महज 1400 साल पहले दुनिया में आने वाला इस्लाम इस समय दुनिया का सबसे तेज़ी से फैलने वाला धर्म है. और इस्लामोफोबिया यानी इस्लाम से डर पिछले करीब डेढ़ दशक में दुनिया के सामने परोसा गया सबसे बड़ा संकट. इस धर्म के बारे में ये दोनों बातें परस्पर विरोधाभासी हैं. अगर इस्लाम इतना ही डरावना है तो इतनी तेज़ी से दुनिया भर में फैल क्यों रहा है? और अगर इतना आकर्षक है कि दुनिया भर के लोग इसे अपना रहे हैं तो इसे न मानने वालों में इसके प्रति इतना डर और भ्रम कैसे भर गया है?
इस सवाल की पड़ताल करने पर इस्लाम, उसके मानने वालों और न मानने वालों की तरह-तरह की राय सामने आती हैं. सबसे पहले हम उन बिंदुओं को समझने की कोशिश करते हैं जो इस्लाम को बहुत आकर्षक बनाते हैं.
दिल्ली की साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे काबुल के अली अमानी इस बारे में कहते हैं, ‘क्योंकि इस्लाम ज्यूडाइज़्म और क्रिश्चियेनिटी के बाद आया इसलिए इसमें इन दोनों धर्मों की अच्छी बातों को शामिल किया गया. सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आने के बाद आठवीं शताब्दी के खलीफाओं ने अरस्तू आदि ग्रीक दार्शनिकों के काम का अरबी में अनुवाद कराया, इसका भी उस पर बहुत असर रहा. हालांकि एक ईश्वर को मानने वाली ईसाइयत और यहूदी धर्म वहां पहले से पहुंच चुके थे. लेकिन अरब प्रायद्वीप के लोग इतने ज़्यादा कबीलों, समूहों, देवताओं और खुदाओं में बंटे और उलझे थे कि कोई बड़े कद का धार्मिक नेता ही उन्हें एक कर सकता था. ऐसे में मुहम्मद साहब एक ईश्वर वाला एक ऐसा नया धर्म लेकर सामने आये जिसमें सब तरह के लोगों के लिए जगह थी, सभी के लिए बराबरी का भरोसा था, न्याय था.’ अली के मुताबिक यही बराबरी और न्याय का भरोसा आज भी इस्लाम को आकर्षक बनाता है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ईरान की जियोपॉलिटिक्स पर शोध कर रहीं दीपिका सारस्वत इस्लाम के प्रति आकर्षण को और स्पष्ट करते हुए कहती हैं, ’इस्लाम एक मॉडर्न रिलिजन है. अगर सिद्धांत के आधार पर देखें तो यहां कोई कास्ट सिस्टम, कोई वर्ण-व्यवस्था, कोई हाइरार्की नहीं है. इसमें सब बराबर हैं. यहां आपके और अल्लाह के बीच में कोई नहीं है. आपको सिर्फ अल्लाह के आगे झुकना है, उसका कहा मानना है. कोई और अथॉरिटी नहीं है.’
इस्लाम के ये सिद्धांत मॉडर्न युवाओं को अपनी ओर खींचते हैं. ब्रिटेन की प्रतिष्ठित पत्रिका न्यू स्टेट्समैन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच ब्रिटेन में एक लाख से अधिक लोगों ने इस्लाम अपनाया. इन आंकड़ों में भी खास बात यह है कि इनमें 75 फीसदी महिलाएं थीं.
ब्रिटेन की कामकाजी महिलाओं ने इस्लाम को क्यों अपनाया, डेलीमेल की एक 2010 की रिपोर्ट इसकी पड़ताल करती है. इनमें से कई महिलाओं ने इस्लाम इसलिए अपनाया क्योंकि वह उनकी ज़िंदगी को एक बेहतर मकसद दे रहा था जबकि कई महिलाओं ने सिर्फ इसीलिए धर्म-परिवर्तन किया क्योंकि उनका जीवनसाथी एक मुसलमान था. कई श्वेत महिलाओं के इस्लाम अपनाने का कारण यह भी था कि कुरान की शिक्षाओं में बड़ों और महिलाओं की इज़्ज़त, परिवार और समाज की ज़िम्मेदारी उठाने जैसे मूल्यों को सीधे महत्व दिया गया था, जबकि पश्चिमी जगत में ये मूल्य अपनी जगह खोते जा रहे हैं.
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि ब्रिटेन में नई सदी के पहले दशक में इस्लाम अपनाने वाले लोगों में से लगभग 50 फीसदी लोगों ने बाद में अपना यकीन इसमें खो दिया. ऐसे लोगों ने मिलकर ब्रिटेन में बाकायदा ‘काउंसिल ऑफ एक्स मुस्लिम्स’ बनाई है, जहां ये लोग इस्लाम के साथ जुड़े अपने अनुभवों को साझा करते हैं.
तो हम देखते हैं कि 1400 साल बीत जाने के बाद भी इस्लाम अब तक आकर्षक तो है लेकिन इसके साथ अब कुछ ऐसा भी जुड़ गया है जो इसके बारे में लोगों को दूसरी तरह से सोचने पर भी मजबूर कर रहा है. इस सवाल का जवाब अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से देते हैं. जेएनयू से पीएचडी कर रहीं इस्लामिक स्कॉलर शीबा असलम फहमी जवाब देने से पहले एक सवाल करती हैं, ‘क्या आपका या आपके परिवार और दोस्तों में से किसी का मुकदमा किसी मुसलमान के साथ चल रहा है? क्या किसी मुसलमान ने आपके साथ कोई ऐसा दुर्व्यवहार किया है जो एक हिंदू नहीं कर सकता था? उनका कहना है कि अपराधी किसी भी धर्म से हो सकता है और अभी जो इस्लामोफोबिया दिखाई दे रहा है वह अमेरिका की देन है.
अमेरिका इस्लाम को इस तरह के दुश्मन के तौर पर कैसे पेश कर सका, इसे समझने में दीपिका हमारी मदद करती हैं. वे बताती हैं कि ईरान में 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति ने इस्लाम को एक मजबूत राजनीतिक विचारधारा के तौर पर पेश किया.
‘ये क्रांति ईरान पर शासन कर रहे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नीतियों वाले शाह के खिलाफ थी, जिसे अमेरिका का संरक्षण प्राप्त था. 1953 में अमेरिका और ब्रिटेन ने एंग्लो-ईरानियन ऑइल कॉरपोरेशन का राष्ट्रीयकरण करने वाले लोकप्रिय प्रीमियर मोसादिक को हटाकर शाह को गद्दी दे दी. मुहम्मद रज़ा शाह पहलवी ने अमेरिका के इशारे पर ईरान में बढ़ती कम्युनिस्ट विचारधारा को कुचलने में पूरी ताकत लगा दी. सऊदी अरब और ईरान की राजशाही पश्चिम एशिया और अरब जगत को कम्युनिज़्म और सोवियत प्रभाव से दूर रखने के लिए अमेरिका के हथियार थे. राजनीतिक दमन के उस दौर में अयातुल्ला खोमेनी जैसे धार्मिक नेता को भी ईरान से निर्वासित कर दिया गया.’
‘शाह की सीक्रेट पुलिस – सवाक - द्वारा राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट राजनीतिक खेमों के क्रूर दमन को देखते हुए खोमेनी और फ्रांस के सॉरबॉर्न से पढ़कर निकले अली शरियती जैसे समाजशास्त्रियों ने इस्लाम को प्रतिरोध और क्रांति की विचारधारा के रूप में पेश किया. उन्होंने बताया कि मुसलमानों को ज़ुल्म करने वालों के खिलाफ खड़ा होना होगा क्योंकि इस्लाम उन्हें ज़ुल्म सहने की इजाज़त नहीं देता. शिया बहुल ईरान को उन्होंने बताया कि करबला का युद्ध भी यज़ीद के गलत तरह से सत्ता हथियाने के खिलाफ प्रतिरोध था. इसीलिए अमेरिका के साम्राज्यवाद और राजशाही के खिलाफ ईरानियों का प्रतिरोध उनका धार्मिक कर्तव्य बन गया और ईरान ने इस्लामिक क्रांति को सफल होते देखा.’
दीपिका बताती हैं कि इस क्रांति ने न सिर्फ अमेरिका को बल्कि सऊदी अरब व अन्य खाड़ी के ऐसे देशों को भी डरा दिया जहां शुरुआत से ही राजशाही थी. इस्लाम की इस नई व्याख्या में राजशाही एक गलत व्यवस्था थी क्योंकि राजा को उन्होंने ताग़ूद करार दिया. ताग़ूद का अर्थ है ऐसी ताकत जो एक इंसान को अल्लाह के अलावा किसी और का प्रभुत्व मानने पर बाध्य करती है. ईरानियों की इस नई क्रांतिकारी व्याख्या को काटने के लिए सऊदी अरब ने अपने अपरिवर्तनवादी सलफी-वहाबी इस्लाम का प्रचार शुरू किया और अमेरिका की मदद करते हुए अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मध्य एशिया और बाकी विश्व की मस्जिदों और मदरसों में पैसा लगाया.
‘सोवियत काफिरों’ से लड़ने के सऊदी अरब के पैट्रो-डॉलर्स, पाकिस्तान की आईएसआई और अमेरिकी हथियारों के दम पर अंतर्राष्ट्रीय जेहाद की फसल हुई जिसके बाद दुनिया ने अफगानिस्तान में अरबी, पाकिस्तानी, येमनी और सूडानी लड़ाकों को लड़ते देखा. फिर यूएसएसआर के पीछे हटने के बाद स्थानीय लड़ाकों से लड़कर उन पर काबू पाने के लिए भी तालिबान को सऊदी अरब और पाकिस्तान का समर्थन मिला, जिसे अमेरिका ने भी देखकर अनदेखा किया. इसके बाद संकीर्ण, कट्टरपंथी, मध्ययुगीन कानून अफगानिस्तान का नया निजाम बन गये. इसके चलते इस्लाम की छवि दुनिया के सामने खराब होनी शुरू हो गई.
अमेरिका पर हुए 9/11 के हमले ने इस्लाम को पूरी तरह से आतंकवाद से जोड़ दिया. 11 सितंबर को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं लेकिन सच जो भी था उसे पीछे छोड़ मीडिया में इस्लाम आतंकवाद का पर्याय बन गया. पहले तालिबान को चुपचाप उभरते देखने वाले अमेरिका ने 9/11 के बाद उसी तालिबान से निपटने के लिए अफगानिस्तान को तहस-नहस कर दिया.
इस बारे में शीबा असलम एक और बात कहती हैं, ’9/11 की घटना कैसे हुई इस पर अमेरिका का वर्जन संदेहास्पद है. इसके अलावा विश्वस्तर पर जो भी आतंकी घटनाएं हुईं वो सिर्फ हिंसा का स्पिलओवर थीं. वरना बोको हराम, आईएसआईएस या तालिबान जैसे सभी संगठन सिर्फ मुसलमानों को ही मार रहे हैं.’
पर यह भी उतना ही सच है कि मुसलमान इसी दुनिया का हिस्सा हैं और उनका कत्लेआम चाहे इस्लामिक संगठन ही करें या कोई और, इससे सिर्फ एक डरावनी तस्वीर ही बन सकती है.
जम्मू-कश्मीर पुलिस में अधिकारी इमरान फारूख भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, ‘इस्लाम के अलग-अलग फिरकों के बीच की हिंसा बेशक इस्लाम को डराने वाला धर्म बना देती है, जबकि असल में इस्लाम हिंसा की बात नहीं करता. पर आईएसआईएस जैसे संगठनों द्वारा की जाने वाली हत्याएं किसी को भी डरा सकती हैं,’
इसके अलावा वे उदारपंथी मुसलमानों की इस तरह की हिंसा पर चुप्पी को भी इस्लाम के प्रति डर के बढ़ते जाने का कारण मानते हैं. ‘ये चुप्पी भी रेडिकल इस्लाम को बढ़ने की जगह दे रही है जो कि पूरी तरह राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली अवधारणा है’ इमरान कहते हैं.
यहां ‘रेडिकल इस्लाम’ जुमला अपने आप में ही बहस का मुद्दा बन जाता है. (अमेरिका में ट्रंप व रिपब्लिकन्स को यह जुमला बहुत पसंद है जबकि ओबामा प्रशासन ने कभी इसका इस्तेमाल नहीं किया. आतंक के खिलाफ लड़ाई में उन्होंने हमेशा एक्स्ट्रीमिज़्म से लड़ने की बात की.) क्योंकि इस्लाम के आगे रेडिकल शब्द जोड़ने का अर्थ है कि आप एक धर्म को एक विशेष नज़रिए से जोड़ रहे हैं. जबकि एक ही धर्म का दुनिया भर में अलग-अलग व्याख्याओं के हिसाब से पालन किया जा रहा है. इस नज़रिए से रेडिकल धर्म नहीं हो सकता, उसे मानने वाले हो सकते हैं.
खैर, इस्लाम को मानने वालों के डराने वाले पहलू पर अली अमानी एक और दिलचस्प बात कहते हैं. वे कहते हैं कि इस्लाम पैगंबर मुहम्मद को आखिरी पैगंबर और इस्लाम को आखिरी और इकलौता सही धर्म बताता है जो इंसान को ईश्वर तक ले जाता है. इस्लाम को न मानने वालों को काफिर और भटका हुआ मानने की अवधारणा, मुसलमानों को खुद को औरों से बेहतर मानने की वजह दे देती है. यहीं से असंतोष और हिंसा का रास्ता खुलता है और हिंसा से डर का. इस्लाम को इकलौता सच्चा धर्म मानने के साथ-साथ यह भी माना गया है कि एक दिन यह पूरी दुनिया में फैल जाएगा और सभी काफिर घुटने टेक देंगे. इस बात को मुसलमान अपने पक्ष में देखते हैं और गैर-मुसलमान अपने खिलाफ. इस विचार को जहां भी ज़ोर देकर सामने रखा जाता है या इस पर अमल किया जाता है हिंसा के लिए ज़रूरी परिस्थितियां पैदा होने में देर नहीं लगती.
अभी तक हमने सामाजिक संरचना में इस्लाम और उसके डर को समझा पर व्यक्तिगत स्तर पर इस डर के बारे में बनारस की युवा उद्यमी सना सबा छोटी और आसानी से समझ आने वाली बात कहती हैं. ‘इस्लाम में प्यार, दयालुता और आपसी सम्मान की बात की गई है. आपका प्रार्थना करना, खास तरह के कपड़े पहनना सब कुछ अल्लाह के लिए आपके प्यार का नतीज़ा है. लेकिन जब किसी खास तरह की जीवन शैली या कपड़ों को आपके ऊपर जबर्दस्ती थोपा जाने लगता है तो प्यार बैकसीट ले लेता है और डर सबकुछ तय करने लगता है. फिर आपका धर्म आपको आपके समाज से स्वीकृति दिलाने का एक ज़रिया भर रह जाता है.’ इस्लाम को अपनाकर उसे छोड़ने वाले कुछ लोग भी असे छोड़ने के पीछे कुछ इसी तरह की वजहें बताते हैं.
तस्वीर सना के जितनी छोटी हो या बड़ी हम देख सकते हैं कि जब भी इस्लाम का इस्तेमाल राजनीतिक या किसी भी वजहों से कुछ थोपने के लिए हुआ, यह एक डराने वाला धर्म बन गया. पर ऐसा सिर्फ इस्लाम तक ही सीमित नहीं है. राजनीति को किसी भी धर्म के साथ जोड़ा जाए, धर्म अपना उदार स्वरूप खो देता है. इसकी ताजा बानगी हम भारत में हिंदू धर्म की प्रकृति में होते बदलाव के रूप में देख रहे हैं.
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