उस साल कच्छ के रण में पाकिस्तान ने 32 किलोमीटर लंबी सड़क बनाकर चीन की लिखी इबारत दोहरा दी थी. 1957 में अक्साई चिन में चीन ने यही किया था. इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों मुल्कों के बीच तनातनी हो गयी. झगड़ा कच्छ के रण में आने वाले कंजरकोट, बीराबेट और छाड़बेड नाम के इलाकों को लेकर शुरू हुआ. उस वक़्त देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी. दूसरी तरफ़ पाकिस्तान सरकार के सिरमौर फ़ौजी आमिर मुहम्मद अयूब खान थे.

मिर्ज़ा ग़ालिब के एक शेर की लाइन बहुत मौजूं है ‘...ज़ख्म के भरने तलक नाख़ून न बढ़ जाएंगे क्या?’ 1948 का ज़ख्म अभी तक हरा ही था कि दोनों मुल्क दूसरी बार फिर भिड़ गए. यह साल 1965 की बात है.

जंग क्यों हुई?

जिन इलाकों का ऊपर ज़िक्र हुआ है उन्हें दोनों मुल्क अपना हिस्सा मानते थे. कमाल की बात यह है कि अक्साई चिन की माफ़िक कच्छ के ये इलाके भी बंज़र हैं. खारे पानी के दलदल के अलावा इनमें ज़्यादा कुछ नहीं. पर पाकिस्तान ने फिर भी इसको पाने के लिए ज़ोर अजमाइश की.

रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि जब शेख़ अब्दुल्ला हज करने गए थे तो रास्ते में वे अल्जीरिया रुके और चीनी नेता चाऊ एन लाई से मिले. वही जिनकी वजह से 1962 की लड़ाई हुई थी. दिल्ली सरकार इस मुलाकात से ख़फ़ा हो गई. जब शेख़ अब्दुल्ला वतन लौटे तो पुलिस ने उन्हें धर लिया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कच्छ की घटनाओं और शेख़ के पकड़े जाने से कश्मीर में उपजे हालात ने अयूब खान के ज़हन में बीज बोया कि क्यों न इस मौके का फ़ायदा उठाया जाए और कश्मीर पर हमला बोलकर उसकी सौदेबाज़ी की जाए. अयूब खान का प्लान था कि जीते तो भी और अगर बाहरी ताकतों ने बीच बचाव किया तब भी, कश्मीर का कुछ न कुछ हिस्सा हाथ लग ही जाएगा.

पाकिस्तान की किस-किस की शह मिली हुई थी?

1962 में भारत की चीन के हाथों हुई करारी हार ने पाकिस्तान के मंसूबे बढ़ा दिए थे. अमेरिका उसको हथियार दे रहा था. मसलन, उसने पाकिस्तान को तब दुनिया के सबसे घातक पैटन टैंक की 10 रेजिमेंटें दी थीं. लगभग 800 टैंक! उधर अयूब खान ने रूस ने भी अलिखित संधि कर ली कि युद्ध होने के हालात में वह तटस्थ रहे. चीन का भारत विरोधी रुख तो जग ज़ाहिर था. कुल मिलाकर रणनीतिक और राजनीतिक बिसात तैयार हो चुकी थी, बस उसे अमली जामा पहनाया जाना बाकी था. इसके लिए अयूब खान ने सैनिक ऑपरेशन शुरू किया. इसका नाम था -ऑपरेशन जिब्राल्टर.

ऑपरेशन जिब्राल्टर क्या था

पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर हथियाने का एक बड़ा ही दुस्साहसी प्लान बनाया. प्लान के मुताबिक़ पाकिस्तानी सैनिक भेस बदलकर कश्मीर में घुसते. फिर अफरा-तफरी का माहौल बनाकर और दंगे करवाते, कश्मीर को हिंदुस्तान से जोड़ने वाली सड़क, हवाई पट्टियों पर कब्ज़ा करते, कुछ कश्मीरी अलगाववादियों के साथ मिलकर बाग़ी शूरा (विधानसभा) बनाते और रेडियो स्टेशन पर कब्ज़ा कर वहां से कश्मीर को आज़ाद घोषित करते. इसके बाद पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसकर फ़तह पा लेती. साजिश को अंजाम देने के लिए शेख़ अब्दुल्ला की क़ैद की बरसी वाला दिन तय हुआ.

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अगस्त आठ और नौ की दरमियानी रात भारी कवर फ़ायर के साए में क़रीब तीन हज़ार पाक सैनिक कश्मीर में घुस गए और पुंंछ में तैनात ब्रिगेड पर हमला बोल दिया. भारतीय सेना की उस ब्रिगेड ने उन्हें ज़बरदस्त टक्कर दी. हमलावरों के पैर उखड़ गए और अगले ही दिन वे भाग खड़े हुए. ऑपरेशन जिब्राल्टर नाकामयाब हो गया.

खार खाए पाकिस्तान का निर्णायक हमला

अप्रैल 1965 में कच्छ में शुरू हुई मुठभेड़ और ऑपरेशन जिब्राल्टर के नाकामयाब होने के बाद आख़िरकार पाकिस्तान ने एक सितंबर, 1965 को निर्णायक हमला बोल दिया. इसे नाम दिया गया - ऑपरेशन ग्रैंडस्लैम. कश्मीर से लेकर पंजाब और राजस्थान से लेकर गुजरात तक की सीमा धधक उठी. जाने क्या सोचकर पाकिस्तान ने पूर्वी सेक्टर, ईस्ट पाकिस्तान की तरफ से हमला नहीं बोला.

जवाहर लाल बनाम लाल बहादुर

कुलदीप नायर अपनी जीवनी ‘बियॉन्ड द लाइन्स’ में लिखते हैं कि कश्मीर लाल बहादुर शास्त्री की नज़र में बड़ा मुद्दा नहीं था. वे उसी साल यानी 1965 में हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिए जाने पर मचे बवाल को लेकर ज़्यादा परेशान थे. फिर भी उन्हें जब कच्छ में पाक कारगुज़ारी की ख़बर मिली तो उन्होंने तुरंत ही संसद को यह बताया. अक्साई चिन में चीन की कारस्तानी की खबर देश से कई दिनों तक छुपाई गई थी. खैर साहब, भारत ने दुनिया के सामने तस्वीरें पेश कर दीं जिनमें साफ़ दिख रहा था कि पाकिस्तान ने कच्छ में अमेरिकी पैटन टैंक फैला दिए हैं. अमेरिका ने पाकिस्तान को लताड़ा पर तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी. अयूब खान और उनके जनरल मूसा खान ने कहा कि यह उनके मुल्क का मामला है, वे अपनी सेना और संसाधन कहीं भी लगा सकते हैं.

लाल बहादुर शास्त्री पशोपेश में थे. उन्हें लगता था कि वे अयूब खान से बातचीत कर मुद्दे को सुलझा लेंगे. शास्त्री उस वक़्त लंदन में चल रही राष्ट्र्मंडल कांफ्रेंस में शामिल थे. शायद महाभारत का अंजाम जानते थे. दुर्योधन महज़ पांच गांव दे देता तो शायद वह जंग न होती. लिहाज़ा, टकराव को रोकने के लिए वे कच्छ का लगभग 350 मील टुकड़ा पाकिस्तान को देने को राज़ी हो गए. पाकिस्तान ने पेशकश ठुकरा दी. अयूब खान को नेहरू भी नहीं समझा पाए थे और अब शास्त्री भी कुछ ऐसा ही मान रहे थे.

एक सितंबर को किये गए पाकिस्तान के निर्याणक हमले का जवाब देने के लिए भारतीय सेना तैयार तो नहीं थी, पर हाथ पर हाथ धरे भी नहीं बैठा जा सकता था. तत्कालीन जीओसी पश्चिमी कमांड और वीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह अपनी क़िताब ‘इन दी लाइन ऑफ़ ड्यूटी’ में लिखते हैं, ‘हिंदुस्तानी सेना वह क्षण नहीं भूल पाएगी जब सेना प्रमुख जनरल जेएन चौधरी शास्त्री के पास गए तो उन्होंने बिना देर लगाये भारतीय सेना को पाकिस्तान में घुसकर मुंहतोड़ जवाब देने का हुक्म सुना दिया. सबसे छोटे कद के आदमी ने सबसे ऊंचा निर्णय दे दिया था.’ भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई के लिए ‘ऑपरेशन रिडल’ को अंजाम दे दिया. पाकिस्तान के ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ को नाकामयाब करने में भी लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह सबसे अहम किरदारों में से एक थे.

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि जब इंदिरा गांधी से पूछा गया कि क्या नेहरू भी शास्त्री जैसा आदेश दे सकते थे तो उन्होंने कहा कि हां. नैयर इंदिरा की राय से इत्तेफाक नहीं रखते.

कुछ दिलचस्प और कुछ रुला देने वाले किस्से

कुलदीप नैयर एक दिलचस्प किस्सा बयान करते हैं. ‘जब बात तुरंत सैनिक कार्रवाई की आई तो जनरल जेएन चौधरी कुछ असमंजस में थे. उनके मुताबिक़ फौज तैयार नहीं थी. उनका रवैया देखकर बिहार के सांसद राम सुभाग सिंह उनके पास गए और तंज़ मारा कि अगर जनरल साहब बंगाली न होकर बिहारी होते तो लड़ने से नहीं डरते. इस पर जनरल ने अपने कमरे में रखी मशीनगन उन्हें थमा दी जिसे राम सुभाग सिंह उठा भी नहीं पाए!’

रचना रावत बिष्ट की लिखी गई क़िताब ‘1965’ में इस लड़ाई के दौरान गंभीर रूप से घायल हुए महावीर चक्र विजेता मेजर भूपिंदर सिंह सरीखे कई बहादुरों का ज़िक्र है. मरणासन्न मेजर को मिलने जब शास्त्री अस्पताल पहुंचे तो उन्हें देख मेजर रो दिए. शास्त्री ने कहा, ‘वीरों को रोना शोभा नहीं देता.’ इस पर मेजर बोले, ‘मैं इसलिए नहीं रो रहा कि मैं मरने वाला हूं, बल्कि इसलिए कि मैं कितना अभागा हूं, मेरे सामने मेरा प्रधानमंत्री है पर मैं सैल्यूट नहीं कर पा रहा हूं.’

हाजी पीर पर मेजर रणजीत सिंह दयाल

जो कश्मीर लड़ाई के केंद्र में था उसको घेरे पीर पंजाल पहाड़ियां हैं. उन्हीं में एक जगह है, हाजी पीर. यह पाकिस्तान वाले कश्मीर का हिस्सा था. लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह की कमांड में इसे जीतने का ज़िम्मा ब्रिगेडियर ज़ोरावर चंद बक्शी की 68 इन्फेंट्री ब्रिगेड को दिया गया. हाजी पीर जीतने का मतलब था जम्मू से श्रीनगर की दूरी को 200 किलोमीटर कम करना. साथ ही, पाकिस्तानी सेना की रसद की आमद का रास्ता रोकना और उसकी कमर तोड़ना. 68 इन्फेंट्री ब्रिगेड की यूनिट एक पैरा के मेजर रणजीत सिंह दयाल ने महज़ एक कंपनी (फौज की सेना की एक टुकड़ी) के हौसले और अपनी सूझबूझ से जीत ली. इस बहादुरी पर उन्हें महावीर चक्र से नवाज़ा गया.

टैंकों की लड़ाइयां, असल उत्तर से चाविंडा तक

1965 की जंग दोनों सेनाओं के टैंकों की लड़ाइयों के लिए भी याद की जाती है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यहीं सबसे भीषण मुठभेड़ हुई. असल उत्तर पंजाब का वह सरहदी इलाका है जो पाकिस्तानी पैटन टैंकों की कब्रगाह बना. यहीं से जनरल हरबक्श सिंह ने पाकिस्तानी सीमा में घुसने का प्लान बनाया था. इसके लिए सबसे पहले पाकिस्तानी सीमा में पड़ने वाली इच्चोगिल नहर को तहस नहस किया जाना था. ख़बर थी कि लाहौर के पास वाले शहर कसूर और खेमकरन सेक्टर से होकर ही पाकिस्तान के पैटन टैंक भी हिंदुस्तान में घुसेंगे. यह वही कसूर शहर है जिसके बारे में कहते हैं कि उसे राम के बेटे कुश ने बसाया था. यहीं मशहूर गायिका नूरजहां पैदा हुई थीं और यहीं के थे मुहब्बत के नग्मे गाने वाले पीर बुल्लेशाह.

वापस अपनी बात पर आते हैं. भारत के पास तो महज़ कुल तीन टैंक रेजिमेंटें ही थीं और वे भी पुराने सेंचुरियन और कुछ दुसरे विश्वयुद्ध के शेर्मन टैंक थे. बताते हैं कि यह सब मेहरबानी वीके कृष्ण मेनन साहब की थी जो हथियार भी सिर्फ समाजवादी देशों से ही ख़रीदते थे. उनकी नज़र में पूंजीवादी हथियार भी एक अभिशाप से कम नहीं थे.

इसके बावजूद भारतीय सेना ने पैटन टैंकों को इस इलाके में नेस्तनाबूद कर दिया था. क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद इस जंग के सबसे बड़े नायक निकले जिन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला.

हर मुल्क की सेना अपने-अपने दावे करती है. पाकिस्तानी राष्ट्रपति और जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ अपनी किताब ‘इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर’ में चाविंडा की लड़ाई को भारतीय सेंचुरियन टेकों की कब्रगाह मानते हैं. यहां पाकिस्तानी बख्तरबंद डिविज़न भारतीय टैंकों पर भारी पड़ी थी. मुशर्रफ़ उस जंग में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट लडे थे और उन्हें वीरता दिखाने के लिए सैनिक सम्मान से नवाज़ा गया था.

गुमनाम तीन तिलंगे

रचना बिष्ट रावत अपनी क़िताब में 4 ग्रेनेडियर कंपनी के उन तीन बहादुर सिपाहियों का ज़िक्र करती हैं जो कंपनी में ‘बदमाश बच्चे’ कहलाये जाते थे. 10 सितंबर को ख़बर मिली कि पाकिस्तान की इन्फेंट्री यूनिट असल उत्तर के इलाके में बड़ा हमला करने वाली है. यहां तैनात कंपनी के 3 ग्रेनेडियर- शफीक, नौशाद और सुलेमान का अचानक मुकाबला पाकिस्तानी सेना के जनरल ऑफिसर कमांडिंग से हो गया. सामने फौज का इतना बड़ा अफ़सर देखकर वे तीनों भौचक रह गए. तभी कंपनी कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल हरी राम जानू वहां आ गए. इतना बड़ा मौका देखकर उन्होंने तुरंत उन तीनों सिपाहियों को फ़ायरिंग का आदेश दिया. पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल नसीर अहमद खान वहीं ढेर हो गए. अफ़सोस की बात है उन तीनों बहादुरों को कोई सम्मान नहीं मिला. पता नहीं कालांतर में सरकार का इस ओर ध्यान क्यों नहीं गया. कोई बात नहीं, देश उन्हें ज़रूर याद करेगा.

जंग का नतीजा क्या रहा?

1965 की लड़ाई में दोनों ही मुल्क अपनी अपनी रणनीतिक जीत का दावा करते हैं. कहीं भारतीय सेना भारी थी तो कहीं पाकिस्तानी. भारतीय सैनिक लाहौर के एकदम निकट पहुंच गए थे. हाजी पीर भी कब्ज़े में था. वहीं कुछ भारतीय इलाकों में पाकिस्तानी सेना जीती थी. दोनों सेनाओं की टैंक डिविज़नें बर्बाद हुईं, दोनों मुल्कों को भारी नुकसान हुआ. आखिरकार संयुक्त राष्ट्र, रूस और अमेरिका के बीच बचाव से युद्ध विराम लागू हुआ. ‘न तुम जीते, न हम हारे’ वाली बात हुई.

ताशकंद समझौता जिसके बाद शास्त्री वापस नहीं आ पाए

10 जनवरी, 1966 को रूस के ताशकंद में दोनों मुल्कों के बीच समझौता हुआ. समझौते के मुताबिक़ दोनों सेनाओं को जीते गए इलाके खाली करने के लिए कहा गया. भारतीय सेना ने हाजी पीर, तीथवाल इलाक़ों से वापसी की तो पाकिस्तान से खेमकरण और छंब सेक्टर खाली किये. भारतीय सेना ने जीता हुआ 1920 वर्ग किलोमीटर इलाका छोड़ा तो पाकिस्तान ने 540 वर्ग किलोमीटर से वापसी की. दोनों मुल्कों के लोग और सेनाएं आज भी मानती हैं कि ताशकंद समझौता उनके लिए घाटे का सौदा रहा.

सेनाओं के दावे पर बहस की जा सकती है. पर इस पर बहस नहीं की जा सकती कि शहीद सैनिकों के परिवार को हुई हानि की भरपाई कभी नहीं हो सकती. लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद में ही दिल का दौरा पड़ा. वे चलकर गए थे. वापस आई उनकी पार्थिव देह.

‘कमज़ोर हिंदू फौज’ वाली धारणा ख़त्म हो गयी

1962 की लड़ाई के बाद अमेरिकी सांसद रिचर्ड रसेल ने तो हिन्दुस्तानी सेना को कायर तक कह दिया था. उन्होंने तब अमेरिका पर भारत को हथियार न देने के लिए यह कहकर दवाब बनाया कि नेहरू खैरात में मिले हथियार चीन को दे देंगे. अयूब खान को भी लगा कि ‘हिंदू सेना’ कुछ ही दिनों में घुटने टेक देगी.

पर अयूब खान एक बात भूल गए. आजादी के पहले हिंदुस्तानी राज्य एक नहीं थे. वे सिर्फ अपने मकसद के लिए ही लड़ते थे. एकजुट होना नहीं जानते थे. आजादी के बाद बिखरी हुई उंगलियां मुट्ठी की शक्ल ले चुकी थीं. 1965 की लडाई ने भारत को विश्वास दिलाया कि जंग को जीता भी जा सकता है. इसके बाद बांग्लादेश और कारगिल की लड़ाई का अंजाम सब जानते हैं.