झारखंड की सुरुजमुनि मरांडी के उदाहरण से समझा जा सकता है कि क्यों दस साल बाद भी जननी सुरक्षा योजना एक बड़ी हद तक सिर्फ कागजों पर ही अच्छी है.
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की वेबसाइट पर दर्ज जानकारियां पढ़कर लगता है कि अपने प्रसव के लिए सुरुजमुनि मरांडी जैसी महिलाओं जरा भी चिंता नहीं करनी चाहिए. गरीब तबके से ताल्लुक रखने वाली हर महिला का प्रसव अस्पताल के जोखिम रहित माहौल में हो और उसे अपनी या बच्चे की देखभाल में लगने वाले खर्च की कोई चिंता न करनी पड़े, इसके लिए जननी सुरक्षा योजना और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम के तहत हर व्यवस्था है--प्रसूता को घर से अस्पताल लाने-ले जाने की. सामान्य प्रसव होने पर तीन दिन और ऑपरेशन होने पर सात दिन अस्पताल में देखभाल की, इस दौरान जच्चा के लिए पौष्टिक खाने की और नवजात के बीमार होने पर उसके इलाज की भी.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में आज भी हर साल करीब 56 हजार महिलाएं प्रसव के दौरान ज्यादा खून बहने या संक्रमण जैसी वजहों से मर जाती हैं. हालांकि कई जानकार इस संख्या को आधिकारिक आंकड़े से कहीं ज्यादा मानते हैं. इसी तरह हर साल सात लाख बच्चे जन्म के पहले हफ्ते में ही दम तोड़ देते हैं. मातृ और शिशु मृत्यु दर के इस भयानक आंकड़े को कम से कम करना ही इन दोनों योजनाओं का उद्देश्य है. जननी सुरक्षा योजना 2005 में शुरू हुई थी जबकि जननी शिशु कल्याण कार्यक्रम की शुरुआत 2011 में हुई.
आज भी प्रसव होने के बाद के शुरुआती दो दिनों या कहा जाए तो सबसे ज्यादा खतरनाक दिनों में जच्चा-बच्चा की जान भगवान भरोसे ही रहती है.तो जो प्रावधान हैं उनके तहत होना यह चाहिए था कि गांव के स्वास्थ्य केंद्र से एक एंबुलेंस सुरुजमुनि को लेकर गोड्डा के सदर अस्पताल आती. सामान्य प्रसव होने पर उन्हें तीन दिन और ऑपरेशन होने पर सात दिन तक खाना और दवाइयां मिलतीं. उसके बाद जच्चा-बच्चा को एंबुलेंस में घर छोड़ दिया जाता. अस्पताल में प्रसव कराने के लिए ग्रामीण क्षेत्र की सुरुजमुनि को 1400 रुपये की आर्थिक सहायता भी मिलनी थी.
लेकिन सामुदायिक समाचार सेवा इंडिया अनहर्ड से जुड़ीं मैरी निशा की रिपोर्ट में सुरुजमुनि के साथ सब कुछ इसके उलट होता दिखता है. दरअसल जननी सुरक्षा योजना के 10 साल बाद भी हालात इस हद तक बुरे हैं कि झारखंड में किसी प्रसूता का सरकारी अस्पताल में भर्ती होकर अपने बच्चे के साथ सकुशल घर पहुंच जाना किसी चमत्कार जैसा ही लगता है. इंडिया अनहर्ड, वीडियो वॉलंटियर्स नाम के संगठन की पहल है जिसका मकसद है भारत के अलग-अलग इलाकों के उपेक्षित समुदायों की अनसुनी समस्याएं सामने लाना.
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अपने जैसी तमाम दूसरी महिलाओं की तरह प्रसव पीड़ा से कराहतीं सुरुजमुनि खुद ही किसी तरह सुबह 10 बजे गोड्डा के सदर अस्पताल पहुंची थीं. शाम के चार बजे तक कोई डॉक्टर उन्हें देखने नहीं आया. अस्पताल में मौजूद नर्स से इसकी वजह पूछने पर उनका कहना था कि जो डॉक्टर इंचार्ज हैं वे ऑपरेशन में व्यस्त हैं. उनकी जगह कोई दूसरा डॉक्टर भी तो होना चाहिए, यह पूछने पर जवाब आया, 'आप हमारे ऑफिस जाइए न, पता लगाइए किसकी ड्यूटी है.'
नियमों के मुताबिक प्रसूता के लिए सारी दवाइयों की व्यवस्था अस्पताल में होनी चाहिए. लेकिन नियम होना अलग बात है और उनका पालन अलग. नर्स ने सुरुजमुनि की मां को एक पर्चा लिखकर बाहर से दवाइयां लाने को कहा. दवाइयां अस्पताल से नहीं मिलनीं चाहिए, यह पूछने पर नर्स थोड़ा हड़बड़ा गईं. उन्होंने सुरुजमुनि की मां से पर्चा वापस लाने को कहा. फिर बोलीं, 'बोलना चाहिए था न कि फ्री वाली दवा चाहिए.' बाद में सफाई देने वाले लहजे में उनका कहना था कि सिर्फ वही दवाइयां बाहर से मंगवाई जाती हैं जो जरूरी हैं और अस्पताल के स्टॉक में नहीं हैं. अस्पताल में भर्ती दूसरी महिलाओं का भी कहना था कि अक्सर ही अस्पताल वाले पर्चा लिखकर दवाइयां बाहर से मंगाते हैं और मजबूरी में उनके साथ आए लोगों को ये लानी भी पड़ती हैं.
योजना के मुताबिक प्रसव के लिए भर्ती हुई महिला को खाना मिलना चाहिए. लेकिन सुरुजमुनि 24 घंटे तक भूखी पड़ी रहीं. यहां तक कि शौच जाने के लिए भी उन्हें पैसे देने पड़े.नियम यह भी कहते हैं कि प्रसव के लिए अस्पताल में भर्ती हुई महिला को सही वक्त पर खाना मिलना चाहिए. लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है. सुरुजमुनि 24 घंटे तक भूखी पड़ी रहीं. शौच जाने के लिए भी उन्हें पैसे देने पड़े. डॉक्टर की गैरमौजूदगी में नर्स के भरोसे ही प्रसव हुआ. नवजात का वजन लेने के लिए सर्दी के मौसम में जिस तरह उसे बेपरवाही के साथ बिना किसी कपड़े के ही लोहे से बनी गंदी और जंग लगी वजन मशीन पर रखा गया, उसे देखकर कोई भी सिहर सकता है. लेकिन गोड़्डा के सदर अस्पताल में यह आम बात है.
आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल 13 लाख से भी ज्यादा बच्चे जन्म के पहले साल में ही मर जाते हैं. इनमें से करीब सात लाख यानी आधे से भी ज्यादा जन्म के पहले हफ्ते में ही दम तोड़ते हैं और इनमें भी ज्यादातर मौतें जन्म के 48 घंटे के भीतर होती हैं. यही वजह है कि जननी सुरक्षा योजना और इसके साथ ही चलने वाले जननी शिशु कल्याण कार्यक्रम में यह व्यवस्था की गई है कि नर्स की सहायिका, जिसे इस इलाके में सहिया भी कहा जाता है, को प्रसव के बाद 24 घंटे तक जच्चा-बच्चा के साथ रहना होगा. लेकिन सुरुजमुनि और उनके जैसी तमाम महिलाएं इस सुविधा से वंचित हैं. इसकी अपनी वजहें हैं. सहायिका के रहने के लिए अस्पताल में कोई व्यवस्था नहीं होती. उन्हें मिलने वाला पैसा भी पांच से छह महीने के इंतजार के बाद मिलता है. यानी प्रसव होने के बाद के शुरुआती दो दिनों या कहा जाए तो सबसे ज्यादा खतरनाक दिनों में जच्चा-बच्चा की जान भगवान भरोसे ही रहती है.
कुल मिलाकर प्रसव की पूरी प्रक्रिया के दौरान आने-जाने और खाने-पीने की पूरी व्यवस्था सुरुजमुनि को अपने पल्ले से करनी पड़ी. उल्टे अस्पताल में सेवा के नाम पर उनसे ही करीब 400 रु वसूल लिए गए. हालत यह थी कि पैसे खत्म होने के बाद एक बार तो उन्हें मजबूरी में खुले में ही शौच जाना पड़ा. संस्थागत प्रसव के लिए आने वाली उनके जैसी न जाने कितनी महिलाओं की लगभग यही कहानी है. जहां तक 1400 रु की आर्थिक सहायता का सवाल है तो झारखंड में यह भुगतान न होने की खबरें आम हैं. कुछ समय पहले ही खबर आई थी कि राज्य में 65 हजार महिलाओं के जननी सुरक्षा योजना के नौ करोड़ रु बकाया हैं.
बताया जाता है कि जननी सुरक्षा योजना के तहत अलग-अलग राज्यों को हर साल आवंटित की जाने वाली रकम का आंकड़ा 1600 करोड़ रु से भी ऊपर पहुंच चुका है. लेकिन झारखंड उन राज्यों में से है जो प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु के मामले में तो आगे की पांत में हैं, लेकिन जननी सुरक्षा योजना के तहत आवंटित पैसे को खर्च करने के मामले में सबसे पीछे. उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक झारखंड में प्रति एक लाख प्रसव के दौरान 219 महिलाओं की मौत हो जाती है. पूरे देश के लिए यह आंकड़ा 178 है.
कुल मिलाकर देखें तो कहा जा सकता है कि प्रसव कराने के लिए सरकारी अस्पताल आने के बावजूद सुरुजमुनि बच गईं. उन्हें अपनी किस्मत को धन्यवाद देना चाहिए.
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