जैसे बीते साल अंग्रेजी का वर्ड ऑफ द ईयर चुना गया शब्द था - पोस्ट ट्रुथ. साल 2016 में भारत में नरेंद्र मोदी और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की राजनीतिक शैली के चलते ‘पोस्ट-ट्रुथ पॉलिटिक्स’ टर्म खासा चर्चा में रहा. इसका मतलब उन परिस्थितियों से है जहां लोग तर्कों-तथ्यों के मुकाबले भावनाओं में बहकर कोई फैसला करते हैं.

फिलहाल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जुड़ी यह खबर हिंदी प्रेमियों के लिए जितनी खुश करने वाली है, उतनी ही बुरी लगने वाली भी होनी चाहिए क्योंकि यह हिंदी के बारे में लगातार चिंता करने वाले तमाम चिंतकों और प्रकाशकों का आइडिया नहीं है. जो काम राजभाषा विभाग या राजकमल जैसे बड़े प्रकाशनों को (अंग्रेजी की देखा-देखी ही सही) सालों पहले कर लेना चाहिए था, वह अब एक ब्रिटिश पब्लिकेशन करने जा रहा है. खैर, जो हिंदी के सच्चे प्रेमी और समर्थक हैं वे ओयूपी की वेबसाइट पर जाकर अपने मनचाहे शब्द को वर्ष का हिंदी शब्द बनाने के लिए अपना वोट और अपने सुझाव तो दे ही सकते हैं.