ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को ‘सीमांत गांधी’ या ‘सरहदी गांधी’ कहे जाने पर आज भी कई लोग ऐतराज करते हैं. वे मानते हैं कि ख़ान साहब ने अहिंसा का दर्शन स्वतंत्र रूप से पाया था. महात्मा गांधी से मिलने से बहुत पहले ही उन्होंने कुरान पढ़ते हुए उसकी आध्यात्मिक गहराइयों में अहिंसा का दर्शन ढूंढ़ निकाला था. हर समय आपस में लड़ते रहने वाले हिंसा पसंद पठानों के बीच अहिंसा का नायक बन जाने का यह चमत्कार बादशाह ख़ान जिस तरह से कर पाए, उससे उल्टे गांधी स्वयं ही बहुत अधिक प्रभावित हुए थे. दोनों के बीच एक स्वाभाविक और हृदयगत मैत्री बन जाने के पीछे भी अहिंसा के प्रति दोनों की यह निष्ठा ही थी.

ख़ान साहब पर अलग-अलग लोगों ने बहुत कुछ कहा और लिखा है. लेकिन आज जबकि उनकी अपनी धरती एक लंबे अरसे से खून से लाल हुई पड़ी है और जहां केवल बम-बारूद के धमाके और चीखें ही सुनाई पड़ती हैं, तो ऐसे हालात में उन बातों को फिर से पढ़ने का मन करता है, जो महात्मा गांधी ने समय-समय पर ख़ान साहब के लिए कही थीं.


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1938 में जब गांधी उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत के दौरे पर निकले तो उधर के उर्दू अखबारों ने यह लिखना शुरू कर दिया कि स्वभाव से ही वीर और लड़ाके पठानों को गांधी जिस अहिंसा का पाठ पढ़ाएंगे, उससे ये पठान कायर और डरपोक बन जाएंगे. चार मार्च, 1938 को पेशावर के इस्लामिया कॉलेज में गांधी ने इस बारे में कहा- ‘जब पहले-पहल लोगों को मेरे सीमाप्रांत में जाने के बारे में मालूम हुआ, तब उन्होंने कहा कि यह आदमी (महात्मा गांधी) तो लोगों को बुजदिल बनाने जा रहा है. यदि अहिंसा का यही अर्थ है तो आपको उससे घृणा करनी चाहिए. एक उर्दू अखबार ने लिखा है कि मैं यहां सरहद के पठानों को नामर्द बनाने के लिए आया हूं. जबकि सच बात तो यह है कि ख़ान साहब ने मुझे यहां इसलिए बुलाया है कि पठान लोग मेरी ही जबान से अहिंसा का पैगाम सुनें और मैं खुद अपनी आंखों से देख सकूं कि पठानों ने अहिंसा को किस हद तक अपनाया है.’

बादशाह ख़ान ने अहिंसा को मानवता की सेवा के रूप में देखा था. अपने संगठन का नाम ‘ख़ुदाई-ख़िदमतगार’ रखने के पीछे भी उनकी भावना यही थी. गांधी जब सीमाप्रांत के अपने दौरे से लौटकर आए, तो पठानों के बीच अहिंसा का प्रसार करने में ख़ान साहब की सफलता देखकर उनका मन बड़ा गद्गद् था. इस बारे में उन्होंने 19 नवंबर, 1938 के ‘हरिजन’ के लिए एक लंबा लेख लिखा. दिल्ली से वर्धा लौटते हुए ट्रेन में ही उन्होंने इसे लिखा था. इस लेख का शीर्षक ही था- ‘खुदाई खिदमतगार और बादशाह ख़ान’ गांधी इसमें लिखते हैं-

‘ख़ुदाई ख़िदमतगार चाहे जैसे हों और अंततः जैसे साबित हों, लेकिन उनके नेता के बारे में, जिन्हें वे उल्लास से बादशाह ख़ान कहते हैं, किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं है. वे निस्संदेह खुदा के बंदे हैं....अपने काम में उन्होंने अपनी संपूर्ण आत्मा उड़ेल दी है. परिणाम क्या होगा इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं. बस इतना उन्होंने समझ लिया है कि अहिंसा को पूर्ण रूप से स्वीकार किए बिना पठानों की मुक्ति नहीं है. और इतना समझ लेना ही उनके लिए काफी है. पठान बड़े अच्छे योद्धा हैं, इस बात का बादशाह ख़ान को कोई गर्व नहीं है. वे उनकी बहादुरी की कद्र करते हैं, लेकिन मानते हैं कि अत्यधिक प्रशंसा करके लोगों ने उन्हें बिगाड़ दिया है. वे यह नहीं चाहते कि उनके पठान भाई समाज के गुंडे माने जाएं. उनके विचार से पठानों को गलत राह पर लगाकर लोगों ने उनसे अपनी स्वार्थसिद्धि की है और उन्हें अज्ञान के अंधकार में रखा है. वे चाहते हैं कि पठान जितने बहादुर हैं उससे अधिक बहादुर बनें और अपनी बहादुरी में ज्ञान का समावेश करें. उनका विचार है कि यह काम केवल अहिंसा के सहारे ही किया जा सकता है.’

लेकिन इस सबके बावज़ूद ब्रिटिश सरकार यदि किसी से सबसे ज्यादा भय खाती थी तो वे पठान ही थे. ख़ुदाई ख़िदमतगार जैसे अहिंसक संगठनों पर भी उसने कई बार कहर बरपाया. बादशाह ख़ान को वे हमेशा संदेह की दृष्टि से देखते रहे. लेकिन 1939 म्यूरियल लेस्टर नाम की एक ब्रिटिश शांतिवादी ने जब सीमाप्रांत का दौरा किया, तो वह बादशाह ख़ान के अहिंसक व्यक्तित्व से इस कदर प्रभावित हो गईं कि उन्होंने महात्मा गांधी को चिट्ठी में लिखा-

‘ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को अब भली-भांति जान लेने के बाद मैं ऐसा महसूस करती हूं कि जहां तक दुनिया भर में अद्भुत व्यक्तियों से मिलने का सवाल है, इस तरह का सौभाग्य मुझे अपने जीवन में शायद कोई और नहीं मिलने वाला है. वे ‘न्यू टेस्टामेंट’ की सौम्यता से युक्त, ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के राजकुमार हैं. वे कितने भगवत्परायण हैं! आपने उनसे हमारा परिचय कराया, इसके लिए मैं आपकी आभारी हूं.’ बाद में इस पत्र के हवाले से बादशाह ख़ान के प्रति ब्रिटिश हुकूमत के नज़रिए की आलोचना करते हुए 28 जनवरी, 1939 के ‘हरिजन’ में महात्मा गांधी ने लिखा - ‘...फिर भी अंग्रेज अधिकारियों के लिए इस व्यक्ति का कोई उपयोग नहीं है. वे इससे डरते हैं और इस पर अविश्वास करते हैं. यह अविश्वास वैसे मुझे बुरा न लगता, पर इससे प्रगति में बाधा पड़ती है. इससे भारत और इंग्लैंड की हानि होती है और इस तरह विश्व की भी होती है.’

16 जुलाई, 1940 को सेवाग्राम में एक कार्यक्रम में गांधी कहते हैं- ‘ख़ान साहब पठान हैं. पठानों के लिए तो कहा जा सकता है कि वे तलवार-बंदूक साथ ही लेकर जन्म लेते हैं....पठानों में दुश्मनी निकालने का रिवाज इतना कठोर है कि यदि किसी एक परिजन का खून हुआ हो तो उसका बदला लेना अनिवार्य हो जाता है. एक बार बदला लिया कि फिर दूसरे पक्ष को उस खून का बदला लेना पड़ता है. इस प्रकार बदला पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलता है और बैर का अंत ही नहीं आता. यह हुई हिंसा की पराकाष्ठा, साथ ही हिंसा का दिवालियापन. क्योंकि इस प्रकार बदला लेते-लेते परिवारों का नाश हो जाता था…’

‘... ख़ान साहब ने पठानों का ऐसा नाश होते देखा. इसलिए उन्होंने समझ लिया कि पठानों का उद्धार अहिंसा में ही है. उन्होंने सोचा ‘अगर मैं अपने लोगों को सिखा सकूं कि हमें खून का बदला बिल्कुल नहीं लेना है, बल्कि खून को भूल जाना है, तो बैर की यह परंपरा समाप्त हो जाएगी और हम जीवित रह सकेंगे.’ यह सौदा नकद का था. उनके अनुयायियों ने उसे अंगीकार किया, और आज ऐसे खिदमतगार देखने में आते हैं जो बदला लेना भूल गए हैं. इसे कहते हैं बहादुर की अहिंसा या सच्ची अहिंसा.’

बिहार में दंगों के दौरान जब गांधी घूम-घूमकर उसे शांत करने में लगे थे, तो जो व्यक्ति उनके साये की तरह चौबीसो घंटे उनके साथ खड़ा रहता था, वे ख़ान साहब ही थे. 12 मार्च, 1947 को पटना में एक सभा में गांधी ने ख़ान साहब की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘बादशाह ख़ान मेरे पीछे बैठे हैं. वे तबीयत से फकीर हैं, लेकिन लोग उन्हें मुहब्बत से बादशाह कहते हैं, क्योंकि वे सरहद के लोगों के दिलों पर अपनी मुहब्बत से हुकूमत करते हैं. वे उस कौम में पैदा हुए हैं जिसमें तलवार का जवाब तलवार से देने का रिवाज है. जहां ख़ानदानी लड़ाई और बदले का सिलसिला कई पुश्तों तक चलता है. लेकिन बादशाह ख़ान अहिंसा में पूरा विश्वास रखते हैं. मैंने उनसे पूछा कि आप तो तलवार के धनी हैं, आप यहां कैसे आए? उन्होंने बताया कि हमने देखा हम अहिंसा के जरिए ही अपने मुल्क को आज़ाद करा सकते हैं. और अगर पठानों ने खून का बदला खून की पॉलिसी को न छोड़ा और अहिंसा को न अपनाया तो वे खुद आपस में लड़कर तबाह हो जाएंगे. जब उन्होंने अहिंसा की राह अपनाई, तब उन्होंने अनुभव किया कि पठान जनजातियों के जीवन में एक प्रकार का परिवर्तन हो रहा है.’

पठानों को सुधारने की राह इतनी आसान भी नहीं थी. ऐसा नहीं है कि खुद बादशाह ख़ान की अहिंसा की परीक्षा नहीं हुई. खूब हुई. 1946 में जवाहर लाल नेहरू बादशाह ख़ान के साथ पश्चिमोत्तर प्रांत के जनजातीय इलाकों का दौरा कर रहे थे. 21 अक्तूबर, 1946 को जब वे पेशावर लौट रहे थे, तभी एक भीड़ ने इनपर जोरदार हमला कर दिया. बादशाह ख़ान ने नेहरू के शरीर को अपने शरीर से पूरी तरह उसी प्रकार ढक लिया, जिस प्रकार कोई मां अपने बच्चे को बचाने के लिए ढकती. चोट तो नेहरू को आई जरूर, लेकिन सबसे ज्यादा चोट बादशाह ख़ान को ही आई. जान जाते-जाते बची.

फिर भी, लड़ने के लिए बदनाम पठानों पर बादशाह ख़ान का यह जादू लंबे समय तक रहा जरूर. लेकिन जबसे साम्राज्यवादी शक्तियों ने इस पूरे क्षेत्र को अपनी हिंसक राजनीति और सशस्त्र संघर्ष का अड्डा बनाया, तबसे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच पिसता यह पूरा इलाका भयानक हिंसा की चपेट में रहा है और उसका नतीजा आज पूरी दुनिया भुगत रही है. स्वयं बादशाह ख़ान का भी बाकी जीवन अपने लोगों के प्रति करुणा से भरी हुई पीड़ा में ही बीता.