अभी छह जनवरी की बात है. मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के पृथ्वीपुर कस्बे (टीकमगढ़ जिले का हिस्सा) में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक किसान सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे. इसमें किसानों के लिए लाई गई भावांतर भुगतान योजना के प्रमाण पत्र बांटे जाने थे. इस सम्मेलन में मुख्यमंत्री ने अपने भाषण में इस पर खास जोर दिया कि उनकी सरकार ने ‘राज्य के किसानों के लिए जो भावांतर भुगतान योजना लागू की है वह पूरे देश में मिसाल है.’
और दिलचस्प इत्तेफ़ाक़ देखिए कि इसी दिन पन्ना में प्रदेश की वरिष्ठ मंत्री कुसुम महदेले ऐसे ही कार्यक्रम में इस योजना की ख़ामियां गिना रही थीं. उस रोज भरी सभा में उन्होंने कहा, ‘भावांतर के तहत पन्ना जिले में जितनी उड़द की खरीद बताई जा रही है उतनी तो यहां पैदावार ही नहीं हुई. सूखे की वज़ह से पैदावार कम हुई है. लेकिन पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के बांदा से उड़द मंगवाकर पन्ना जिले की मंडियों में बेच दी गई है. इसकी जांच कराई जानी चाहिए.’

यही नहीं, इसके महज़ चार दिन बाद ही यानी 10 जनवरी को दैनिक भास्कर के भोपाल संस्करण में एक और ख़बर प्रकाशित हुई. इसमें बताया गया कि कैसे किसानों के लिए लाई गई भावांतर योजना व्यापारियों के लिए ही मुनाफ़े का जरिया बनी है.

इसके बाद ऐसी तमाम ख़बरों की पुष्टि के लिए सत्याग्रह ने भी जमीनी पड़ताल की. इसमें कई दिलचस्प तथ्य सामने आए. साथ में यह भी कि भावांतर से जुड़े दावों और उनकी हक़ीक़त में फ़ासला कुछ ज़्यादा ही है. इस योजना पर इतने सवाल हैं कि इसे फिलहाल तो किसी लिहाज से मिसाल नहीं माना जा सकता. यह सब कैसे और क्यों हुआ? इसका ज़वाब हासिल करने के लिए क्रमबद्ध तरीके से ‘भावांतर के भंवर’ में डुबकी लगानी होगी.
भावांतर क्यों लाई गई?
भावांतर की पृष्ठभूमि में पिछले साल मई-जून में हुए किसान आंदोलन की भूमिका सबसे अहम मानी जाती है. इस आंदोलन की दो प्रमुख वजहें थीं. एक- किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य न मिलना. दूसरा- किसानों पर कर्ज़ का बढ़ता बोझ. कृषक समुदाय इन दोनों ही स्थितियों से निज़ात दिलाने की सरकार से मांग कर रहा था. इस बीच मंदसौर जिले में आंदोलन हिंसक हो गया और पुलिस की गोली से छह किसानों की मौत हो गई.
यह वो दौर था जब महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी ऐसी ही वजहों से किसान आंदोलन चल रहे थे. बताया जाता है कि इन आंदोलनों के मद्देनज़र केंद्र सरकार कोई ऐसा तंत्र बनाने पर विचार (यह विमर्श अब भी जारी है) कर रही थी जिसमें किसानों को कुछ राहत दी जा सके. इसी बीच मंदसौर की घटना हो गई और किसानों को राहत देने के जिन विकल्पों पर केंद्र में ठीक तरह से विचार भी नहीं हो पाया था, उनमें से एक अधपका विकल्प भावांतर की शक्ल में आनन-फ़ानन में मध्य प्रदेश में लागू कर दिया गया. यह सितंबर-अक्टूबर 2017 की बात है.
भावांतर क्या है और कैसे काम करती है?
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ‘भावांतर यानी भाव का अंतर.’ इस योजना के तहत अक्टूबर में मध्य प्रदेश सरकार ने खरीफ की आठ फसलें चिह्नित की हैं. ये हैं - 1. सोयाबीन, 2. मूंगफली, 3. तिल, 4. रामतिल, 5. मक्का, 6. मूंग, 7. उड़द और 8. तुअर दाल. इन फसलों के लिए सरकार ने मॉडल दरें (एमआर) घोषित की हैं. ये दरें इन फसलों के लिए घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अलावा हैं. योजना के तहत सरकार किसानों को इन्हीं दरों (एमआर और एमएसपी) के बीच के अंतर की राशि का नकद भुगतान कर रही है. जो किसान भावांतर योजना का लाभ लेना चाहते हैं उन्हें इसके लिए निर्धारित पोर्टल पर अपना पंजीयन कराना होता है. इसके बाद भावांतर लागू होने की अवधि में जब वे अपनी फसल (योजना के तहत सूची में शामिल की गई फसलों में से ही) बेचते हैं तो सरकार उन्हें भावांतर का भुगतान करती है.
मॉडल दरें कैसे घोषित होती हैं और भुगतान कैसे होता है?
मॉडल दरें घोषित करने के लिए सरकार ने एक फॉर्मूला बनाया है. इसके लिए जिस समय उसे मॉडल दर घोषित करनी है उसी वक़्त वह देश की तीन बड़ी मंडियों में संबंधित फसलों के चालू दामों का औसत निकालती है. इनमें एक मंडी मध्य प्रदेश की होती है दो अन्य राज्यों की. उदाहरण के लिए, मान लीजिए नवंबर में सरकार को सोयाबीन की मॉडल दर घोषित करनी है. तब सरकार यह देखेगी कि नवंबर माह में ही मध्य प्रदेश की सोयाबीन की सबसे लोकप्रिय मंडी में उसका कितना भाव है. इसके अलावा दो अन्य राज्यों की सोयाबीन की ही मंडियों में कितना भाव है. इस तरह तीनों मंडियों के भाव का जो औसत (एवरेज) मिला उसे भावांतर के तहत सोयाबीन की मॉडल दर घोषित किया जाएगा.
ख़बराें के मुताबिक़ इसी फॉर्मूले के तहत सरकार ने अक्टूबर में जो मॉडल दरें घोषित कीं वे कुछ यूं थीं - सोयाबीन : 2,580 रुपये, उड़द : 3,000 रुपये, मूंग : 4,120 रुपये, मूंगफली : 3,720 रुपये और मक्का : 1,190 रुपए प्रति क्विंटल. नवंबर में इन दरों की समीक्षा की गई और इनमें बदलाव किया गया. इसके बाद जो मॉडल दरें निर्धारित की गईं वे कुछ इस तरह थीं- सोयाबीन : 2,640, उड़द : 3,070, मूंग : 4,120, मूंगफली : 3,570 और मक्का : 1,100 रुपए प्रति क्विंटल. जबकि इन फसलों का एमसपी क्रमश: 3,050, 5,400, 5,575, 4,450 और 1,425 रुपए प्रति क्विंटल था.
इस तरह जिन किसानों ने अक्टूबर में भावांतर के तहत साेयाबीन बेचा उन्हें एमएसपी 3,050 और मॉडल दर 2,580 के बीच के अंतर यानी 470 प्रति क्विंटल के हिसाब से सरकार ने अतिरिक्त राशि का भुगतान किया. इसी तरह जिन्होंने नवंबर में भावांतर के तहत सोयाबीन बेचा उन्हें भाव-अंतर का भुगतान 410 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से किया गया (वैसे तो भुगतान अभी हो ही रहा है). यही हिसाब-किताब अन्य सात फसलों के मामले में भी समझा जा सकता है. यहां यह भी याद रखना चाहिए कि देश में सबसे ज़्यादा सोयाबीन मध्य प्रदेश में होता है. इसलिए सोयाबीन के भाव यहां काफ़ी मायने रखते हैं और यही कारण है कि सोयाबीन का उदाहरण ख़ास तौर पर दिया गया है.
भावांतर कैसे किसानों के लिए ‘भंवर’ बन गई...
मध्य प्रदेश सरकार जिस भावांतर का ढिंढोरा पीट रही है और जिसे केंद्र भी बेहतर योजना मानकर पूरे देश में लागू करने पर विचार कर रहा है उसे एक सीजन में सिर्फ़ दो महीने के लिए लागू करने का प्रावधान है. यानी जैसे अक्टूबर के आसपास खरीफ के सीजन की फसल आती है तो योजना भी उसके साथ ही दो महीने के लिए लाई गई. यही व्यवस्था रबी के सीजन में भी मार्च-अप्रैल के समय अपनाई जाएगी. यानी अगर भावांतर का लाभ लेना है तो किसानों को इन्हीं दो महीनों में फसल बेचनी होगी.
सरकार का तर्क है कि चूंकि फसल आते ही शुरू में कृषि उपज के दाम एमएसपी से काफ़ी कम रहते हैं इसलिए उस वक़्त किसानों काे उनकी फसलों का बेहतर मूल्य दिलाने के लिए यह योजना लाई गई है. लेकिन यह दिखावे की दलील ही ज़्यादा लगती है. क्योंकि किस दर पर फसल बेची-खरीदी जाएंगी इस मामले में सरकार का तो कोई दखल है नहीं. यह मामला सरकार ने पूरी तरह खरीदने-बेचने वाले पर ही छोड़ रखा है, यानी किसान और व्यापारियों पर. ऐसे में गुंजाइश बनती है कि फसल बेचने के दबाव में किसान एमआर से काफी कम कीमत पर ही अपनी फसल बेच दें. इससे किसानों को घाटा होने की आशंका बढ़ जाती है.
वहीं सरकार भावांतर के तहत बेची गई पूरी उपज का भुगतान भी नहीं करती. हर जगह बंदिश लगाई हुई है. किसान नेता शिवकुमार शर्मा ‘कक्का जी’ होशंगाबाद की मिसाल देते हैं. वे बताते हैँ, ‘होशंगाबाद में प्रति हैक्टेयर एक क्विंटल 14 किलो सोयाबीन की उपज पर ही भावांतर भुगतान हो रहा है. जबकि जिले में किसान प्रति हेक्टेयर पांच-सात क्विंटल तक पैदावार लेते हैं. बाकी पैदावार किसान किस हिसाब से और कहां बेचे?’
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस योजना को लेकर सरकार के दावे और हकीकत में कोई कम अंतर नहीं है. मसलन सरकार का दावा यह भी है कि उसने पूरे प्रदेश की आठ प्रमुख फसलों को भावांतर के तहत शामिल किया है. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. क्योंकि योजना में यह प्रावधान है कि हर जिले में अधिसूचित फसलाें को ही भावांतर के तहत बेचा जा सकेगा. अब चूंकि हर जगह तो आठों फसलें होती नहीं इसलिए जिलेवार एक-दो या तीन फसलें ही भावांतर में अधिसूचित होती हैं. उन पर किसानों को भुगतान होता है.
किसानों के लिए बनी भावांतर योजना का अगर सीधा-सीधा फायदा किसी को मिल रहा है तो वे हैं व्यापारी
भावांतर से मुनाफ़ा वसूली के लिए व्यापारियों ने योजनाबद्ध तरीके से काम किया है. जैसा कि दैनिक भास्कर भोपाल की 10 जनवरी की ख़बर भी बताती है, ‘जब नवंबर-दिसंबर में भावांतर लागू थी तब व्यापारियों ने गोलबंदी कर कृषि उपजों के दाम गिरा दिए. ताकि बेहद कम दाम पर किसानों से उनकी उपज ख़रीद सकें.’ व्यापारियों ने यह भी सुनिश्चित किया कि ज़्यादा से ज़्यादा से कृषि उपज भावांतर की दो महीने की अवधि में ही बिक जाए. इसके लिए जैसा कि दैनिक भास्कर को भागीरथ पाटीदार नाम के एक किसान ने बताया, ‘व्यापारियों ने किसानों को कम दाम पर उनकी अधिक से अधिक उपज बेचने लिए मनाया. उन्होंने किसानों को समझाया कि उन्हें जो थोड़ा-बहुत नुक़सान होगा उसकी भरपाई सरकार कर देगी.’
इसके बाद भावांतर की अवधि खत्म होते-होते जब फसल की आवक कम हो गई तो कृषि उपजों को अपने भंडारों में जमा कर चुके व्यापारियों ने उनके दाम बढ़ा दिए. उदाहरण फिर सोयाबीन का ही. भावांतर के दौरान यह अलग-अलग मंडियों पर जहां 1,500 से 2,500 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बिक रहा था वही अब योजना खत्म होने के बाद 3,300 से 4,000 रुपए प्रति क्विंटल तक बिक रहा है.
दैनिक भास्कर से ही बातचीत में भोपाल की करोंद मंडी व्यापारी एसोसिएशन के प्रवक्ता संजीव जैन एक तरह से इसकी पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘भावांतर के दौरान जितनी आवक थी अब उससे कम हो गई है. और विभिन्न कृषि उपज के भाव भी 150 से 500 रुपए प्रति क्विंटल तक बढ़ गए हैं. सारा माल व्यापारियों के पास स्टॉक (जमा) है. आने वाले दिनों में कीमतें और बढ़ सकती हैं. आखिर व्यापारी दो पैसे कमाने के लिए ही तो धंधा करते हैं.’
यानी यही वे तमाम कारण हैं जिनके चलते भावांतर भुगतान योजना पर सवाल उठ रहे हैं. इसके बावज़ूद शिवराज सरकार ‘हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा’ वाली कहावत पर चलते हुए इस योजना से ‘राजनीतिक मुनाफ़ा वसूली’ की कोशिश में नज़र आती है. राजनीति में सत्ताधारी दलों के लिए यह स्वाभाविक भी है, लेकिन इससे उसे कितना फायदा होगा? यह एक अलग विश्लेषण का विषय है और इस पर इसी रिपोर्ट की अगली कड़ी में चर्चा करेंगे.
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