आज बसंत पंचमी है. हर साल विक्रमी संवत के माघ महीने की शुक्ल पंचमी को देश में बड़े धूमधाम से विद्या की देवी मानी जाने वाली सरस्वती की आराधना की जाती है. हिंदू धर्म में इनका काफी अहम स्थान है. इसलिए छात्र से लेकर शिक्षक और कलाकार तक सब इनकी पूजा करते हैं. हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले लोग ज्ञान-विज्ञान से जुड़ा कोई काम बिना इन्हें याद किए शायद ही शुरू करते हों.
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हम अपने आसपास किसी कैलेंडर या पेटिंग में अक्सर देखते हैं कि देवी सरस्वती किसी नदी के किनारे सफेद साड़ी में एक चट्टान पर बैठी हुई हैं. नदी में कमल खिले हैं. सरस्वती के दो हाथों में वीणा है, एक में पुस्तक और एक में सफेद मोतियों की माला.
तस्वीर हम सभी के लिए काफी जानी-पहचानी है. लेकिन हमें यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि अब से 122 साल पहले सरस्वती का यह रूप लोगों के जेहन में नहीं था. उनका यह रूप तो महान चित्रकार राजा रवि वर्मा की देन है.
राजा रवि वर्मा की ‘सरस्वती’
राजा रवि वर्मा की इस अति लोकप्रिय तस्वीर से पहले सरस्वती या किसी अन्य देवी-देवता का चित्रण इतना सूक्ष्म और सुंदर नहीं होता था. इसके अलावा देश के विभिन्न इलाकों में भी इनका चित्रण भी अलग-अलग तरीके से होता था. लेकिन अद्भुत प्रतिभा के चित्रकार राजा रवि वर्मा ने सरस्वती के ऐसे रूप की कल्पना की जो विविधताओं से भरे भारत के हर प्रांत के लोगों के लिए आसानी से ग्राह्य हो. उनका यह प्रयास इतना सफल रहा कि इसके बाद बनने वाली सरस्वती की तमाम मूर्तियों पर भी रवि बाबू की इस ऐतिहासिक कृति का साफ असर देखा जाने लगा.
जानकारों का मानना है कि राजा रवि वर्मा की ज्यादातर पेंटिग्स की देवियों का चेहरा और उनकी वेष-भूषा पर दक्षिण भारत का असर होता था. ऐसे लोगों के अनुसार सरस्वती की पेंटिंग में भी चेहरा, मुकुट, साड़ी और कानों में पहने गए आभूषण पर दक्षिण भारतीय शैली का साफ असर है. उनकी साड़ी दक्षिण भारत की मशहूर कांजीवरम शैली जैसी बताई जाती है. हालांकि रवि वर्मा ने ऐसा करते हुए भी अपनी तस्वीरों को उत्तर भारतीय विशेषताओं से बिल्कुल अलग नहीं होने दिया. उन्होंने बड़ी ही सूक्ष्मता से दोनों क्षेत्रों की खूबियों के बीच तालमेल बिठाया था.
शायद रवि वर्मा यह बात अच्छे से समझते थे कि किसी कृति की लोकप्रियता के लिए यह जरूरी है कि वह एकीकृत भारत के भाव को संप्रेषित करे. बताया जाता है कि इस चीज को समझने के लिए उन्होंने न सिर्फ भारत के कई प्राचीन मंदिरों की यात्रा की थी बल्कि धार्मिक साहित्य का गहन अध्ययन भी किया था. इससे उन्हें अपने चित्रों के लिए तमाम विषय तो मिले ही, उनके परिवेश और पात्रों की विशेषताओं की भी सूक्ष्म जानकारी मिली.
राजा रवि वर्मा की चित्रकला की खासियत
राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं की पेंटिंग बनाने के लिए आॅयल कलर्स यानी तैलीय रंगों का सहारा लिया. उनकी तमाम मशहूर रचनाएं इनसे ही बनाई गई थीं. चित्रकला की इस शैली में रंग निखर कर आता है और इसे सालों तक सुरक्षित रखना संभव होता है. आलोचक भी मानते हैं कि उनके जैसी ऑयल पेंटिंग बनाने वाला दूसरा चित्रकार इस देश में आज तक नहीं हुआ.
राजा रवि वर्मा ने सरस्वती के अलावा लक्ष्मी, उर्वशी-पुरुरवा, नल-दमयंती, जटायु वध और द्रौपदी चीरहरण जैसे सैकड़ों पौराणिक कथानकों को भी अपने कैनवास पर उतारा था. उनसे पहले देवी-देवताओं का चित्रण मंदिरों में मूर्तियों के रूप में होता था. कोई यदि इनकी पेंटिंग बनाता भी था तो वह इतनी सूक्ष्मता लिए हुए नहीं होती थी. लेकिन उन्होंने न केवल यादगार चित्र बनाए बल्कि अपनी प्रेस से इन कृतियों की हजारों-लाखों प्रतियां छपवाकर उन्हें सस्ते में आम लोगों के बीच बेचा. इसी का परिणाम हुआ कि उनकी ज्यादातर रचनाएं भारतीयों के जेहन में गहरे पैठने में कामयाब रही.
पेंटिंग्स से जुड़े विवाद
राजा रवि वर्मा पर हिंदू कट्टरपंथियों ने कई तरह के आरोप लगाए थे. सबसे बड़ा आरोप धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का था. कहा गया कि रवि वर्मा की पेंटिंग में जो देवियां होती हैं उनका चेहरा उनकी प्रेमिका ‘सुगंधा’ से मिलता है. वह शादीशुदा थी जिनके बारे में यह भी कहा गया कि वह एक वेश्या की बेटी थीं. विरोधियों का आरोप था कि राजा रवि वर्मा एक वेश्या की बेटी को देवी के रूप में चित्रित कर उन्होंने हिंदुओं की भावना को ठेस पहुंचायी है.
उर्वशी और रंभा के अर्द्धनग्न चित्रों को लेकर उन पर अश्लीलता के भी आरोप लगाए गए थे. हालांकि लंबी बहस के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने उन पर लगाए गए ये सभी आरोप खारिज कर दिए. लेकिन इस चक्कर में उन्हें काफी आर्थिक नुकसान हो गया था. बताया जाता है कि गुस्साए लोगों ने उनकी मुंबई स्थित प्रेस को भी जला दिया था. उसमें न केवल मशीन बल्कि कई बहुमूल्य चित्र भी जल गए थे. हालांकि कई लोग अग्निकांड वाली बात को सच नहीं मानते.
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