प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक देश, एक चुनाव मुद्दे पर चर्चा के लिए आज बुलाई गई सर्वदलीय बैठक से कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने किनारा कर लिया है. कांग्रेस ने बैठक में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया. वहीं, बसपा अध्यक्ष मायावती ने कहा कि अगर ईवीएम के मुद्दे पर बैठक होती तो वे इसमें जरूर हिस्सा लेतीं. समाजवादी पार्टी का कहना है कि वह लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के विरोध में है. उधर, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी की राय है कि सरकार को पहले इस मुद्दे पर श्वेत पत्र लाना चाहिए. हालांकि, वाम दल और एनसीपी प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में हिस्सा ले रहे हैं.
पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार इस बात के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की कोशिश कर रही है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव हों. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार यह बात कह चुके हैं. कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने भी कहा था कि वह ऐसा कराने के लिहाज से अपनी क्षमताएं विकसित कर रहा है.
आजादी के बाद शुरुआती सालों में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे. हालांकि, इसके लिए कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं थी. लेकिन सुविधा के नाते 1952 के पहले आम चुनाव के साथ ही राज्यों की विधानसभा के लिए भी चुनाव हुए थे. तकरीबन 15 साल तक विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ चले लेकिन बाद में यह चक्र गड़बड़ा गया. क्योंकि कुछ राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कुछ सरकारें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले गिर गईं. अब एक बार फिर से दोनों चुनाव एक साथ कराने की बात चल रही है तो इसके फायदों को समझना प्रासंगिक हैः
राजनीतिक स्थिरता
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सबसे बड़ा फायदा यही बताया जा रहा है कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी. क्योंकि अगर किसी राज्य में कार्यकाल खत्म होने के पहले भी कोई सरकार गिर जाती है या फिर चुनाव के बाद किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो वहां आनन-फानन में नहीं बल्कि पहले से तय समय पर ही चुनाव होगा. इससे वहां राजनीतिक स्थिरता बनी रहेगी.
पांच साल तक किसी राज्य को अपनी विधानसभा के गठन के लिए इंतजार नहीं करना पड़े, इसके लिए यह सुझाव दिया जा रहा है कि ढाई-ढाई साल के अंतराल पर दो बार चुनाव हों. आधे राज्यों की विधानसभा का चुनाव लोकसभा के साथ हो और बाकी राज्यों का इसके ढाई साल बाद. अगर बीच में कहीं कोई राजनीतिक संकट पैदा हो और चुनाव की जरूरत पड़े तो वहां फिर अगला चुनाव ढाई साल के चक्र के साथ हो. विधि आयोग ने 1999 में अपनी 117वीं रिपोर्ट में राजनीतिक स्थिरता को ही आधार बनाकर दोनों चुनावों को एक साथ कराने की सिफारिश की थी.
चुनावी खर्च और अन्य संसाधनों की बचत
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे चुनावी खर्च में काफी बचत होगी. केंद्र सरकार की ओर से यह कहा जा रहा है कि दोनों चुनाव एक साथ कराने से तकरीबन 4,500 करोड़ रुपये की बचत होगी.
बचत की बात भी कई स्तर पर की जा रही है. अगर दोनों चुनाव एक साथ हों तो मोटे तौर पर सरकार का यह काम एक ही खर्च में हो जाएगा. उसे अलग से चुनाव कराने और सुरक्षा संबंधी उपाय नहीं करने होंगे. एक ही बार की व्यवस्था में दोनों चुनाव हो जाएंगे और इससे संसाधनों की काफी बचत होगी. सुरक्षा बलों को भी बार-बार चुनाव कार्य में इस्तेमाल करने के बजाए उनका बेहतर प्रबंधन करके जहां उनकी अधिक जरूरत हो, वहां उनका इस्तेमाल किया जा सकेगा. अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो राजनीतिक दलों को भी दो अलग-अलग चुनावों की तुलना में हर स्तर पर कम पैसे खर्च करने होंगे. इन पार्टियों के स्टार प्रचारक एक ही सभा से दोनों चुनावों का चुनाव प्रचार कर सकेंगे. इससे हेलीकाॅप्टर से लेकर सभा कराने तक, कई तरह के खर्च कम होंगे.
प्रशासन को सुविधा
एक साथ चुनाव होने से कई स्तर पर प्रशासकीय सुविधा की बात भी कही जा रही है. अलग-अलग चुनाव होने से अलग-अलग वक्त पर आदर्श आचार संहिता लगाई जाती है. इससे होता यह है कि विकास संबंधित कई निर्णय नहीं हो पाते हैं. शासकीय स्तर पर कई अन्य कार्यों में भी इस वजह से दिक्कत पैदा होती है. जानकारों के मुताबिक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से प्रशासनिक स्तर पर चुनावों की वजह से होने वाली असुविधा कम होगी और शासन तंत्र और प्रभावी ढंग से काम कर पाएगा.
आम जनजीवन में कम अवरोध
जब भी चुनाव होते हैं, आम जनजीवन प्रभावित होता है. चुनावी रैलियों से यातायात पर असर पड़ता है. कई तरह की सुरक्षा बंदिशों की वजह से भी आम लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसे में अगर बार-बार होने वाले चुनावों के बजाय एक बार में दोनों चुनाव होते हैं तो इस तरह की दिक्कतें कम होंगी और आम जनजीवन में अपेक्षाकृत कम अवरोध पैदा होगा.
भागीदारी बढ़ सकती है
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में यह बात भी कही जा रही है कि इससे चुनावों में आम लोगों की भागीदारी भी बढ़ सकती है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि देश में बहुत से लोग हैं जिनका वोटर कार्ड जिस पते पर बना है, वे उस पते पर नहीं रहते बल्कि रोजगार या अन्य वजहों से दूसरी जगहों पर रहते हैं. अलग-अलग चुनाव होने की वजह से वे अपनी मूल जगह पर मतदान करने नहीं जाते. लेकिन कहा जा रहा है कि अगर एक साथ चुनाव होंगे तो इनमें से बहुत सारे लोग एक बार में दोनों चुनाव होने की वजह से मतदान करने अपने मूल स्थान पर आ सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो चुनावों में मत प्रतिशत और दूसरे शब्दों में आम लोगों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ सकती है.
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