यूं तो चर्चा राजनैतिक है लेकिन इसकी शुरुआत एक हिंदी फिल्म से करते हैं. करीब 10 साल पहले रिलीज हुई चक दे इंडिया का एक दृश्य आपको याद होगा जब विश्व कप में शामिल होने के लिए महिला हॉकी टीम के सामने पुरुष हॉकी टीम को हराने की शर्त रखी जाती है. हालांकि लड़कियां इस मैच को जीतने में असफल रहती हैं, लेकिन उनका जज्बा देखकर खेल की शुरुआत में उनका मजाक बना रहे लोग भी उनकी तारीफ किए बिना नहीं रह पाते. चयनकर्ता कांटे के मुकाबले में लड़कियों की हार को उनकी नैतिक जीत के तौर पर देखते हैं.

अब बात गुजरात चुनावों की जहां 99 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी लगातार छठवीं बार बहुमत हासिल करने में सफल रही है. लेकिन मतगणना वाले दिन जिस तरह के घटते-बढ़ते रुझान टीवी स्क्रीन पर दिखाई दिए वे बताते हैं कि इस बार गुजरात में मुकाबला टक्कर का था. पिछले दो दशक में मैदान से तकरीबन गायब हो चुकी कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन पर राजनीतिकार उसकी सराहना कर रहे हैं और इसका पूरा श्रेय हाल ही में पार्टी अध्यक्ष बने राहुल गांधी को देते हैं.

लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो इन चुनावों में राहुल गांधी खुद जिस नेता से खासे प्रभावित हुए वे हैं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत. हालांकि गुजरात में अशोक गहलोत की राह आसान नहीं थी. उनके वहां जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस के तीन बड़े नेता एक-एक कर के पार्टी और इन चुनावों से दूर होते गए और संयोगवश हर बार इसके तार गहलोत से जुड़ते दिखे. लेकिन अशोक गहलोत हर झटके के बाद पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरे.

इस साल जब गुरुदास कामत की जगह अशोक गहलोत को गुजरात का चुनाव प्रभारी बनाकर भेजा गया तो उनके विरोधियों में एक खुशी देखी गई थी. दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने गृहराज्य गुजरात में 150 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा कर पहले ही विपक्ष का मनोबल लगभग तोड़ चुके थे. माना गया कि ऐसे में गुजरात जैसे डूबते जहाज पर भेजकर कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत को ठंडे बस्ते में डालने का काम किया है. इसके कुछ ही महीने बाद हुए राज्यसभा चुनाव से पहले जब विधायकों का एक महत्वपूर्ण गुट कांग्रेस से बगावत कर गया तो यह बात सही होती दिखी. कांग्रेस के कद्दावर नेता रह चुके शंकर सिंह वाघेला के बयान, ‘मैंने अशोक गहलोत की वजह से ही अहमद पटेल को समर्थन नहीं देना तय किया है’ ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दीं.

लेकिन जैसे-तैसे अहमद पटेल की सीट के रूप में कांग्रेस अपनी लाज बचाने में सफल रही. जानकारों का कहना है कि उस समय कांग्रेस के बचे 43 विधायकों को एकजुट रखने में जिन लोगों की रणनीति पार्टी के बड़े काम आई उनमें अशोक गहलोत प्रमुख थे. अमित शाह ने अहमद पटेल की जीत को अपनी हार के तौर पर देखा और मिशन-150 को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया. भाजपा ने अपनी तैयारियां और मजबूत कर लीं. लेकिन तभी पाटीदार नेता हार्दिक पटेल एक बार फिर पूरी ताकत के साथ सूबे में सक्रिय हुए. दूसरी तरफ, पिछड़ी जाति वर्ग से अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवानी भी खुलकर भाजपा के विरोध में सामने आने लगे.

राजनीति में कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन का दोस्त होता है. लेकिन यहां समस्या यह थी कि अलग-अलग राजनैतिक और सामाजिक कारणों के चलते कांग्रेस अपने प्रमुख विरोधी संगठन के विरोधियों को दोस्त नहीं बना पा रही थी. जहां पाटीदारों के साथ कांग्रेस का इतिहास एक तरह से बहुत ही बुरा रहा था, वहीं वैचारिक अंतर होने की वजह से जिग्नेश मेवानी के भी पार्टी के साथ आने की संभावनाएं कम हीं थी. दूसरे ये तीनों ही युवा नेता गुजरात के उन अलग-अलग समुदायों से आते थे जो विभिन्न कारणों के चलते आपस में कई बार उलझ चुके थे. ऐसे में इन तीनों को एक साथ खुद से जोड़ पाना कांग्रेस के लिए दूर की कौड़ी था.

जानकार बताते हैं कि यही समय था जब अशोक गहलोत गुजरात में कांग्रेस के लिए संकटमोचक की तरह उभरे. हालांकि संगठन में अभी तक इस तरह की जिम्मेदारियां अहमद पटेल को सौंपी जाती रही थीं, लेकिन किन्हीं कारणों से इस बार गहलोत को यह काम सौंपा गया और वे इसमें सफल भी रहे. जानकार बताते हैं कि इसके बाद से ही पटेल और हाईकमान के बीच इन चुनावों को लेकर दूरियां बढ़ती गईं.

इसके बाद मौका था टिकट स्क्रीनिंग का. पार्टी से जुड़े लोगों के मुताबिक टिकट बंटवारे के लिए भले ही तीन लोगों की मुख्य कमेटी तय हुई थी, लेकिन उसमें सबसे ज्यादा अशोक गहलोत ही प्रभावी रहे. उन्होंने जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए विवादों में उलझे बिना अधिकतर सीटों का सफल आवंटन किया. गुजरात कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता हमें बताते हैं, ‘इससे पहले जितने भी चुनाव प्रभारी प्रदेश में आए उन पर पूर्वाग्रह के चलते या पैसे लेकर सीट देने के आरोप लगते थे. लेकिन गहलोत के मामले में ऐसा कुछ सुनने में नहीं आया. यह उनकी बड़ी उपलब्धि है.’ सूत्रों का कहना है कि स्क्रीनिंग प्रक्रिया में तवज्जो न मिलने की वजह से पार्टी प्रदेशाध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी नाराज होकर दिल्ली से सीधे अपने गांव चले गए और इसके तुरंत बाद उन्होंने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी थी. जानकारों के एक वर्ग ने एक-एक वरिष्ठ नेताओं के दूर होने को पार्टी का नुकसान माना, जबकि दूसरों ने इसे गुजरात में कांग्रेस के पुनरुत्थान के तौर पर देखा.

कांग्रेस की रिसर्च टीम के गुजरात कॉर्डिनेटर इरफान मोगल का कहना है कि अशोक गहलोत ने गुजरात में सबसे महत्वपूर्ण काम जमीन पर संगठन को मजबूत बनाने के तौर पर किया. वे बताते हैं, ‘गहलोत ने गुजरात में एक नया ढांचा तैयार किया जिसके हर स्तर से वे सीधे जुड़े हुए थे. वे पूरे चुनावों में नियमित तौर पर हम सभी से जीएसटी से लेकर आरक्षण तक प्रत्येक मुद्दे पर हर वर्ग के रुझान की जानकारी लेते रहे.’ भाजपा और कांग्रेस की कार्यशैली के अंतर के बारे में बात करते हुए इरफान बताते हैं, ‘भाजपा हर चुनाव में नए तरीके आजमाती है जबकि कांग्रेस आज भी अपनी परपंरागत शैली पर चलना पसंद करती है. लेकिन गहलोत एक ऐसे नेता हैं जो भाजपा की रणनीति को समझते हुए अपनी नीतियां तय करते हैं. तजुर्बे के लिहाज से देखा जाए तो वे काफी वरिष्ठ हैं, लेकिन उनके प्रबंधन के तरीके बिल्कुल नए. पार्टी को उन जैसे लोगों की जरूरत है.’

बात शाहरुख खान की फिल्म से शुरु हुई थी. उन्हीं की एक दूसरी फिल्म का चर्चित संवाद है, ‘हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं.’ गुजरात नतीजों के बाद से अशोक गहलोत अपने बयानों में लगातार कह रहे हैं कि भाजपा जीत कर भी हार गई और कांग्रेस की हार में भी जीत है. यह जानना आपको दिलचस्प लग सकता है कि गहलोत के पिता एक पेशेवर जादूगर थे जिनसे उन्होंने बचपन में ही बाजीगरी का हुनर सीख लिया था.