हाल ही में आई नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे की रिपोर्ट में सामने आया है कि देश में बेटियों की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों की संख्या में वृद्धि हुई है. 2005-06 में जहां सिर्फ 70 फीसदी महिला-पुरुष ही बेटियां चाहते थे, वहीं वर्तमान में करीब 79 फीसदी लोगों की चाहत है कि उनके परिवार में एक बेटी जरूर हो. इस बात का एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि पिछले एक दशक में बेटी चाहने वाली महिलाओं में जहां पांच फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई है. वहीं ऐसे पुरुषों की संख्या अब 13 फीसदी ज्यादा हो गई है. लेकिन कुल मिलाकर अधिकतर वर्गों में बेटी चाहने वाली महिलाओं की संख्या अभी भी पुरुषों से ज्यादा है. यह सर्वे 49 साल तक की महिलाओं और 54 साल तक के पुरुषों के बीच किया गया है.
इस सर्वे में यह भी सामने आया है. कि ग्रामीण इलाकों में बेटी की चाहत ज्यादा है. 75 फीसदी शहरी महिला-पुरुषों की तुलना में लगभग 80 फीसदी ग्रामीण महिला-पुरुष बेटियां चाहते हैं. इसके साथ ही एक और आश्चर्यजनक बात यह है कि साक्षरों की तुलना में निरक्षर महिला-पुरुष बेटे और बेटी में कम भेदभाव करते नजर आते हैं. अगर आंकड़ों में बात करें तो सिर्फ 73 प्रतिशत साक्षर महिला-पुरुष ही बेटी चाहते हैं, जबकि ऐसा चाहने वाले निरक्षरों का आंकड़ा 84 फीसदी है.
समाज में लड़कियों के खिलाफ चौतरफा बढ़ रही हिंसा के बावजूद बेटियों की बढ़ती चाह के पीछे जानकार कई कारण मानते हैं. एक तो बेटियां भी आजकल पढ़-लिखकर बेटों की तरह कमाने लगी हैं. दूसरा, भावनात्मक रूप से परिवार से ज्यादा जुड़े होने के कारण, शादी के बाद भी वे माता-पिता के साथ ज्यादा संपर्क बनाये रखती हैं. तीसरा, मांएं अक्सर ही बेटियों से अपने दिल की बातें शेयर कर पाती हैं बेटों से नहीं. यहां तक कि शादी के बाद भी वे अपने दिल की बात बेटियों से ही बांटती हैं. इस कारण अपना दिल हल्का करने के लिए भी महिलाएं कम से कम एक बेटी को जरूरी मानती हैं.
शहरों की अपेक्षा गांवों में बेटियों की ज्यादा चाहत के पीछे जानकार दो मुख्य वजहें मानते हैं - एक तो गांवों में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा शारीरिक श्रम करती हैं, जिसमें सिर्फ बेटियां ही उनका हाथ बांटती हैं. ज्यादा बेटियों का होना मां के लिये अंतहीन काम के बोझ से राहत का एक बड़ा जरिया हैं. दूसरा, ग्रामीण परिवेश लड़कियों के लिए अभी भी शहरों से ज्यादा सुरक्षित हैं, इस कारण भी उनकी सुरक्षा का मसला वहां उतना गंभीर अभी तक नहीं हुआ है जितना कि यह शहर के माता-पिताओं के लिये है.
हालांकि परिवार में बेटियों के मुकाबले बेटा ज्यादा चाहने वाले महिला-पुरुषों की संख्या अभी भी 19 प्रतिशत है,जबकि बेटों से ज्यादा बेटियां चाहने वाले महिला-पुरुषों की संख्या महज 3.5 फीसदी ही है. समाज में बढ़ते एक बच्चे के चलन में अभी भी लोग बेटी की अपेक्षा बेटे को ही तरजीह देते हैं. लेकिन इस सबके बावजूद बेटियों की बढ़ती चाहने आने वाले समय के लिए एक सकारात्मक संकेत है.
इस सर्वे में स्पष्ट तौर पर सामने आता है कि शहरी, ग्रामीण, निरक्षर या फिर साक्षर हर तबके की महिलाओं का प्रतिशत, बेटी चाहने वाले पुरुषों से ज्यादा है. ये आंकड़े उस धारणा को तोड़ते हैं जिसके तहत अक्सर ही यह सुनने में आता है कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं इसलिए वे कन्या भ्रूणों का गर्भपात करा देती हैं. असल में ससुराल वालों के भयंकर दबाव और बेटी पैदा होने पर अपने साथ होने वाली प्रताड़ना के डर के चलते ही, अक्सर माएं कन्या भ्रूणों के गर्भपात के लिए तैयार होती हैं. अपवाद हो सकते हैं.
घरेलू हिंसा, सार्वजनिक जगहों पर हिंसा, शारीरिक हिंसा, मानसिक हिंसा, भावनात्मक हिंसा और यौन हिंसा की जितनी घटनाएं महिलाओं के साथ होती हैं, उतनी पुरुषों के साथ नहीं होती. साथ ही घर-परिवार की इज्जत का पूरा भार तो लगभग महिलाओं पर ही होता है जिसके चलते वे हर समय एक पहरा सा महसूस करती हैं अपने ऊपर. घर-परिवार की इसी इज्जत की गठरी को संभालने के चक्कर में वे बहुत सारे मौकों पर मनचाहा नहीं कर पातीं. स्वेच्छा से जीने की जितनी और जैसी आजादी लड़कों को है, उतनी और वैसी आजादी लड़कियों को आज भी दूर-दूर तक नहीं मिली.
मतलब जिंदगी को अपनी खुशी के हिसाब से जीने के न्यूनतम मौके महिलाओं को मिलते हैं. घर के भीतर प्यार और इज्जत पाने के लिए जितना लड़कियां तरसती हैं, उतना लड़के कभी भी नहीं तरसते, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि लड़के जानते भी नहीं कि परिवार में प्यार न मिलने जैसी भी कोई चीज होती है. जितनी और जैसी उपेक्षा लड़कियों को कदम-कदम पर आजीवन मिलती है, वैसी लड़कों को एक दिन तो क्या कुछ घंटों के लिये भी नहीं झेलनी होती. इसी तरह कामकाजी महिलाओं के ऊपर घर, नौकरी और बच्चे के बीच सबसे बेहतर संतुलन का जितना दबाव है, वैसा पुरुषों पर कभी भी नहीं होता.
इन सब बंदिशों, अभावों, हिंसाओं, उपेक्षाओं, अपमानों और किस्म-किस्म के दबावों के बावजूद महिलाओं की जीवटता पुरुषों से कहीं अधिक है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के ये आंकड़े असल में महिलाओं की जीवटता को ही प्रदर्शित करते हैं. जीवन के विरुद्ध भीषण संग्राम में उनकी जिजीविषा का ही कमाल है कि दबी-दबी ही सही, लेकिन उनकी चाह बढ़ रही है. सच में बेटियां ही हैं, जो उपेक्षा और अभावों में भी पता नहीं कैसे, पर पनपती रहती हैं. पत्ता-दर-पत्ता, शाख-दर-शाख.
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