हाल के समय में जिन भारतीय महिलाओं ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने नाम का परचम लहराया है उनमें अरुणा रेड्डी, नवजोत कौर और मानुषी छिल्लर भी हैं. अरुणा रेड्डी जिमनास्टिक विश्व कप में कांस्य पदक जीतने वाली पहली भारतीय हैं तो नवजोत कौर के नाम सीनियर एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय होने की उपलब्धि दर्ज हुई है. मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स दोनों खिताबों को मिला दें तो मानुषी छिल्लर 2017 में विश्व सुंदरी बनने वाली आठवीं भारतीय हैं.
विश्व स्तर पर पहचान बनाने वाली इन तीन भारतीय लड़कियों में से सिर्फ एक मानुषी छिल्लर हैं, जिनका नाम किसी से भी पूछो तो जवाब मिलता है कि ‘हां सुना है.’ मतलब देश का बड़ा तबका उनके नाम और चेहरे से परिचित है. अरुणा रेड्डी और नवजोत कौर का नाम सिर्फ गिने चुने लोगों ने ही सुना है.
सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है. उपलब्धि के हिसाब से देखा जाए तो इन तीनों लड़कियों में सबसे बड़ी उपलब्धि अरुणा रेड्डी की है. क्योंकि जिमनास्टिक्स में कोई भी अंतरराष्ट्रीय पदक लाने वाली वे पहली भारतीय हैं. कुश्ती के क्षेत्र में इससे पहले साक्षी मलिक, विनेश फोगट और गीता फोगट जैसी कई महिला खिलाड़ी पहले भी अंतरराष्ट्रीय पदक जीत चुकी हैं. लेकिन नवजोत कौर की उपलबल्धि इस हिसाब से ज्यादा है कि उन्होंने पहली बार एशियाई कुश्ती में स्वर्ण पदक जीता. मिस वर्ल्ड और यूनिवर्स का खिताब इससे पहले भी देश में सात लड़कियां जीत चुकी हैं. इस हिसाब से देखा जाए तो किसी क्षेत्र में पहली बार शीर्ष पर पहुंचना कई मायनों में ज्यादा अहम है. इसके बावजूद इन महिला खिलाड़ियों की समाज में उतनी पहचान क्यों नहीं है, जितनी कि विश्व सुंदरी की? क्या यह सच में महज इत्तेफाक है?
हमारे समाज में प्रतिभावान लड़की या स्त्री के लिए सिर्फ अपनी प्रतिभा के दम पर पहचान बनाना बेहद मुश्किल काम है. हमारे हुनर, प्रतिभा और रचनात्मकता पर हमारी देह और उसके सौंदर्य का बड़ा बखान हमेशा भारी पड़ता रहा है
हम सदा यही सुनते आए हैं पहचान बनानी है तो अपनी प्रतिभा, हुनर को पहचानो और खुद को उस पर केंद्रित करो. लेकिन अक्सर ही महसूस हेता है, कि यह बात हम लड़कियों पर लागू नहीं होती. हमारे समाज में प्रतिभावान लड़की या स्त्री के लिए सिर्फ अपनी प्रतिभा के दम पर पहचान बनाना बेहद मुश्किल काम है. हमारे हुनर, प्रतिभा और रचनात्मकता पर हमारी देह और उसके सौंदर्य का बड़ा बखान हमेशा भारी पड़ता रहा है. ऊपर दिए गए उदाहरणों से हम इस बात को बखूबी समझ स्कते हैं.
स्त्रियों के हुस्न को उनके हुनर से कहीं ज्यादा ऊपर रखने में मीडिया के एक बड़े हिस्से की बड़ी भूमिका दिखती है. जिन लड़कियों/महिलाओं ने अपने हुनर के दम पर विश्व कीर्तिमान स्थापित किये उन्हें कभी भी उतनी सुर्खियां नहीं मिलतीं जो किसी सौंदर्य प्रतियोगिता में जीती लड़कियों को मिलती हैं. यह सच में कतई इत्तेफाक नहीं है कि मुक्केबाजी में पांच बार विश्व चैंपियन बनी मैरी काॅम को उन पर फिल्म बनने तक देश में बहुत कम लोग नाम और शक्ल से पहचानते थे. आज भी मैरी काॅम से कहीं ज्यादा लोग सुष्मिता सेन और एश्वर्या राय जैसे नामों को जानते हैं जिनके साथ विश्व सुंदरी का टाइटल लग चुका है.
कुछ सालों पहले विश्व बैडमिंटन संघ ने महिला खिलाड़ियों के लिए ड्रेस कोड के तौर पर स्कर्ट पहनना अनिवार्य कर दिया था. बैडमिंटन संघ का मानना था कि ऐसा करने से बैडमिंटन का प्रदर्शन आकर्षक होगा. साथ ही इस खेल के चाहने वालों और प्रायोजकों की संख्या भी बढ़ेगी. विश्व बैडमिंटन संघ का यह निर्णय इसी सोच को पुष्ट करता है कि स्त्रियों की प्रतिभा और हुनर में दम तो हो सकता है, लेकिन उनकी देह से ज्यादा नहीं. यानी के स्त्रियों की प्रतिभा, रचनात्मकता को सिर्फ तभी उचित पहचान, सम्मान व सामाजिक प्रतिष्ठा मिलेगी जब उसमें उनकी देह के ग्लैमर का तड़का लगेगा. बैडमिंटन संघ के लिए चिंता का विषय सिर्फ यह है कि इस खेल को ज्यादा आकर्षक कैसे बनाया जाए? ज्यादा दर्शक कैसे जुटाए जाएं? ज्यादा प्रायोजक कैसे मिलें? जो कि महिला खिलाड़ियों की ड्रेस कोड बदलकर मिल सकते हैं. आईपीएल में चीयर गर्ल्स की भागीदारी भी दर्शकों की भीड़ को जुटाने का ही एक तरीका है.
देह के सौंदर्य ने प्रतिभा को हमेशा दूसरे पायदान पर धकेलकर जीभ ही चिढ़ाई है. इस काम में देह के सहयोग के लिए बाजार, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, ओद्योगिक संस्थाएं हमेशा तत्पर रही हैं
हमें बार-बार अलग-अलग मंचों से यही संदेश दिया जा रहा है कि स्त्रियों की असली प्रतिभा तो उनकी देह, उनका रूप-रंग और सौंदर्य है. या फिर यदि वे अपने रूप-रंग और देह के ग्लैमर और सौन्दर्य को प्रमुख स्थान देती हैं तो ही उनकी प्रतिभा को भी सही पहचान मिलेगी. कुछ समय पहले रंग निखारने वाली एक क्रीम के विज्ञापन में भी यही संदेश दिया जाता था. विज्ञापन में साइकिल चैंपियनशिप जीने वाली खिलाड़ी को सिर्फ इसलिए साइकिल कंपनी का ब्रांड एंबेसेडर बनने का मौका मिलता है, क्योंकि अमुक क्रीम के प्रयोग से उस लड़की के चेहरे का रंग-रूप बेहद निखर गया है. यानी यदि साइकिल प्रतियोगिता जीतने वाली लड़की का रूप-रंग निखरा और उजला नहीं होता, तब उसे ब्रांड अंबेसेडर बनने का मौका सिर्फ इस कारण से तो नहीं ही मिल जाता कि वह अच्छी साइकलिंग करती है. यह सोच एक तरफ स्त्रियों की प्रतिभा और उनके हुनर का अपमान करती है तो दूसरी तरफ समाज में स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता को बढ़ावा देकर उन्हें एक इंसान समझने के बजाय सिर्फ देह (भोग्या) के रूप में भी स्थापित करती है.
इन तमाम उदाहरणों की रोशनी में यह कहना गलत नहीं होगा कि स्त्री की देह ने उसके हुनर को हमेशा मात दी है. देह के सौंदर्य ने प्रतिभा को हमेशा दूसरे पायदान पर धकेलकर जीभ ही चिढ़ाई है. इस काम में देह के सहयोग के लिए बाजार, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, ओद्योगिक संस्थाएं हमेशा तत्पर रही हैं. न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में स्त्रियों के हुनर, प्रतिभा और रचनात्मकता को उसकी देह के बरक्स हमेशा कम ही आंका गया है. दुनिया भर की चित्रकला, मूर्तिकला में स्त्री मूर्तियों के चेहरे और खोपरे में उतनी मिट्टी, पत्थर, गारा और सीमेंट कभी नहीं भरा गया, जितना कि उनके अगले-पिछले उभारों में. स्त्रियों को रेखांकित करते चित्रों या वर्णित साहित्य में भी, उनके सिर और चेहरों में उतना रंग या कलम की उतनी स्याही खर्च नहीं की गई जितनी कि उसके उभारों को दर्शाने में. स्त्रियों के उन्नत वक्ष, पतली कमर और विशाल नितंबों के वर्णन से पूरी दुनिया का साहित्य भरा पड़ा है. लेकिन उनकी ऊर्जा, रचनात्मकता, प्रतिभा, हुनर के प्रशस्तिगान कहीं नहीं हैं. हैं भी तो भला कितने? बेहद-बेहद संक्षिप्त. क्यों भला?
अब जबकि हर क्षेत्र में स्त्रियों की प्रतिभा का परचम लहरा रहा है, तो भी हम देख रहे हैं कि उनके हुनर से ज्यादा उनकी देह को ही ग्लैमराइज करने की घिनौनी कोशिशें जारी हैं. महिला दिवस पर वंचित तबके की महिलाओं पर खबर दिखाकर उन तक उनके हकों के न पहुंचने की बात करना मीडिया के एक बड़े हिस्से के लिए महज एक रस्मअदायगी बन गया है. साल भर वह इन्हीं वंचित स्त्रियों के हुनर, उनकी रचनात्मकता और कृतित्व को अनदेखा करके सिर्फ महिलाओं की देह और सौंदर्य की चकाचौंध से चुंधियाया रहता है.
क्या इस महिला दिवस पर हम सब मिलकर यह संकल्प ले सकते हैं कि हम साल भर महिलाओं के हुनर और कृतित्व को उनके सौंदर्य से ज्यादा अहमियत देंगे? इस मामले में उन फिल्मकारों ने सराहनीय प्रयास किया है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर पहचान बनाने वाली खिलाड़ियों पर फिल्में बनाकर उनके हुनर को सम्मानित किया है. क्या कोई है जो इस महिला दिवस पर हम महिलाओं के हुनर को हमारे हुस्न से ज्यादा अहमियत देने का संकल्प लेने को तैयार हो?
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