इंसान की बेसिक जरूरतों - रोटी, कपड़ा और मकान - में शामिल कपड़े आजकल जरूरत से बढ़कर और भी बहुत कुछ हो चुके हैं. इतने कुछ कि अब उनसे इंसान की कीमत आंकी जाने लगी है. महिलाओं से जुड़कर तो यह मामला और भी जटिल हो जाता है. वे किस तरह के कपड़े पहनती हैं इससे न सिर्फ उनकी हैसियत आंकी जाती है बल्कि उनके चरित्र से लेकर मानसिक स्तर तक का अंदाजा लगाने की कोशिश भी की जाती है. उदाहरण के लिए, शॉर्ट्स पहनने वाली लड़की को देखने की नजर सलवार-कमीज वाली लड़की को देखने वाली नजर से अक्सर थोड़ी अलग होती है. ऐसा सिर्फ पुरुषों की नहीं बल्कि महिलाओं की नजर के लिए भी कहा जा सकता है. इन नजरों का सामना सही तरीके से कर सकें इसके लिए कपड़े खरीदते हुए लड़कियां एक साथ कई पैरामीटर्स पर खरा उतरने की कोशिश में रहती हैं.

कपड़ों के मामले में सबसे पहली जो चीज लड़कियों के दिमाग में होती है वह है उनकी संख्या. हर लड़की को लगता है कि उसके पास हर रंग और डिजाइन के ढेर सारे कपड़े हों और वह हर दिन कुछ नई तरह से तैयार होकर निकले. पुरुषों के कपड़ों के मामले में जहां उनके महंगे और ब्रांडेड होने पर भी जोर दिया जाता है वहीं महिलाओं के लिए सिर्फ इतना जरूरी है कि वे जो कपड़ा पहनें, वह उन पर अच्छा लग रहा हो. ज्यादातर लड़कियों को लगता है कि अगर लड़के चाहें तो एक ही ब्रांडेड जींस और टीशर्ट रोज पहन सकते हैं लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकतीं. यह भी एक वजह है कि लड़कियां महंगे ब्रांडेड कपड़ों की तरफ कम ही आकर्षित होती हैं.
‘मैं सबसे पहले देखती हूं कि किस ऑकेजन के लिए कपड़े लेने हैं और दूसरा उनकी कीमत क्या है...बहुत ज्यादा महंगे कपड़े लेना मैं पसंद नहीं करती क्योंकि एक तो बजट उतना नहीं होता है और मुझे मंहगे कपड़े पहनने का कोई क्रेज भी नहीं है. ब्रांडेड कपड़े इतने मंहगे होते हैं कि उतने पैसों में कई कपड़े खरीद लूं और रोज बदल-बदल कर पहनूं’ हिसार की रहने वाली पीएचडी स्कॉलर नेहा यादव कहती हैं.
नए-नए फैशन और बदलते ट्रेंड पर लड़कियों की नजर सबसे ज्यादा रहती है. मार्केट में आया कोई भी नया रंग और डिजाइन उनकी निगाहों से बच नहीं पाता और वे जल्द से जल्द इन्हें पाने की फिराक में लग जाती हैं. यह चलन शहरी लड़कियों में ज्यादा देखने को मिलता है क्योंकि फैशन फॉलो न करने पर वे खुद को वक्त और माहौल के हिसाब से दिखने की रेस से बाहर महसूस करती हैं. नोएडा की एक निजी कंपनी में काम करने वाली श्रेया वर्मा बताती हैं, ‘कपड़े खरीदते वक्त मेरे दिमाग में सबसे पहले आता है कि लेटेस्ट ट्रेंड क्या है और कौन सा कलर ‘इन‘ (चलन में) है. मैं ब्रांड कॉन्शस बिल्कुल नहीं हूं, लेकिन फैब्रिक या मैटीरियल देख के ही अपने कपड़े लेती हूं. मैं जहां काम करती हूं वहां ये सब काफी मैटर करता है.’
अगर लड़कियों के नजरिए को जरा बारीकी से समझा जाये तो कपड़ों की खरीदारी को लेकर उनके पास लड़कों से ज्यादा विकल्प हैं इसलिए ज्यादा परेशानियां भी हैं. नोएडा में रहने वाली सॉफ्टवेयर इंजीनियर कल्याणी कौल इस बात को कुछ इस तरह समझाती हैं, ‘बचपन में जहां मेरी उम्र की लड़कियां रानी मुखर्जी या अमीषा पटेल की तरह कपड़े पहनना चाहती थीं. मैं रितिक रौशन या ज़्यादा से ज़्यादा फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ की काजोल जैसी दिखना चाहती थी. लड़कों जैसे लूज़ टी शर्ट्स, कंफर्टेबल स्पोर्ट्स शू, कैप्स, मुझे यही सब अच्छा लगता था. अब जब मैं 28 साल की हूं, मैंने बाल भी बढ़ा लिए हैं तो मैं कपड़े खरीदते वक्त बड़ी मुश्किल में फंस जाती हूं. अब मुझे कई बार ये समझ नहीं आता कि मैं लड़कियों वाले स्टाइलिश कपड़े खरीदूं या लड़कों टाइप के. और फिर लड़कियों के इतने तरह के कपड़ों के लिए अलग-अलग तरह के जूते भी चाहिए.’
स्टाइल और फैशन के अलावा, अलग दिखना भी लड़कियों के लिए बहुत जरूरी होता है. बैंगलोर में रहने वाली 32 साल की दीपाली गुप्ता असिस्टेंट प्रॉफेसर हैं. वे कहती हैं - ‘हमारे देश में इतनी तरह के फैब्रिक्स हैं. इतनी तरह की कढ़ाई और कसीदाकारियां होती हैं, जैसे गुंटूर की मंगलागिरी कॉटन, झारखंड का टसर, गुजरात का पटोला तो मैं ये फैक्ट्रीमेड कपड़े क्यों खरीदूं. अगर आप कपड़ों पर पैसा खर्च कर रहे हैं तो क्यों न वे थोड़े अलग हों, एलीगेंट हों. सबके जैसे न हों. मैं कोशिश करती हूं कि इन सब जगहों के सरकारी हैंडलूम स्टोर से ही अपनी खरीदारी कर लूं. बस वेस्टर्न कपड़ों के लिए सामान्य स्टोर्स का रुख करना पड़ता है. कभी-कभी उन्हें भी मैं फैब्रिक लेकर डिज़ाइन करवा लेती हूं.’
हमारे देश में ज्यादातर लड़कियां अपने पहनने-ओढ़ने और मेकअप पर तो ध्यान देती हैं लेकिन ढंग का खाने-पीने और कसरत करने से दूरी बनाकर रखती हैं. कई बार इन जरूरी चीजों पर ध्यान न देने से, तो कई बार बीमारी या प्रेग्नेंसी के कारण उनका वजन बढ़ जाता है. इससे एक नई समस्या जन्म लेती है - उन्हें अपने लिए सही साइज के कपड़े नहीं मिल पाते हैं. ब्रांडेड कपड़ों के जिक्र पर लौंटें तो ज्यादातर लड़कियों को इसमें साइज़ की समस्या भी आती है. कानपुर की महिमा गौतम की परेशानी है कि उनके पसंदीदा ब्रांड्स और स्टाइल में उनका साइज़ ही नहीं मिलता. वे मायूस होते हुए कहती हैं कि ‘मुझे भी कपड़े खरीदने का बहुत शौक हुआ करता था, अब भी है. लेकिन जब से मेरा वज़न बढ़ा है, मुझे बाज़ार जाने से ही डर लगने लगा है. ब्रांड्स में मेरा साइज़ ही नहीं मिलता. डिज़ाइनर्स भी कई बार मेरे वज़न को लेकर काफी रूड हो जाते हैं. ऐसे में मैं उन्हीं गिनी-चुनी जगह पर जाती हूं जहां या तो मेरे नाप के कपड़े मिलने के चांस होते हैं या जहां लोग थोड़ी इज़्ज़त से पेश आते हैं.’ ऐसा ही कुछ बहुत ज्यादा दुबली-पतली लड़कियों के साथ भी होता है.
कई बार यह जरूरी नहीं है कि लड़कियां कपड़े खरीदते हुए ज्यादा सोचें-समझें ही. कुछ लड़कियों को चलते-फिरते कुछ भी खरीद लेने का शौक भी होता है. वर्षा सरकार पुणे में रहती हैं और सत्याग्रह-स्क्रॉल की तकनीकी टीम का हिस्सा हैं. वे बताती हैं, ‘मैं जब, जहां, जो अच्छा लग जाए खरीद लेती हूं. बहुत कम ऐसा होता है कि मैं शॉपिंग का प्लान बनाऊं. फैशन वगैरह क्या चल रहा है, इससे मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. बस मुझे इतना पता है कि कैसे कट, प्रिंट और शेप मुझपे अच्छे लगते हैं. अगर वैसे कपड़े मुझे मिल जाएं तो मैं ज्यादा सोच-विचार नहीं करती हूं.’
अब अगर गांव की लड़कियों की बात करें तो बदलते वक्त के साथ उन्हें मनचाहे कपड़े पहनने की थोड़ी आजादी तो मिली है लेकिन इसके बावजूद उन्हें खरीददारी करते हुए घर के बड़ों की पसंद का ध्यान भी रखना पड़ता है. शादी-ब्याह के मौकों पर उन्हें कुछ शर्तों के साथ थोड़ी सी आजादी जरूर मिल जाती है. लेकिन तब भी घर की कोई बड़ी महिला अक्सर निर्देश देने के लिए उनके साथ होती ही है. यानी कुल मिलाकर उन्हें अपने मन के कपड़े खरीदने-पहनने के मौके कम ही मिलते हैं. उन्हें या तो जो मिल जाए उसमें काम चलाना होता है या ढेर सारी शर्तों को मानकर अपनी एकाध मांग मनवा लेने की सुविधा ही मिलती है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक कस्बे शामली में रहने वाली रश्मि तोमर बताती हैं, ‘मैं एमए में पढ़ रही हूं पर मैंने आज तक अपने लिए कपड़े नहीं खरीदे. सिर्फ एक बार भाई की शादी में मैंने अपनी पसंद का लहंगा लिया था. उसमें भी मम्मी मुझे बार-बार टोक रही थी कि ये तेरे पापा को अच्छा नहीं लगेगा. मैं ज्यादा से ज्यादा सूट के गले का डिजाइन अपनी पसंद का बनवा सकती हूं. कपड़े खरीदने का सुख सिर्फ शहर की लड़कियों को मिलता है. गांव और छोटे शहर की लड़कियों को नहीं.’ इसी तरह मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे की रहने वाली महज 24 साल की मोनिका श्रीवास्तव, जो दो बच्चों की मां भी हैं, बताती हैं कि वे कपड़े लेते हुए केवल अपनी पति की पसंद का ध्यान रखती हैं.
कुल-मिलाकर लड़कियां अपने कपड़ों के ज़रिए अपनी सोच, अपना अंदाज़ सामने रखना चाहती हैं. यानी कि यहां पर कपड़े सिर्फ तन ढकने के लिए नहीं बल्कि खुद को अभिव्यक्त करने का तरीका भी हैं. इसीलिए हममें से ज़्यादातर लड़कियां, चाहे वे गांवों में रहती हैं या शहरों में, कपड़ों को लेकर बहुत संवेदनशील होती हैं. पसंद के कपड़े न दिलाए जाने पर कई बार घंटों रो भी लेती हैं. कई बार सामाजिक दबाव में आकर उन्हें वैसे कपड़े खरीदने-पहनने पड़ते हैं जैसा समाज उनसे उम्मीद करता है. यहां पर अभिनेता-लेखक मानव कौल की एक कहानी का संवाद बखूबी फिट होता है:
‘यह एक बहुत बड़ी प्रदर्शनी है. मेरी बालकनी में वही कपड़े सूख रहे हैं जैसा लोग मुझे देखना-सुनना चाहते हैं. मैं भी लगातार उन्हीं कपड़ों को धोती-सुखाती हूं जिन कपड़ों में मुझे लोग देखना चाहती हूं. तुम्हें पता है यह हिंसा है, हमारी खुद पर? और इसीलिए शायद हम उन खेलों के बारे में बार-बार सोचते हैं जिन्हें खेलना हमने बहुत पहले छोड़ दिया था. जिन्हें अगर खेल लेते तो शायद आज हम जीत जाते.’ कपड़े खरीदते वक्त हम लड़कियां भी उन सभी खेलों के बारे में सोच रही होती हैं जिन्हें हम खेलना चाहती हैं, और खेलकर जीतना भी चाहती हैं. अब शायद जीतने भी लगी हैं.
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