खाने और महिलाओं के बारे में जब मैं सोचती हूं तो मुझे दूरदर्शन के दिनों के दो टीवी एड याद आते हैं. पहला किसी फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन था. इसमें एक लड़की की सहेलियां उसे छेड़ते हुए कहती हैं - ‘ज़्यादा खाओगी तो मोटी हो जाओगी.’ दूसरा शायद किसी खाना पकाने के तेल का था. उसमें एक पुरुष अपने दफ्तर में बड़ा स्टील का टिफिन खोलता था और पीछे से वॉइस ओवर सुनाई पड़ता है - ‘हम कमाते क्यों हैं, खाने के लिए...’ मुझे लगता है कि ये दो विज्ञापन ही एक घर में खाने की ‘पॉलिटिक्स’ के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं. सालों पुराने इन विज्ञापनों को याद करते हुए मैं अब भी अपने आसपास के हालातों में कोई बड़ा बदलाव नहीं महसूस कर पाती हूं.

हमारे समाज में अमूमन खाना घरों की महिलाएं ही बनाती हैं, चाहे वे घर में ही रहती हों या कामकाजी हों. हालांकि, छोटी जगहों पर भी अब महिलाएं पति का इंतजार किये बिना खाना सीख चुकी हैं, फिर भी खाने को लेकर वे उतनी दृढ़ और मुखर अब तक भी नहीं हो पाई हैं. आज भी हमारे यहां की महिलाएं खाने के समय कई चीज़ें अनजाने ही सोच लेती हैं - जैसे घर के पुरुषों ने खाया या नहीं, या फिर उन्हें खाते वक्त कौन-कौन देख रहा है और जज कर रहा है.

कई बार हम खुद ही अपने आप को जज करने लगती हैं कि कहीं हम ज़्यादा तो नहीं खा रहीं. या फिर कोई ऐसी चीज़ तो नहीं खा रहीं जो घर के पुरुषों को पसंद है. ऐसा होने की स्थिति में ज्यादातर लड़कियां वह चीज पुरुष सदस्य के लिए छोड़ देती हैं. लेकिन पुरुषों के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं. उन्हें अगर भूख लगी है या फलां चीज़ खाने की इच्छा है तो वे बिना ऐसी कोई बात सोचे उसे खा सकते हैं. अगर रखते भी हैं तो ऐसा करते वक्त वे ज्यादा से ज़्यादा अपनी ज़ेब का खयाल ही रखते हैं.

लेकिन हमारे समाज में महिलाओं का जो स्थान है उसने महिलाओं के खाने को दुनिया भर की फिक्र और अपराधबोध से जोड़ दिया है. बुरा यह है कि यह स्थिति सिर्फ दो पीढ़ी पुरानी बुज़ुर्ग महिलाओं की नहीं, युवा प्रगतिशील महिलाओं की भी है. हालांकि पिछले कुछ समय में यह थोड़ी कम हुई है, पर है.

सबसे पहले मैं अपनी दादी की बात करुंगी, जिनके मनोविज्ञान को मैंने करीब से देखा है. करीब सत्तर साल की मेरी दादी आज भी खाने को लेकर सहज नहीं हैं. विवाह के बाद कई दशकों तक उन्होंने अपने पोषण और खाने को अपनी प्राथमिकताओं के आखिरी पायदान पर रखा. एक सम्मिलित परिवार में उन दिनों (आज भी) बहू से यही अपेक्षा की जाती थी कि वह सारा दिन मशीन की तरह काम करे. ऐसे में अपने लिए कुछ भी करना, जिसमें खाना भी शामिल था, उनके लिए एक अपराध से कम नहीं था. घर के सारे काम करने और पुरुषों को खिला चुकने के बाद ही वे खाना खा सकती थीं. इतने पर भी दूध-दही-घी जैसे पोषक खाद्य महिलाओं के लिए नहीं थे. उन्हें हमेशा यही सिखाया जाता था कि पुरुष कमा कर लाते हैं या खेतों में ज़्यादा मेहनत करते हैं तो उन्हें ही ऐसी चीजें खाने का अधिकार है. कुछ बहुएं सिर्फ अपनी सास या घर की अन्य महिलाओं की नज़र में महान और त्यागशील दिखने के लिए खुद ही इन चीज़ों से किनारा कर लेती थीं.

आज जब मेरी दादी बुज़ुर्ग हैं, और हमारी प्राथमिकता हैं. रसोई की ज़िम्मेदारी उनकी अगली पीढ़ी पर है तो अब भी उन्हें सुबह का नाश्ता या शाम का खाना समय से खाने में दिक्कत होती है. वे वक्त से खाने में आनाकानी करती हैं कि जैसे ऐसा करके कोई गलत काम कर देंगी.

खाने के प्रति आज की पीढ़ी की सोच भी मेरी दादी से ज्यादा अलग नहीं है. जेएनयू से एमफिल कर रही प्राची के घर में उसके मां, पापा, एक भाई और एक बहन है. प्राची बताती हैं कि उनके घर में खाने के वक्त पहली थाली पापा के लिए परोसी जाती है और दूसरी भाई के लिए. जबकि उनका भाई तीनों बच्चों में सबसे छोटा है. सिर्फ यही नहीं, अगर भाई या पापा को खाने में कोई डिश ज़्यादा पसंद आ जाए तो महिलाओं के हिस्से में से कटौती करके वह चीज उन्हें दे दी जाती है.

प्राची कहती हैं कि उन्हें इन सब बातों पर बहुत गुस्सा आता था. वे अक्सर इस बात पर अपनी मां से झगड़ पड़ती थीं. लेकिन उऩकी मां उन्हें हमेशा यही तर्क दिया करती थीं कि पुरुष कमाकर लाते हैं इसलिए उन्हें पहले परोसना चाहिए. प्राची इसके असर की बात करते हुए कहती हैं, ‘भले ही मैं हमेशा से इस तरह की सोच का प्रतिरोध करती आई हूं. लेकिन बचपन से मैंने घर में जो देखा है, उसका असर न चाहते हुए भी मेरे व्यवहार में दिख जाता है. मैं खुद भी कई बार खाना खाते वक्त वो चीज़ अपने भाई या पुरुष मित्र की थाली में ज़्यादा परोस देती हूं जो मुझे खुद काफी पसंद है.’

राजस्थान के छोटे से गांव में पली-बढ़ी और मुंबई में ब्याही रेखा सुथर का अनुभव भी ऐसा ही है. रेखा बताती हैं कि ‘हम महिलाओं को न सिर्फ ये सिखाया जाता है कि पुरुषों के बाद बचा-हुआ खाना है बल्कि हम इस परंपरा को तोड़ने की हिम्मत न कर पाएं इसके लिए हमें पाप-पुण्य के तमाम ढकोसलों में भी फंसा दिया जाता है.’ रेखा सवाल करती हैं कि ऐसा क्यों है कि ‘तमाम तरह के व्रत-त्यौहार महिलाओं को ही करने हैं और हर व्रत में एक खास तरह का खाना, एक तय वक्त पर, तय मात्रा में ही खाना है या बिलकुल भी नहीं खाना है.’ रेखा की इन बातों से पता चलता है कि हम तमाम स्त्री विमर्श के झंडे गाढ़ लें, लेकिन देश की एक आधी आबादी के एक बड़े हिस्से को सबसे पहले उसकी पहली जरूरत - भोजन – के प्रति सहज बनाने की जरूरत है.

भोपाल में एक प्ले स्कूल चलाने वाली पुष्पा शर्मा कहती हैं कि ‘मान लिया कि मैं अपनी मर्जी के वक्त पर नहीं खा सकती. लेकिन अगर मैं ही खाना पकाती हूं तो भी मैं अपनी मर्जी का खाना क्यों नहीं बना सकती! पहले सास-ससुर या पति की मर्जी का खाना बनाती थी और अब बच्चों की मर्जी चलती है.’ पुष्पा ही नहीं, लगभग हर महिला को खाना बनाने में अपनी पसंद पर घर के दूसरे सदस्यों की पसंद को प्राथमिकता देनी पड़ती है. कुछ महिलाओं से बातचीत के दौरान पता चलता है कि शादी से पहले उनके परिवार में जिस तरह का खाना बनता था, उन्हें वही पसंद था. लेकिन ससुराल में आकर उन्होंने खुद को पति और परिवार के अन्य सदस्यों की पसंद के मुत्बिक ढाल लिया है. मसलन दिल्ली की एक हाउस वाइफ सुधा रानी को शादी से पहले कम तेल-मसाले वाला खाना खाने की आदत थी लेकिन ससुराल में सभी को काफी तीखा और तला हुआ पसंद है. वे कहती हैं कि घर में यूं ही इतने काम होते हैं कि दो तरह का खाना बनाना न तो आसान है और न ही परिवार के बाकी सदस्यों को ही यह पसंद आएगा.

इसके अलावा हर समय घर का काम करते-करते महिलाएं इतनी ऊब जाती हैं कि मौका हो तो भी वे अपनी पसंद का खाना नहीं बनाना चाहती हैं. साठ वर्षीय मिथिलेश कुमारी तीन बेटियों की शादी के बाद अब घर पर अकेली काम करने वाली बची हैं. वे कहती हैं ‘अगर पति एक टाइम के लिए बाहर चले जाते हैं तो मैं खिचड़ी खाकर काम चला लेती हूं और कभी-कभी तो मैगी ही.’ मिथिलेश हंसते हुए बताती हैं कि उन्हें खाना बनाते-खिलाते लगभग आधी सदी बीत गई है. हालांकि ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर आई थकन की झलक देखी जा सकती है.

ऐसा नहीं है कि बदलाव की हवा इस मामले में नहीं चल पाई है. कुछ ऐसी महिलाएं भी हैं जो इस गुलामी की मानसिकता से आज़ाद हो चुकी हैं पर उनकी गिनती उंगलियों पर गिनने लायक ही है और सिर्फ महानगरों तक सीमित है. पब्लिशिंग इंडस्ट्री में काम करने वाली शिखा अकेली रहती हैं और कहती हैं कि ‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग मेरे खाने के बारे में क्या सोचेंगे. मेरे सर्किल की कई लड़कियां ऑफिस या बाकी पार्टियों में जान-बूझकर कम खाती हैं ताकि किसी को ये न लगे कि उन्होंने ज़्यादा खाया. मैं उतना खाती हूं जितनी मुझे भूख हो. खाना मेरी बेसिक नीड है और शौक भी, दिखावे के लिए कम खाना मुझे बेवकूफी जैसा लगता है.’ शिखा के अलावा कई अध्ययन भी बताते हैं कि न सिर्फ हमारे देश में बल्कि विदेशों में भी महिलाएं पुरुषों और अन्य महिलाओं की उपस्थिति में कम खाती हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे ज़्यादा फैमिनिन लगेंगी.

खाने को लेकर मेरी अपनी सोच भी काफी उलझी हुई रही है. पिछले दिनों मैं दिल्ली के एक मॉल में दोस्तों के साथ खाने के लिए बैठी, ऑर्डर का इंतज़ार करते वक्त सामने चल रहे टीवी पर विज्ञापन देख रही थी. विज्ञापन किसी डिज़ायनर ब्रांड का था, तीखे नक्श और गोरी चमड़ी वाली, दुबली-पतली लड़कियां उन कपड़ों को पहन कर अदा से चल रही थीं. तभी हमारी टेबल पर खाना आ गया, ढेर सारी क्रीम और चीज़ वाला मेक्सिकन खाना. बहुत मन से वह खाना मंगाया गया था लेकिन उस विज्ञापन को देखने के बाद वही मन कसैला हो गया. मैं सोच रही थी कि क्या किया जाना चाहिए! एक तरफ तो हम लड़कियों पर बाज़ार का इतना दवाब है कि हमें उन मॉडल्स की तरह दुबले पतले दिखना है, और दूसरी तरफ वही बाज़ार हमें दुनिया भर का लजीज़ खाना परोस रहा है. यह वाकया महिलाओं और खाने के रिश्ते का एक और आयाम बताता है.

महिलाओं और उनके खाने के बीच उनका काम, समाज में उनकी स्थिति, उनके पूर्वाग्रह, घर के वातावरण और रीति-रिवाज़ों से लेकर बाज़ार तक बहुत कुछ आ जाता है. इन सबके चक्कर में वे भूल जाती हैं कि उन्हें पोषण की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी पुरुषों को. कई बार तो उनसे ज्यादा क्योंकि उन्हें बच्चा पैदा करना है, उन्हें माहवारी होती है, इसके अलावा कुपोषण से उनके ऑस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारी की चपेट में आने का खतरा भी ज़्यादा होता है. इन सब वजहों से महिलाओं को अपने खाने का और ज़्यादा खयाल रखना चाहिए. लेकिन यह बात समझने में हम अब तक असफल रही हैं और यही वजह है कि हमारे देश की लगभग 45 फीसदी महिलाओं को एनीमिया है और कुपोषित बच्चों की संख्या में भारत विश्व में सबसे ऊंचे पायदान पर है.