क्या आपने कभी सुना है कि यदि हवाई जहाज उड़ाते हुए पायलटों को पता चले कि उनके जहाज में कोई क्रांतिकारी एक सामान्य यात्री के रूप में यात्रा कर रहा है, तो वे कॉकपिट से बाहर आकर हवा में ही उसका ऑटोग्राफ मांगने लगें. भारतीय पायलटों ने ऐसा एक बार नहीं कई बार किया, और वे महान क्रांतिकारी थे मार्टिन लूथर किंग जूनियर. किंग जूनियर के प्रति पूरे भारत में इतना प्रेम था और उनके आंदोलनों को भारतीय प्रेस में भी इतना अधिक कवरेज मिला था कि कई बार गांवों और कस्बों में भी उन्हें आसानी से पहचान लिया गया. महात्मा गांधी तो कभी अमेरिका नहीं गए, लेकिन अमेरिकी समाज ने किंग जूनियर में ही अपनी तरह के गांधी की झलक देखी थी.

अमेरिका के अलाबामा राज्य के मांटगोमरी शहर की बसों में श्वेत और अश्वेत लोगों के लिए अलग-अलग सीटें होती थीं. रोज़ा पार्क्स नाम की एक अश्वेत महिला ने एक दिन एक श्वेत व्यक्ति को श्वेतों के लिए आरक्षित सीट छोड़ने से इन्कार कर दिया. रोज़ा पार्क्स को गिरफ्तार कर लिया गया. और वहीं से शुरू हुआ अश्वेतों द्वारा पूरे बस परिवहन का बहिष्कार. 381 दिनों तक चलने वाले इस ऐतिहासिक बहिष्कार की प्रेरणा महात्मा गांधी के असहयोग और सत्याग्रह जैसे विचारों से मिली थी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इस आंदोलन के बाद अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने अलग-अलग सीटों की इस व्यवस्था को असंवैधानिक घोषित कर दिया था.

इस आंदोलन की सफलता के बाद किंग जूनियर के दोस्तों ने उनसे कहना शुरू कर दिया कि वे खुद भारत जाकर क्यों नहीं देख लेते कि जिन गांधी के वे इतने बड़े प्रशंसक हैं उन गांधी ने भारत को किस रूप में गढ़ा है. 1956 में जब नेहरू अमेरिका के एक छोटे से दौरे पर गए, तो वे चाहकर भी किंग जूनियर से मिल नहीं सके थे और उन्होंने इच्छा जताई थी कि काश! उन दोनों की भेंट हो पाती. मन तो किंग जूनियर का भी बचपन से ही था कि वे भारत आकर इसे देखें. लेकिन एक दिन डॉ लॉरेंस रेड्डिक, जो किंग के मित्र और जीवनीकार भी थे, उन्होंने किंग से कहा कि आपकी असली परीक्षा तभी हो पाएगी जब महात्मा गांधी को जानने वाले लोग आपको देखकर आपके और मांटगोमरी आंदोलन के बारे में अपनी राय दें. यह बात किंग जूनियर को छू गई. फिर क्या था किंग, उनकी पत्नी कोरेट्टा और लॉरेंस रेड्डिक तीनों ही पूरे एक महीने के लिए भारत के एक सुनियोजित दौरे पर चल पड़े.

तीन फरवरी, 1959 की मध्यरात्रि को ये तीनों ही न्यूयॉर्क से बंबई के लिए रवाना हो गए. लेकिन कुहासे के कारण स्विटज़रलैंड में इनकी कनेक्टिंग फ्लाइट छूट गई और वे बहुत घुमावदार रास्ते से दो दिन देरी से 10 फरवरी को भारत पहुंचे. वे पूरे एक महीने यानी 10 मार्च तक भारत में रहे. किंग जूनियर ने अपनी इस यात्रा को अपने जीवन का आंखे खोलने वाला सबसे बड़ा अनुभव बताया था.

इस दौरान अक्सर किंग जूनियर शहरों में सुबह की सैर के लिए सड़कों पर निकल जाते और कोई न कोई उन्हें पहचान ही जाता, जो आकर उनसे पूछ लेता- ‘आप मार्टिन लूथर किंग ही हैं न?’ किंग ने लिखा है कि भारत में जो प्रेम उन्हें मिला उसमें उनके त्वचा के रंग ने एक अहम भूमिका निभाई. लेकिन इस भाईचारे और हृदयगत जुड़ाव का सबसे बड़ा कारण किंग की नज़र में यह था कि अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के अल्पसंख्यक और भेदभाव के शिकार लोग प्रजातिवाद और साम्राज्यवाद रूपी सामान्य समस्या को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए एकसाथ संघर्ष कर रहे थे.

किंग ने यहां हज़ारों भारतीयों से संवाद किया. वे कई विश्वविद्यालयों में गए. वे भारत में पढ़ रहे अफ्रीकी छात्रों से भी मिले. उन्होंने जनसभाओं को भी संबोधित किया. उनके हर कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लोग उन्हें सुनने पहुंचते थे. एक तरफ जहां किंग मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को मिटाने की बात करते थे. युद्ध और हथियारों को मिटाकर प्रेम, शांति और भाईचारे की बात करते थे, वहीं लोगों का बड़ा जोर होता था कि उनकी पत्नी कोरेट्टा नीग्रो स्पिरिचुअल वाले गीत गाकर सुनाएं. प्रायः हर कार्यक्रम में वे गाती भी थीं. दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, मद्रास और अन्य बड़े शहरों में उन्होंने प्रेस-वार्ताएं भी कीं. अपने पूरे दौरे में उन्हें भरपूर कवरेज मिली और वे अखबारों में छाए ही रहे.

भारत के गरीबों की स्थिति से किंग जूनियर बहुत विचलित हुए थे. एक तरफ फुटपाथ पर सोते हुए लोग, भयानक कुपोषण और भुखमरी, और दूसरी ओर यहां के अमीरों की जीवन-शैली, आवश्यकता से अधिक भोजन और सज-धज को देखकर उन्होंने लिखा है कि ‘बुर्जुआ वर्ग— चाहे वह श्वेत हो, अश्वेत हो या भूरा हो— वह दुनियाभर में एक ही जैसा व्यवहार करता है.’ जिस रात प्रधानमंत्री नेहरू ने किंग दंपति को रात्रि के भोजन पर आमंत्रित किया था, उनके स्वागत के लिए लेडी एडविना माउंटबेटन जैसी एक और खास अतिथि वहां पहले से मौजूद थीं.

किंग दंपति की यात्रा के दौरान भूदान आंदोलन जोरों पर था. इस आंदोलन ने और विनोबा के व्यक्तित्व ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. वे विनोबा और जयप्रकाश नारायण से मिले भी. पूरी दुनिया का पूर्ण निःशस्त्रीकरण और असैन्यीकरण के विनोबा के विचार ने किंग को खासतौर पर प्रभावित किया था. नौ मार्च, 1959 को आकाशवाणी से प्रसारित अपने विदाई भाषण में उन्होंने इसका विशेष रूप से जिक्र किया था. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘भारत एक ऐसी भूमि है जहां आज भी आदर्शवादियों और बौद्धिकों का सम्मान किया जाता है. यदि हम भारत को उसकी आत्मा बचाए रखने में मदद करें, तो इससे हमें अपनी आत्मा को बचाए रखने में मदद मिलेगी.’

अपनी आत्मकथा में किंग ने अपनी भारत यात्रा को ‘अहिंसा-धाम की तीर्थयात्रा’ का नाम दिया है. उन्होंने लिखा है- ‘अहिंसक साधनों से अपने लोगों के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने के दृढ़तर संकल्प के साथ मैं अमेरिका लौटा. भारत यात्रा का एक परिणाम यह भी हुआ कि अहिंसा के बारे में मेरी समझ बढ़ी और इसके प्रति मेरी प्रतिबद्धता और भी गहरी हो गई.’