तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बाद भी देश, समाज और फॉर-प्रॉफिट कंपनियों को कामकाजी महिलाओं की इतनी ज़रूरत क्यों है कि वे इसके लिए अपनी नीतियां तक बदल रही हैं?
हर रोज़ आधे दिन के ख़त्म होते-होते ही हिम्मत और ताक़त जवाब देने लगती है. गृहस्थी के काम और ज़िम्मेदारियां सुरसा का मुंह हैं. आप चाहे हनुमान की तरह अपनी शक्तियों और आकार को कितना भी बढ़ाते चले जाएं, काम का आकार उसी अनुपात में बढ़ता चला जाता है. उस पर अगर आपको अपना करियर बचाने का फ़ितूर चढ़ा है तो फिर करेला नीम चढ़ा समझिए. फिर घर और दफ़्तर के बीच की दुनिया में सागर नहीं, अनंत महासागर बसता है.
कामकाजी मांओं को अपने साथ बनाए रखने के लिए सिटी बैंक ने घोषणा की है कि सैलरी के साथ-साथ एक लाख बत्तीस हजार रुपए का चाइल्डकेयर अलाउंस मांओं को दिया जाएगा
क्या किसी कामकाजी महिला की ज़िंदगी इतनी ही दुरूह और पेचीदा होती है? क्या घर-परिवार और दफ़्तर के बीच के दो जहान संभालना इतना ही मुश्किल है? तमाम मुश्किलातों और चुनौतियों के बाद भी कंपनियों-संस्थाओं को कामकाजी महिलाओं की इतनी ज़रूरत क्यों है कि वे इसके लिए अपनी नीतियां तक बदल रही हैं?
हाल ही में लिए गए कुछ बड़े फ़ैसलों पर नज़र डालते हैं:
  • सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट परिसर में डे केयर खोलने का फ़ैसला लिया, ताकि कोर्ट में काम करने वाली महिलाओं के लिए थोड़ी सी सहूलियत का बंदोबस्त किया जा सके. कई निचली अदालतों ने उसके बाद अपने परिसरों में क्रेश खोलने की मंशा जताई.
  • इधर प्रधानमंत्री ने स्त्री शक्ति की बात की और उधर डिपार्टपमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग ने प्रस्ताव रखा कि केन्द्र सरकार की इमारतों में क्रेश खोले जाएंगे.
  • कुछ साल पहले केन्द्र सरकार ने अपनी महिला कर्मचारियों के लिए छह महीने की मैटरनिटी लीव के अलावा तीन साल की चाइल्ड केयर की छुट्टी का प्रावधान शुरु किया.
  • दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में अपनी क्रेश सुविधा में साफ-सफाई को लेकर बाक़ायदा बहस ही शुरु कर दी. अपनी एडवाइज़री में कह दिया कि 'साफ-सुथरे और स्वस्थ' बच्चों को ही क्रेश में रखा जाएगा. इस एडवाइज़री की मंशा जाने क्या थी, लेकिन इससे डिस्क्रिमिनेशन की बू तो आती ही है.
और सबसे कमाल का फ़ैसला तो सिटीबैंक ने लिया. कामकाजी मांओं को अपने साथ बनाए रखने के लिए उसने घोषणा की है कि सैलरी के साथ-साथ एक लाख बत्तीस हजार रुपए का चाइल्डकेयर अलाउंस मांओं को दिया जाएगा. सिटीबैंक का यह कार्यक्रम सिर्फ़ भारत में काम कर रही महिला कर्मचारियों के लिए है. यह सुविधा दो बच्चों के लिए चार साल की उम्र तक दी जाएगी. भारत में सिटीबैंक के कर्मचारियों में 33 फ़ीसदी संख्या महिलाओं की है. इनमें से अधिकांश लीडरशिप पोज़ीशन तक पहुंचने से पहले ही नौकरियां छोड़ देती हैं. वजह वही रहती है, पीढियों पुरानी - बच्चों के लिए सपोर्ट सिस्टम का अभाव. ऐसे में मिलनेवाली ये अतिरिक्त राशि (जो करीब दस हजार रुपए प्रति महीने की होगी) उन महिलाओं को चाइल्ड केयर के और विकल्प देखने को प्रोत्साहित करेगी जो आया या क्रेश की मुंहमांगी मासिक राशि के आगे हार मानकर अपनी नौकरी छोड़ देने में ही भलाई समझती हैं.
एक काबिल ह्यूमन रिसोर्स को अपनी कंपनी की ज़रूरतों और नीतियों के हिसाब से ढालकर तैयार करना पांच से सात साल की लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होता है और कोई भी कंपनी उसे खोना नहीं चाहती
आख़िर सिटीबैंक को ये अतिरिक्त बोझ उठाने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? इसलिए क्योंकि वर्कफोर्स का जो बड़ा हिस्सा कंपनी में अपना योगदान देने के लिए पूरी तरह तैयार हो रहा होता है, वही अचानक पारिवारिक ज़िम्मेदारियों की वजह से कंपनी छोड़ देता है. एक काबिल ह्यूमन रिसोर्स को पहले ढूंढ निकालना, फिर उसे अपनी कंपनी की ज़रूरतों और नीतियों के हिसाब से ढालकर तैयार करना पांच से सात साल की लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होता है. कंपनी किसी भी ह्यूमन रिसोर्स में निवेश इस उम्मीद में करती है कि वह आनेवाले कई सालों तक अपने हुनर से उस इन्वेसटमेंट पर अपना रिटर्न देती रहेगी.
शादी के बाद हिंदुस्तान में लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि उनकी प्राथमिकताएं पूरी तरह बदल जाएं. उन प्राथमिकताओं में परिवार और ससुराल की ज़िम्मेदारियां सबसे ऊपर होती है. करियर लड़की का नहीं होता. उसका काम करना अक्सर मजबूरी का सबब माना जाता है. उनकी कंडिशनिंग ही ऐसी होती है कि काम को लेकर, या अपने करियर को लेकर वे अपने पुरुष सहयोगियों की तरह अग्रेसिव और फोकस्ड नहीं होतीं. लड़कियों का महत्वाकांक्षी होना, काम को प्राथमिकता देना, उनकी खामी मानी जाती है. उनका महत्वाकांक्षी होना उनकी ख़ुदगर्ज़ी मान ली जाती है.
कामकाजी मांएं आमतौर पर बच्चों को लेकर लापरवाह मानी जाती हैं. उनको लेकर जजमेंटल होने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. मां काम कर रही है तो बच्चों को लेकर लापरवाह होगी, यह आम धारणा है.
कामकाजी मांएं आमतौर पर बच्चों को लेकर लापरवाह मानी जाती हैं. उनको लेकर जजमेंटल होने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती - चाहे वो परिवार के लोग हों या अड़ोसी-पड़ोसी या बच्चों की वही टीचर, जो अपने बच्चों को छोड़कर स्कूल में पढ़ाने का काम कर रही है. मां काम कर रही है तो बच्चों को लेकर लापरवाह होगी, यह आम धारणा है. या फिर मां काम कर रही है तो बच्चे बेचारे 'किसी तरह पल रहे हैं' बस. बच्चे मां की मूल ज़िम्मेदारी होते हैं, घर भी. चाहे दफ़्तर में दस-दस घंटे मां और पिता दोनों क्यों न गुज़ार रहे हों. बस यूं समझ लीजिए कि एक मां काम करने का फ़ैसला करती है, तो वह पूरी क़ायनात से लड़ने और हर रोज़ एक नई चुनौती झेलने में लगी रहती है. यह चुनौती कामवाली के नहीं आने से लेकर बच्चे के बीमार पड़ जाने के बीच कुछ भी हो सकती है. यह चुनौती टाइम मैनेजमेंट, हस्बैंड मैनेजमेंट, किड मैनेजमेंट, ऑफिस मैनेजमेंट और कलीग मैनेजमेंट के इर्द-गिर्द भी घूमती है.
फिर भी महिलाओं की वर्कफोर्स में ज़रूरत तो है. कंपनियां भी यह समझने लगी हैं कि अपने हुनर, शिक्षा और मेहनत की वजह से महिलाएं एक सक्षम और उपयोगी वर्कफोर्स हैं. हालांकि जितनी तेज़ी से महिलाओं ने पिछले दो दशक में संगठित वर्कफोर्स में अपनी जगह बनाई, उतनी तेज़ी से टिकी रह नहीं सकीं. ऐसे में उनके हित में, और उन्हें वर्कफोर्स में बनाए रखने के लिए ऐसे छोटे-छोटे कदम कारगर साबित होंगे, ऐसी उम्मीद सिर्फ़ कंपनियों को ही नहीं, ह्यूमन रिसोर्स पर नज़र रखनेवाली बड़ी एजेंसियों को भी है. ऐसे फ़ैसलों से थोड़ी-बहुत उम्मीद एक कामकाजी मां को भी बंधती तो है ज़रूर!