उपन्यास का एक अंश : ‘एक वयस्क मादा हाथी धीरे-धीरे लाश की तरफ आई. वो शायद समूह की नई महामाता थी. उसने सूंड बढ़ाकर, पूरे सम्मान से मृत शरीर का माथा छुआ. फिर उसने मृत शरीर के गिर्द चक्कर लगाया और वहां से चली गई.
घेरे में खड़े दूसरे हाथियों ने भी एक-एक कर अपनी नेता का अनुसरण किया.
...उनमें से किसी ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. एक बार भी नहीं. एक बार भी नहीं.
...नर बच्चा दिल तोड़ने वाली आवाज में रो रहा था. वह अपनी बहन के पीछे गया. लेकिन पीछे देखता रहा. बार-बार. मुड़-मुड़कर. हालांकि, अपनी बहन के साथ जाते हुए वो कोई विरोध नहीं कर रहा था.
...‘समाज चलता रहता है, मेरी बच्ची’ सुनयना फुसफुसाईं. ‘देश चलते रहते हैं. ज़िंदगी चलती रहती है.’
...सीता ने मां को कसकर पकड़ लिया. ‘भागना कोई हल नहीं होता. अपनी समस्याओं का सामना करो. उन्हें संभालो. यही योद्धा का तरीका है’ सुनयना ने सीता की ठोड़ी उठाई और उनकी आंखों में देखा. ‘और, आप एक योद्धा हो. ये बात कभी मत भूलना.’

उपन्यास : सीता-मिथिला की योद्धा
लेखक : अमीश
अनुवादक : उर्मिला गुप्ता
प्रकाशक : यात्रा
कीमत : 299 रुपये
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास की रामचरित मानस की सीता को हम, राजा जनक की बेटी, हिंदुओं के आराध्य राम की पत्नी और लव-कुश की मां के रूप में ही ज्यादा जानते हैं. या फिर राम के साथ वनवास काटने और उनकी अग्नि परीक्षा के बाद धरती में समा जाने की घटनाओं के संदर्भों में ही सीता को याद किया जाता है. इन कुछेक घटनाक्रमों से ही हम सीता के पूरे व्यक्तित्व का चित्रण आज तक करते आ रहे हैं. लेकिन धार्मिक पात्रों, देवी-देवताओं का यथार्थ के धरातल पर चित्रण करने में माहिर अमीश ने, इस उपन्यास में सीता के सशक्त व्यक्तित्व की परिकल्पना को बखूबी साकार किया है.
यहां सीता के जन्म से लेकर, उनके बचपन, शिक्षा-दीक्षा, मिथिला का शासन संभालने, राम के साथ विवाह और फिर रावण द्वारा हरण किए जाने तक की कथा का बहुत विस्तृत और रोचक वर्णन है. यह उपन्यास सीता को एक बहुत ही सजग, कुशल, विनम्र, निडर योद्धा और बहादुर प्रशासक के तौर पर स्थापित करता है. सीता ने आश्रम शिक्षा के दौरान, हथियार प्रशिक्षण में आवाज़ सुनकर उसे चाकू से भेदने में महारत हासिल की थी. लेखक का कहना है कि इस मामले में वे एक दुर्लभ योद्धा थीं. अमीश लिखते हैं -
‘उन्होंने अपनी कमर पर बंधी म्यान से अपना चाकू निकाला. आंखें बंद कीं. वे पेड़ के पीछे से झांककर, खुद को प्रदर्शित करने का जोखिम नहीं ले सकती थीं. ऐसे में कोई तीर उन्हें भी अपना शिकार बना सकता था. आंखों का कोई काम नहीं था यहां. उन्हें अपने कानों पर ही भरोसा करना था. ऐसे महान धनुर्धर थे, जो आवाज़ सुनकर ही तीर चला सकते थे. लेकिन आवाज़ के अंदाज़े पर चाकू फेंकने वाले बहुत कम थे. सीता उन दुर्लभ योद्धाओं में से थीं.
...आवाज़ का जो स्रोत था, उस गले में एक चाकू धंस चुका था. खुद को बिना दिखाए सीता तेज़ी से मुड़कर, मारक सटीकता से अपना वार कर चुकी थीं. गले में धंसते चाकू ने एक पल को लंका के सैनिक को हैरान किया.’
राजा जनक आध्यात्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण राजपाठ से ज्यादातर दूर ही रहते थे इसलिए मिथिला का पूरा राजकाज उनकी पत्नी सुनयना संभालती थीं. सुनयना के बाद सीता मिथिला की प्रधानमंत्री बनती हैं. सीता अपने राजकाज को एक बहादुर योद्धा की तरह संभालती हैं. यहां तक कि इस जिम्मेदारी को पूरा करने में वे बहुत सारी स्त्रियोचित चीजों की भी सहज ही उपेक्षा कर देती हैं. राम के साथ स्वयंवर के समय, सीता पहली बार अपने चेहरे और शारीरिक बनावट पर गौर करती हैं. इसका वर्णन करते हुए लेखक कहता है -
‘सीता ने शायद ही कभी इस पर ध्यान दिया हो कि वो दिखती कैसी हैं. लेकिन न जाने क्यों वो आज खुद को देखने के लिए कक्ष में लगे, ताम्र चमक वाले आईने के सामने गईं.
वो लगभग राम जितनी ही लंबी थीं. गठा बदन. मज़बूत. सांवली रंगत. उनके गोल चेहरे की रंगत बाकी शरीर की अपेक्षा कुछ हल्की थी. उठे हुए गाल और नुकीली, छोटी नाक. उनके होंठ न तो पतले थे, न मोटे. उनकी चौकस आंखें न ज़्यादा छोटी थीं, न ज़्यादा बड़ीं; उन पर धनुषाकार भवें.
...वो अपनी बांह पर लगे युद्ध के निशान को छूकर झिझकीं. उनके ये निशान उनका गर्व थे.
...राम जैसे पुरुष मेरे निशानों का सम्मान करेंगे. यह एक योद्धा का शरीर है.
...उन्होंने हमेशा खुद को एक योद्धा ही समझा था. एक राजकुमारी. एक शासक.’
लंका नरेश रावण के राज्य में विज्ञान और तकनीक की बड़ी प्रगति हुई थी, लेकिन वह प्रवृत्ति से दुष्ट था. उपन्यास के अनुसार सीता के स्वयंवर में रावण जब अपने पुष्पक विमान में बैठकर आता है तो मिथिला की जनता सिर्फ उसका विमान देखने के लिए ही उमड़ पड़ती है.
पुष्पक विमान के कारण स्वयंवर में जिसका आना पूरे मिथिला के लिए सबसे ज्यादा कौतुहल का विषय था, वही रावण अपनी हठ और कुबुद्धि से पूरे विवाह समारोह में घृणा और उपेक्षा का पात्र बन जाता है. स्वयंवर में रावण के उद्दंड व्यवहार को अमीश बहुत ही सजीवता के साथ लिखते हैं -
‘रावण ने अचानक झुककर पिनाक उठा लिया. इससे पहले कि कोई कुछ कर पाता, वह उस पर कमान चढ़ाकर बाण रख चुका था. जब उसने तीर का निशाना विश्वामित्र की ओर किया, तो वहां उपस्थितजनों को मानो लकवा मार गया. विश्वामित्र अपना अंगवस्त्र एक तरफ फेंकते हुए खड़े हुए, इससे उपस्थित भीड़ डर से जड़ हो गई. अपनी छाती पर हाथ मारते हुए वे चिल्लाए. ‘मारो, रावण!’ ऋषि की आवाज़ भवन में गूंज उठी. ‘बढ़ो! मारो मुझे, अगर तुममें दम है तो!’
भीड़ के मुंह से आह निकली. डर से.
सीता सकते में थीं. ‘गुरुजी!’
रावण ने तीर छोड़ दिया. तीर विश्वामित्र के पीछे, मिथि की प्रतिमा में लगा, इससे प्रतिमा की नाक टूट गई. नगर के संस्थापक का अपमान. अकल्पनीय था.
सीता अवाक् रह गईं. उसकी हिम्मत कैसे हुई?
‘रावण!’ सीता अपनी जगह से उठते हुए गुर्राईं, उनका हाथ खुद अपनी तलवार पर पहुंच गया था.’
अमीश ने पूरे उपन्यास में बहुत ही सजीव, बांधने वाले और विस्तृत वर्णन किये हैं. पढ़ते हुए लगता है, पाठक सीता की मिथिला, और त्रेता युग में पहुंच गए हैं. यह उपन्यास दत्तक पुत्री सीता के मिथिला की प्रधानमंत्री और फिर अपने दैवीय व्यक्तित्व और प्रभावी काम से देवी बनने की कथा काफी रोचक अंदाज में कहता है. रावण द्वारा सीता के अपहरण पर उपन्यास खत्म हो जाता है. सीता की अनन्य विश्वस्त, सखी, सलाहकार, सहायक और मिथिला की सेनापति समीचि के, रावण के साथ मिले होने का चौंकाने वाला रहस्योद्घाटन भी ठीक अंत में होता है.
एक तरफ रावण द्वारा बलात अपहरण और दूसरी तरफ समीचि के विश्वासघात से सदमें में आई सीता को दिखाते हुए, रोमांचक अंत के साथ यह उपन्यास, अगले अंक के इंतजार में पाठकों को छोड़ देता है. उर्मिला गुप्ता का बेहतरीन अनुवाद, ‘सीता’ को अनुदित रचना महसूस नहीं होने देता. धार्मिक पात्रों को एक नए, सजीव और विश्वसनीय रूप में देखने, जानने और पढ़ने की इच्छा रखने वालों के लिए यह एक बेहतरीन उपन्यास है.
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