हाल ही में राजस्थान में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जबरदस्त जीत के बाद प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबरेज हैं. जानकारों के मुताबिक राजस्थान विधानसभा चुनावों के सेमीफाइनल माने जा रहे इन उपचुनावों ने चुनाव-दर-चुनाव सत्ता बदलने वाली सूबे की जनता के रुख का इशारा दे दिया है. ऐसे में कांग्रेस का उत्साह स्वाभाविक है.

लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि पार्टी अगले विधानसभा चुनावों को लेकर पूरी तरह निश्चिन्त हो सकती है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस दौरान पार्टी को बाहरी और भीतरी कई बड़ी चुनौतियों से जूझना होगा. विश्लेषकों के मुताबिक उपचुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश इकाई ही नहीं बल्कि कांग्रेस हाईकमान भी खासा सतर्क हुआ है. इसके चलते प्रदेश संगठन में जल्द ही बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं.

जानकारों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बीते तीन साल में जिस तरह से अपनी पारी खेली है, उसे देखकर नहीं लगता कि वे आसानी से राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश को अपने हाथ से फिसलने देंगे. राजस्थान ने पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी सभी 25 लोकसभा सीटें भाजपा की झोली में डाल दी थीं. माना जा रहा है कि ऐसे में अगले करीब डेढ़ साल में होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों तक कांग्रेस के लिए उपचुनाव में मिली बढ़त को बनाए रखना बड़ी चुनौती साबित होगा.

लेकिन कांग्रेस पर नज़र रखने वाले राजनीतिकारों की मानें तो विरोधियों से निपटने से भी बड़ी एक चुनौती पार्टी के मुंह बाएं है. यह चुनौती है उसके भीतर चल रही खींचतान को चुनावों तक प्रदेश की जनता से छिपाए रखने की. असल में दूसरे राज्यों की तरह प्रदेश कांग्रेस भी कई गुटों में बंटी हुई है. इनमें से एक प्रमुख गुट का नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत कर रहे हैं और दूसरे का पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट. पंजाब की जीत और गुजरात में कांग्रेस के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद वहां महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल रहे अशोक गहलोत का कद संगठन में तेजी से बढ़ा है. इसे देख माना जा रहा था कि राजस्थान में कांग्रेस की तरफ से वे ही मुख्यमंत्री पद के लिए पहली पसंद होंगे. लेकिन उपचुनाव के नतीजों के बाद बीते एक सप्ताह में जहां सचिन पायलट और उनके सहयोगियों के हाव-भाव में जबरदस्त आत्मविश्वास दिख रहा है तो वहीं गहलोत खेमे में चिंता साफ तौर पर महसूस की जा सकती है.

लेकिन प्रदेश कांग्रेस की अंदरखाने तनातनी सिर्फ इन दो गुटों तक सिमटी नहीं है. संगठन और भी कई खेमों में बंटा हुआ है. पार्टी के कई नेताओं का एक समूह राष्ट्रीय महासचिव प्रदेश के कद्दावर नेता सीपी जोशी के पीछे खड़ा दिखता है. 2008 में जोशी कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन अपनी सीट पर एक वोट से हारने के बाद उनकी उम्मीद धरी रह गई. फिर 2014 के लोकसभा चुनावों में जयपुर ग्रामीण सीट पर भाजपा के राज्यवर्धन सिंह राठौड़ से मिली शिकस्त के बाद उन्होंने प्रदेश की राजनीति में रुचि दिखाना लगभग खत्म कर दिया.

लेकिन बीते साल राजस्थान क्रिकेट एसोशिएशन (आरसीए) चुनाव जीतने के बाद जिस संख्या में कांग्रेसी उनसे मिलने पहुंचे उसे जानकारों ने पार्टी के एक पुराने खेमे के पुनर्जन्म के तौर पर देखा. इस उपचुनाव में भी सीपी जोशी ने अपने पूर्व लोकसभा क्षेत्र भीलवाड़ा के अधीन आने वाली मांडलगढ़ विधानसभा सीट को जिताने में जिस तरह से जी-जान एक किया है उसे देखकर नहीं लगता कि उन्होंने अभी सूबे की राजनीति को अलविदा कहने का मन बनाया होगा.

जोशी के अलावा प्रदेश कांग्रेस में एक बड़ा खेमा सूबे के प्रभावशाली जाट समुदाय से आने वाले रामेश्वर डूडी के साथ दिखता है. डूडी राजस्थान में नेता प्रतिपक्ष भी हैं. राजस्थान में करीब 20 फीसदी मतदाता जाट समुदाय से आते हैं और प्रदेश के 33 में से करीब आधे जिलों में इस समुदाय का खासा असर है. विधानसभा सीटों के हिसाब से देखें तो यह संख्या 200 में करीब 80 बैठती है. हालांकि खुले तौर पर डूडी मुख्यमंत्री पद की लालसा कम ही दिखाते हैं, लेकिन उन्हें करीब से जानने वालों के मुताबिक मौका मिलने पर वे इस पद पर दावा करने से पीछे भी नहीं हटेंगे.

प्रदेश कांग्रेस के इन चारों कद्दावर नेताओं के आपसी समीकरणों को समझने की कोशिश करें तो माना जाता है कि गहलोत ने उपचुनाव की जीत को पहले ही भांपते हुए विवादित बयान दिया था कि प्रदेशाध्यक्षों को अपना ध्यान मुख्यमंत्री पद पर नहीं लगाना चाहिए. हालांकि बाद में उन्होंने इस बात की सफाई दी कि मीडिया ने उनके बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया है. लेकिन एक-एक बात को कहने से पहले सौ बार तोलने वाले गहलोत के करीबी समझ गए कि इस बयान के जरिए उन्होंने पायलट पर ही निशाना साधा था. वहीं दूसरी तरफ 2008 का चुनाव हारने के पीछे सीपी जोशी अशोक गहलोत को प्रमुख जिम्मेदार मानते हुए उन्हें अपने प्रबल विरोधी की तरह देखते हैं. हालांकि युवा सचिन पायलट के प्रदेश की राजनीति में तेजी से उभरने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता सीपी जोशी और अशोक गहलोत के समर्थक गुट आपस में कई बार लामबंद होते देखे गए. उधर, रामेश्वर डूडी बड़ी सावधानी से गहलोत, जोशी और पायलट तीनों के ही साथ संतुलित रिश्ते बनाए हुए दिखते हैं.

प्रदेश कांग्रेस के इन बनते-बिगड़ते रिश्तों को देखते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘कांग्रेस की चुनौतियां चुनाव हारने के बजाय जीतने के बाद ज्यादा बढ़ जाती हैं.’ हालांकि सूत्रों के मुताबिक पार्टी हाईकमान के कड़े निर्देश हैं कि प्रदेश संगठन के ये कद्दावर नेता हर तरह का आपसी विवाद भूलकर अपना पूरा ध्यान 2018 की आखिरी तिमाही तक होने वाले विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में लगाएं. शायद यही कारण है कि हाल-फिलहाल प्रदेश कांग्रेस के छोटे-बड़े नेता एक स्वर में कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का चयन या तो हाईकमान करेगा या फिर विधायक दल.

सत्याग्रह से हुई बातचीत में रामेश्वर डूडी कहते हैं, ‘जहां गहलोत के पास एक लंबा राजनैतिक अनुभव है तो पायलट जबरदस्त ऊर्जा से लबरेज हैं और जोशी की प्रदेश में अपनी अलग पहचान और पकड़ है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने गुजरात में जो शानदार प्रदर्शन किया है उसे हम एकजुट होकर राजस्थान में बरकरार रखेंगे और विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल करेंगे.’

डूडी की बात को सही मानें तो यह कांग्रेस के लिए अच्छा इशारा हो सकता है. लेकिन सूत्रों का कहना है कि चुनाव आते-आते पार्टी में अंदरखाने गर्मी इतनी बढ़ जाएगी कि आपसी-खींचतान जाहिर होने लगेगी. प्रदेश के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘यदि कांग्रेस के नेता चुनावों तक अपना अंतर्द्वंद छिपा नहीं पाए तो इससे मतदाता भ्रमित होंगे और भाजपा इस बात का पूरा फायदा उठाने की कोशिश करेगी. ऐसे में कांग्रेस को खुद को समेटे रखना होगा अन्यथा, पार्टी सूबे में हाथ आई बाजी खो भी सकती है.’