1967 में कांग्रेस इंदिरा गांधी की सरपरस्ती में पहला आम चुनाव लड़ने जा रही थी. इससे पहले 1964 से लेकर 1966 तक देश चार प्रधानमंत्रियों को देख चुका था. जवाहरलाल नेहरू ने देश में गणतंत्र की ठोस नींव रख दी थी. उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री के 15 महीने का कार्यकाल भी निर्णायक था. इंदिरा गांधी कोई बहुत तजुर्बेकार नेता नहीं थीं. लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की असमय मौत के बाद बने हालात में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के समूह, जिसे ‘सिंडिकेट’ कहा जाता था, को लगा कि उनसे बेहतर कोई और विकल्प नहीं हो सकता. उन्हें नेहरू का जायज़ राजनैतिक उत्तराधिकारी भी माना जाता था. लिहाज़ा, कांग्रेस के अध्यक्ष के कामराज ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को राज़ी कर इंदिरा गांधी को अगला प्रधानमंत्री चुन लिया था. इधर, 1967 के आम चुनाव आ गए थे उधर, देश के अंदरूनी हालात कुछ ठीक नहीं थे.

देश में हलचल
लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में हिंदी को राजभाषा बनाये जाने से देश में अफरातफ़री मची हुई थी. यूं तो देश में कृषि वैज्ञानिक के स्वामीनाथन के निर्देशन में हरित क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन अनाज की तंगी जारी थी. उधर, क्षेत्रीय ताक़तें मुखर हो रहीं थी. मुद्रास्फीति बढ़ी हुई थी. पंचवर्षीय योजनाएं भी कुछ ज़्यादा कारगर साबित नहीं हो रही थीं. अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी. इसको देखते हुए इंदिरा गांधी ने पहली बार रुपये का अवमूल्यन किया था. पर यह भी कुछ ख़ास काम नहीं आया. 1962 और 1965 की लड़ाइयों में देश की माली हालत काफी खस्ता हो गयी थी. ‘गूंगी गुड़िया’ कही जाने वाली इंदिरा की पार्टी और मंत्रिमंडल पर पकड़ मजबूत नहीं थी. मोरारजी देसाई और दूसरे नेताओं का विरोध तीव्र था. जबलपुर और राउरकेला में दंगे हो चुके थे. उधर पूर्वोत्तर में मिज़ो आंदोलन की आग सुलग रही थी. कुछ राज्यों में अकाल के हालात भी थे.
पड़ोस और दुनिया के हाल
उधर, पड़ोस में भी हालात दुरुस्त नहीं थे. पाकिस्तान और बर्मा में फौजी सरकारें बन चुकी थीं. चीन का साम्यवाद भी भारत के राज्यों पर असर डाल रहा था. अमेरिका ने 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान का साथ दिया था. रूस की बेरुख़ी भी ज़ाहिर थी. ऐसे मुश्किल हालात में विदेशी राजनैतिक विश्लेषक कयास लगा रहे थे कि हिंदुस्तान में कानून व्यवस्था बिगड़ जाने से हिंसा उपजेगी और पाकिस्तान और बर्मा की तरह, यहां भी सेना का शासन लागू हो सकता है. इस लिहाज से 1967 के आम चुनाव ख़ास हो चुके थे.
इन चुनावों में काफी कुछ पहली बार और अंतिम बार हुआ
कई मायने में यह चुनाव ऐतिहासिक था. यह आख़िरी बार था जब केंद्र और राज्य के चुनाव साथ-साथ हुए थे. इंदिरा गांधी ने रायबरेली की सीट से पहली बार अपनी दावेदारी पेश की थी. चूंकि देश जवाहर लाल नेहरू के प्रभाव से अब मुक्त हो रहा था, इसलिए अन्य राजनैतिक पार्टियां जैसे स्वतंत्रता पार्टी, जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया तमाम प्रकार के गठजोड़ करने लगी थीं.
इतिहासकार बिपिन चन्द्र ने लिखा है कि 1967 के आम चुनावों के बाद से भारत के मध्यमवर्गीय और रईस किसान राजनीति में कूदे. उन्होंने कई गठजोड़ किये और अपने फ़ायदे के लिए राजनैतिक पार्टियों के साथ अपना मोलभाव शुरू कर दिया.
केंद्र में कांग्रेस की जीत, क्षेत्रीय दलों का उदय
इन चुनावों के बाद केंद्र में कांग्रेस चौथी बार सरकार बनाने में सफल रही. कुल 520 सीटों में उसे 283 सीटें मिलीं. हालांकि उसके प्रदर्शन में गिरावट का यह नया स्तर था. 1952 में पार्टी ने 74 फीसदी सीटें जीती थीं. 1957 में यह आंकड़ा 75, 1962 में 72 और 1967 में 54 फीसदी हो गया. उसका वोट प्रतिशत गिरकर महज़ 40 फीसदी ही रह गया था.
दूसरी ओर, क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का अपने राज्यों पर प्रभुत्व तब हक़ीक़त बनकर पहली बार सामने आया था जो कई राज्यों में बरक़रार है. 67 के उस चुनाव में छह राज्यों से कांग्रेस की सरकारों का सफ़ाया हो गया. केरल की कम्युनिस्ट सरकार को तो इंदिरा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के रहते ही असंवैधानिक ठहराकर वहां राष्ट्रपति शासन लगवा दिया था. यहां उसे करारी हार मिली. अपनी किताब इंडिया आफ्टर नेहरू में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कांग्रेस की सबसे बड़ी हार उसके गढ़ माने जानेवाले तमिलनाडु (तब मद्रास) में हुई. यहां द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने 234 विधानसभा सीटों में से 138 जीतकर मैदान मार लिया. यहां कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मद्रास के भूतपूर्व मुख्यमंत्री के कामराज भी हार गए थे.
पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. यही हाल उसका उड़ीसा में हुआ. गुजरात भी कांग्रेस के हाथ से निकल गया था. उधर किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और कुछ अन्य नेताओं के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बना ली. रामचंद्र गुहा के मुताबिक अल्पसंख्यक वर्ग का कांग्रेस से मोहभंग होना पार्टी के कमजोर होने का एक बहुत बड़ा कारण था.
हमने ऊपर लिखा है कि 1967 में यह आखिरी बार था जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे. पिछले कुछ समय में यह सुगबुगाहट फिर से उठने लगी है. हालांकि पिछली बार ऐसा होने पर देश की सबसे मजबूत पार्टी कांग्रेस का ग्राफ धड़ाम से नीचे आ गिरा था. देखने वाली बात होगी कि यदि एक बार फिर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते हैं तो देश की मौजूदा सबसे मजबूत पार्टी भाजपा का क्या होगा. 1967 इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उस साल राष्ट्रपति चुनाव भी हुए थे जिसके नतीजे के तौर पर देश को डॉ ज़ाकिर हुसैन की शक़्ल में पहला मुस्लिम राष्ट्रपति मिला.
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