उभरते गीतकार और पटकथा-लेखक गौरव सोलंकी अपने फिल्मी गीतों को सुनाते वक्त उन्हें कविता की तरह पढ़ते हैं. भले वह आइटम सांग ही क्यों न हो! यह बात भी यकीन बढ़ाती है कि हिंदी गीतों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले इस समय में कुछ गीत सही हाथों से लिखे जा रहे हैं. उनकी अभी-अभी आई कहानियों की किताब ‘ग्यारहवीं-ए के लड़के’ की इसी शार्षक वाली कहानी को भारतीय ज्ञानपीठ ने अश्लील कहकर छापने से मना कर दिया था. छह साल पहले हुए इस विवाद के निशान उनके गुजरे हुए वक्त पर आज भी नजर आते हैं. अगर आप किसी सवाल को खत्म करते वक्त बिना चौकन्ना हुए दुख जताने के लहजे में कह देते हैं कि उस दौरान हिंदी साहित्य ने आपको तड़ीपार कर दिया था, तो गौरव वहीं आपको दुरुस्त करते हैं और ठहाका मारकर हंसते भी हैं - ‘नहीं, उल्टा मैंने हिंदी साहित्य को तड़ीपार कर दिया था!’
‘दास देव’ के लिए लिखे नए गीत ‘आजाद कर’, ‘ग्यारहवीं-ए के लड़के’ और इन दोनों के बहाने हिंदी साहित्य से लेकर फिल्मों, लेखन और अश्लील लिखने के उन पर लगते रहे आरोपों आदि पर सत्याग्रह ने गौरव सोलंकी से एक लंबी बातचीत की. मुंबई की एक इमारत के 12वें माले पर, जहां उनका घर है और जहां भर की किताबों के बीच कुछ फर्नीचर है, वहीं दीवार में एक बड़ी-सी खिड़की रहती है. इसके किनारे बैठकर यह जानने का मौका भी मिला कि उस नए गीतकार का संघर्ष बॉलीवुड में किस तरह का होता है, जो समाज में अपनी कविता-कहानियों को लेकर पहले से चर्चा पा चुका है. उनसे एक लंबी और बेबाक बातचीत के संपादित अंश :
‘आजाद कर’ के लिए बधाई गौरव, बहुत बढ़िया लिखा है. अब आपको अपने ब्लॉग ‘मेरा सामान’ की टैगलाइन बदलनी चाहिए, नहीं? ‘यह गौरव सोलंकी की किताब है. इसमें कुछ चीजें हैं जो कहीं और नहीं हो सकती थीं. आप ऐसा भी समझ सकते हैं कि उन्हें कहीं और जगह नहीं मिली.’ अब तो आपकी कहानियों को किताबों में भी जगह मिल रही है और गीतों को फिल्मों में!
वो एक दिन गुस्से में लिखा था, ग्याहरवीं-ए के लड़के कहानी और किताब वाले विवाद के वक्त (मई 2012). कुछ लोगों को थोड़ा एरोगेंट लग सकता है...कि यार ऐसा क्या तुम लिखते हो...दूसरी दुनिया से शब्द लाते हो क्या! लेकिन वैसा बिलकुल नहीं था. एक तो मतलब यह था कि किसी और लेखक के कागज पर इन्हें जगह नहीं मिलेगी क्योंकि ये मेरा सच है. दूसरा किताब न छप पाने वाले विवाद के बाद मैंने उसकी टैगलाइन थोड़ी बदल दी...ये गौरव सोलंकी की किताब है! मैंने सोचा अब यही किताब है, जिसको पढ़ना है, यहीं आकर पढ़ लो.
उस वक्त जो किया, उस पर कभी पछतावा होता है?
बिलकुल रिग्रेट नहीं करता. आज भी वही स्टैंड लेता जो तब लिया. बल्कि, संयोग यह है कि आज ही मैंने ज्ञानपीठ को एक और लेटर लिखा है. (सुनते ही मैं खिलखिला उठा. वो वक्त याद आ गया जब छह साल पहले गौरव ने ज्ञानपीठ को एक खुला खत खुलकर ‘तहलका’ में लिखा था और हिंदी साहित्य के मठों की चूलें कई दिनों तक हिलती रही थीं) दरअसल विवाद के वक्त ही मैंने अपनी कविताओं की किताब ‘सौ साल फिदा’ के राइट्स वापस ले लिए थे. लेकिन छह साल हो गए, ज्ञानपीठ आज भी उन किताबों को बेच रहा है. बुक फेयर में बेच रहे हैं, दुकानों पर बिकती है और एमेजॉन पर भी उपलब्ध है.
इनके पैसे मिलते रहे?
एक भी पैसा नहीं मिला. मुझे नहीं पता कि इन छह सालों में कितनी प्रतियां बिकीं. एक रुपया भी मुझे नहीं मिला और वो बेच रहे हैं बेशर्मी से. मैंने आज के लेटर में लिखा, कि प्लीज एक तो बेचना बंद कीजिए और दूसरा छह साल में कुछ तो प्रतियां बिकी होंगी. सौ दो सौ लोगों को तो मैं ही जानता हूं जिन्होंने किताब खरीदी है. तो उतनी तो बिकी ही होगी, आप जो भी, झूठ बोलें या सच बोलें. तो हफ्ते दो हफ्ते के अंदर आप मुझे उसका सारा हिसाब दे दीजिए...क्योंकि अब मैं चाह रहा हूं कि कहीं और से प्रकाशित हो यह किताब और तरीके से पहुंचे लोगों तक.
यह उसी तरह की मानसिकता है कि आप लाख विरोध करो, हम तो वही करेंगे जो करना चाहते हैं?
फिल्म इंडस्ट्री या ऐसी कोई इंडस्ट्री जिसमें खूब पैसा होता है उसमें एक अलग तरह का पावर गेम चलता है. लेकिन साहित्य में एक एब्सट्रेक्ट-सी पावर है जिसकी वजह भी आपको समझ नहीं आती. पावर जहां भी होती है, वहां या तो उसका इस्तेमाल हो सकता है या उसके होने से आदमी ऐश कर सकता है. लेकिन साहित्य की जो पावर है, इसका मुझे नहीं पता कि क्या नशा होता है, क्यों है इसका नशा! क्या है इस नशे में. और हम लोग बाहर से भी आए हैं न. साहित्य की पढ़ाई नहीं की है, साहित्य में नौकरियां नहीं चाहिए हमें. सिर्फ चाहते हैं कि लोग हमारे लिखे को पढ़ें. इसलिए भी और समझ नहीं आता ये नशा.
फिल्मों पर आते हैं. सुधीर मिश्रा निर्देशित ‘दास देव’ के लिए ‘आजाद हूं’ लिखने का मौका कैसे मिला?
‘दास देव’ की रिलीज से पहले सुधीर जी इसे अपने दोस्तों, फिल्मों से जुड़े लोगों को दिखा रहे थे, उनका फीडबैक ले रहे थे. उनका कहना था कि मैं बहुत वक्त से जुड़ा हूं इस फिल्म से तो मेरी ऑब्जेक्टिविटी चली गई है, तुम बाहरी की नजर से देखो और कुछ जोड़ना हो तो बताओ. तो हमने बैठकर उसमें कुछ चीजें जोड़ीं, कुछ घटाईं.
इसी दौरान वे जब सभी से पूछ रहे थे कि तुम्हारी क्या राय है तो मैंने कहा कि अगर एंड में कोई गाना हो तो फिल्म का क्लोजर बेहतर हो जाएगा. फिल्म देखकर उस गाने का एब्सट्रेक्ट-सा थॉट मेरे दिमाग में था भी. मैंने कहा कि आपके पास पहले से जो गाने रिकॉर्डेड हैं उनमें से कोई इस्तेमाल कर लीजिए अगर सिचुएशन पर फिट हो तो, नहीं तो मैं लिखने की कोशिश करता हूं. इस तरह ‘आजाद हूं’ ईजाद हुआ!
इतना छोटा क्यूं लिखा लेकिन? मन भर सुनने से पहले ही खत्म हो जाता है. यह जिस गाने की याद दिलाता है उस ‘बावरा मन’ जितना लंबा तो लिखा ही जाना चाहिए था.
थोड़ा लंबा ही था, कविता की तरह ही लिखा गया था. एक अंतरा और भी था जो अब शायद किसी और फिल्म में काम आएगा. सुधीर जी का कहना था कि ज्यादा लंबा होने पर गाने की सादगी चली जाएगी.
फिर हम थोड़े सचेत भी थे, क्योंकि जब मैंने सुधीर जी से कहा था कि फिल्म के अंत में एक गाना होना चाहिए तो मेरे दिमाग में उनकी ही ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ का उदाहरण था. जैसे वो एक गाने पर खत्म होती है वैसे ही ‘दास देव’ को भी एक गाने पर खत्म होना चाहिए. इसके बाद स्वानंद (किरकिरे) के गीत से जुड़ने पर उस गीत की याद और ताजा हो गई. हमको पता था कि ‘आजाद कर’ ‘बावरा मन’ की याद दिलाएगा लेकिन मेरे ख्याल से उस गाने की याद दिलाना अच्छी बात है, शायद.
अनुराग कश्यप की बेहद उम्दा फिल्म ‘अग्ली’ (2014) का ‘पापा’ भी बहुत सुंदर गीत था. लेकिन दुनिया ने उसे जरूरी इज्जत नहीं बख्शी. बुरा लगता है?
अब ज्यादा बुरा लगता है. उस वक्त तो नहीं पता था कि कहां पहुंचेंगी चीजें. 2012 में मैंने गाने लिखे थे और 2014 के दिसंबर में फिल्म रिलीज हुई. तो मैं तो ‘मूव ऑन’ कर गया था. लेकिन अब ज्यादा लगता है, और मेरे कुछ दोस्त भी कहते हैं कि अगर किसी ऐसी फिल्म में होता जिससे ज्यादा लोगों तक पहुंच पाता या प्रमोशन ज्यादा होता उसका, तो बात कुछ और होती.
अच्छा, वो गाना भी मैंने अपनी तरफ से ही लिखा था. अनुराग से उसकी भी कोई ब्रीफ नहीं मिली थी. मुझे लगा कि मां और उसकी खो गई बच्ची की कहानी है तो मां पर कोई गाना होना चाहिए. इस तरह मैं मां पर लिखने लगा एक गाना. लेकिन मां पर बहुत सारे गाने बने ही हुए हैं. तो मेरी गर्लफ्रेंड ने कहा कि पापा पर लिखना शायद ज्यादा बेहतर रहेगा. मुझे भी ठीक लगी ये बात और दिलचस्प बात यह रही कि जब मां पर लिख रहा था तब लिख नहीं पा रहा था. लेकिन जब पापा पर लिखा तो ज्यादातर गाना मैंने एक ही सिटिंग में लिख लिया.
उसी फिल्म में ‘निचोड़ दे’ भी है. कुछ लोगों ने उसे सुनने के बाद कहा था कि गौरव सोलंकी ऐसा अश्लील आइटम सॉन्ग भी लिख सकते हैं, हमें पता नहीं था! आखिर वो गीत सीधे-सीधे सेक्स करने की बात जो करता है.
मुझे ‘निचोड़ दे’ लिखने में बहुत मजा आया था! हां गाना कह रहा है कि लेट्स हेव सेक्स लेकिन यह लड़की कह रही है. और ये तो मैं किसी भी गाने में कह सकता हूं. मुझे ऐसी दिक्कत नहीं है. पर सिर्फ इसके लिए गाना नहीं होगा. भोंडापन नहीं होना चाहिए और ऐसे गानों में जो खास तौर पर होता है कि औरत को ऑब्जेक्टिफाई किया जाता है. तो मेरा पूरा ध्यान इस बात पर था कि औरत ऑब्जेक्टिफाई नहीं होनी चाहिए. मैं तब ‘निचोड़ दे’ को अश्लील या बुरा मानता जब औरत ऑब्जेक्टिफाई होती. इसमें तो कहीं-कहीं आपको लगेगा कि पुरुष ऑब्जेक्टिफाई हो रहा है!
‘निचोड़ दे’ के अलावा करीना कपूर की ‘वीरे दी वेडिंग’ के लिए भी एक शादी वाला गीत लिखा है आपने. पंजाबी-हिंदी मिक्स. विशुद्ध कविता के ट्रेडिशन से आने के बाद इस तरह के घोर कमर्शियल गीतों पर स्विच कर पाना कितना मुश्किल है?
थोड़ा सा जाना पड़ता है. लेकिन कोशिश करता हूं कि बहुत सादे और हल्के गीतों में भी कोई अच्छी बात कह दूं. मैं बहुत ज्यादा सचेत रहता हूं कि कोई गलत बात न कहूं. किसी अल्पसंख्यक को, औरत को या जिनको सताया गया है, कुचला गया है, उनको बुरा न बोल दूं. ‘निचोड़ दे’ का क्रिटिसिज्म इसलिए मैं नहीं मानता क्योंकि मैंने खुद उसको 10 बार कसा है. उसकी एक-एक लाइन को कसा है. उसमें सेक्स की बात जरूर है, लेकिन सहमति के सेक्स की बात है. और लड़की सिर्फ यह नहीं बोल रही कि तू मुझे निचोड़ दे. ये भी कह रही है कि मैं तुझे निचोड़ दूं. बराबरी की बात है. फिल्म की कहानी में वो बी-ग्रेड किस्म का आइटम सॉन्ग है, फिर भी उसमें लड़की के पास सारी एजेंसी है. लड़की जगह भी बता रही है, तरीके भी बता रही है. तो मेरे हिसाब से यह गीत एंटी-थीसिस था आइटम सांग्स का.
कुछ लोग फिर भी कहते हैं कि आप अपने लेखन में अश्लीलता को सेलिब्रेट करते हैं और उसे अपने करियर की यूएसपी सा बना लिया है.
ये तो बड़ी खूबसूरत बात है (ठहाका लगाते हुए)! मुझे अच्छा लगा कि लोग मेरे करियर के बारे में इतना सीरियसली सोच रहे हैं. खैर, मैंने हमेशा उन चीजों की कहानियां लिखीं जो मुझे विचलित करती रहीं, जो मुझे आकर्षित करती रहीं, रोमांचित करती रहीं. दुनिया में, मेरे आसपास. और जो हमारी रिएलिटी है, समाज की और जो हो रहा है हमारे आसपास, अगर आप उसका आधा भी ईमानदारी से लिखने की कोशिश करेंगे तो उसमें हिंसा के, सेक्सुअलिटी के, दमन के, गैरबराबरी के, नाइंसाफी के एलिमेंट्स जरूर आएंगे.
मंटो साहब ने तो कहा ही था कि अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील लगती हैं तो जिस समाज में आप रह रहे हैं वो अश्लील व गंदा है. उनसे तो क्या ही तुलना करूं अपनी, लेकिन बस इतना कहना चाहता हूं कि मैंने अश्लीलता को कभी सेलिब्रेट नहीं करना चाहा. अगर किसी को लगता है ऐसा तो मैं उससे वन टू वन बातचीत भी कर सकता हूं. ‘ग्यारहवीं-ए के लड़के’ कहानी ही ले लो, या कोई भी और कहानी, मेरी कहानियों में सेक्लिशुएटी का पार्ट बहुत महत्वपूर्ण है, साथ ही इश्क है और गुस्सा है, पर उन कहानियों में बुरी चीजों का सेलिब्रेशन नहीं है.
मुझे याद है कि एक मंच पर आप ‘निचोड़ दे’ को कविता की तरह पढ़कर सुना रहे थे. ऑडियंस पर तंज भी कर रहे थे कि कहीं आपका स्तर तो नहीं गिर जाएगा मेरा ये गीत सुनकर...ये तंग सोच वाले समाज को मिडिल फिंगर दिखाने का आपका तरीका है या समाज की छोटी सोच पर हंसने का?
हमारे साथ प्रॉब्लम क्या है न, हंसी भी कई बार मुझे उसी पर आती है और जब गुस्सा आता है तो उसी पर आता है...जो चीजें हमें विचलित करती हैं हम उन्हें अश्लील कहने लगते हैं. हमको कहना चाहिए कि ये चीजें हमें बेचैन कर रही हैं, डिस्टर्ब कर रही हैं. डिस्टर्बिंग राइटिंग को हम कहते हैं कि ये अश्लील राइटिंग है!
फिल्मों पर वापस आते हैं. ‘अग्ली’ 2014 में आई थी. उसके गीत आपने 2012 में लिखे थे. अब चार-पांच साल बाद जाकर आपका एक नया गीत आया है. तो ये जो लंबा अरसा बिना काम मिले गुजरता है, मुंबई जैसे महा महंगे महानगर में वो कैसे गुजरा?
बहुत सारा काम मैं नहीं कर रहा. स्क्रिप्ट्स ज्यादा लिख रहा हूं, गाने कम. अगले दो-चार महीने में एक गाना शायद और आएगा. पिछले कुछ सालों के दौरान एक-दो फिल्में लिख रहा था, जो रुक गईं. हिसार में हाहाकार तो अभी तक नहीं बनी, लेकिन उसकी स्क्रिप्ट लिखी थी. 205 पेज का पहला ड्राफ्ट था! उसमें काफी टाइम गया. अक्षय कुमार की एक बड़ी फिल्म थी, रीमेक थी, जिसके मैं डायलॉग्स लिख रहा था. वो फिल्म भी रुक गई. उस पर भी काफी वक्त गया था. और पैसा भी कम मिला. इसके अलावा एक फिल्म लिखी है जिसे एक दोस्त डायरेक्ट करने वाला है. हरियाणा के एक गांव की कहानी है जिसमें प्रेम है और हिंसा घुस जाती है. दिल के बहुत करीब है वो. निसार.
इसके अलावा मैं एक साल से एमेजॉन प्राइम के लिए एक सीरीज पर काम कर रहा हूं. अली अब्बास जफर (‘टाइगर जिंदा है’ के निर्देशक) इसके क्रिएटर हैं और कुछ एपीसोड्स भी डायरेक्ट करेंगे. पॉलिटिकल ड्रामा है जो शायद इस साल के अंत तक आएगा.
और मैं अगर सर्वाइव कर पाया इस महा महंगे शहर में, तो वो एडवर्टाइजिंग की वजह से मुमकिन हुआ. काम भी ऐसा मिला जहां कविता की गुंजाइश थी. 2-3 साल में मैंने विज्ञापनों के लिए 6-8 गाने लिखे. इनमें दीपिका पादुकोण पर फिल्माया गया एक गीत तो ढाई मिनट का था और पूरा दिल से लिखा गया था. ‘सबकुछ है तेरा’. बिना समझौते वाला गीत है, जिसमें हम कुछ बेच नहीं रहे थे.
बॉलीवुड तो समझौतों वाली इंडस्ट्री है. ऐसे में क्या काम करते वक्त यह दिमाग में रहता है कि ये नहीं करना है
हां, ये रहता है. ये दिमाग में रहता है कि जहां पर कोई गलत बात बोलने को कहेगा गाने में, तो वो गाना छोड़ दूंगा... ‘अग्ली’ के गाने आने से पहले की बात है. एक बड़े कंपोजर थे, जिनके साथ मैं बहुत दिनों से काम करना चाह रहा था. एक गाना वो बना रहे थे. फेमिनिस्ट गाना था. तो लिरिक्स लिखने के बाद उन्होंने दो-तीन बार कहा कि इसे थोड़ा और आसान करो. मैंने अपनी तरफ से पूरा आसान कर दिया. इतना कि कही गई बात का असर कम न हो, बस भाषा आसान हो. ताकि ज्यादा लोगों तक पहुंचे. और मुझे इससे कोई एतराज भी नहीं था.
लेकिन फिर लड़की की आजादी की बात करने वाले उस गाने में उसे छेड़ने वाले लड़के का नजरिया भी शामिल करने की बात उठने लगी...कि तुम छोटे कपड़े पहनकर क्यूं घूमती हो, मेरा तो मन मचल ही जाता है जैसी कोई बात...तो मैं घबरा गया. उसका पॉइंट ऑफ व्यू तो मुझे नहीं डालना अपने गाने में, चाहे वो कुछ भी सोचता है. तो फिर मैंने वो गाना नहीं किया. और वो शुरुआती दिन थे और कंपोजर बहुत बड़े थे.
कभी घोस्ट राइटिंग करनी पड़ी!
बिलकुल नहीं. क्योंकि मैं थोड़ा सा नाम लेकर आया था फिल्म इंडस्ट्री में. थोड़ा राइटिंग का, थोड़ा जर्नलिज्म का. इसलिए एकदम नये राइटर को जिस तरह के संघर्ष करने पड़ते हैं, वो मुझे नहीं करने पड़े. मैं प्रसून जोशी से बहुत जल्दी मिल लिया था. उनको मेरी कविताएं बहुत पसंद आई थीं. तो उनकी वजह से विज्ञापनों में काफी काम मिला. अनुराग से मैं दिल्ली में ही मिल लिया था. मुंबई आने के 6-8 महीने बाद उन्होंने मेरी कहानी हिसार में हाहाकार के राइट्स ले लिए थे.
पैसे दिए थे उसके अच्छे?
अच्छे तो क्या, ठीक पैसे मिले थे. तब मुंबई में आया ही था तो पैसों की दिक्कत तो थी ही. फैंटम फिल्म्स से एग्रीमेंट तो हो गया था लेकिन पैसे मिलने में वक्त लग रहा था. तो अनुराग ने अपनी जेब से पहले ही पैसे दे दिए थे, यह कहकर कि जब तेरे को वहां से मिलें तो तू दे देना. अनुराग ने बहुत मदद की उस दौर में.
अच्छा, घोस्ट राइटिंग के सवाल से याद आया, एक बड़े निर्माता थे जो एक फिल्म डायरेक्ट करना चाहते थे और मेरा काम देखा हुआ था. उन्होंने कहा कि मेरे पास एक कहानी है, सोचा है लिखा भी है काफी, तो मैं चाहता हूं कि तुम उसकी स्क्रिप्ट लिखो. लेकिन राइटिंग क्रेडिट मेरे पास ही रहेगा! तो मैंने कहा ये तो न हो पाएगा!
एक फिल्म और थी, उसमें नया डायरेक्टर था और मुझसे फिल्म लिखवाना चाहता था. स्टोरी और कुछ सीन लिखे थे उसने. मैंने पढ़ा तो बहुत सेक्स था फिल्म में. उनके हिसाब से रियलिस्टिक थी, जर्नलिज्म भी था फिल्म में. लेकिन मैंने कहा कि ये तो मैं नहीं लिख पाऊंगा.
हेट स्टोरी टाइप फिल्म थी!
हेट स्टोरी का भी सस्ता वर्जन!
अच्छा यह बताइए कि लेखक ही बने रहना चाहते हैं या आगे कुछ और भी सपने हैं?
मैंने तो शुरुआती सपना ही डायरेक्टर बनने का देखा था. कॉलेज के दिनों में. तो निर्देशन करना चाहता हूं, जल्दी से जल्दी.
आजकल के कई गीतकार कई मुख्तलिफ विधाओं में खुद को व्यस्त कर रहे हैं. स्टैंड-अप कॉमिक, डायरेक्शन वगैरह. वरुण ग्रोवर हों या प्रसून जोशी या इरशाद कामिल. आप भी आगे चलकर निर्देशक बनना चाहते हैं. अगर ऐसे ही हमारे समय के ज्यादातर जिम्मेदार और मंझे हुए ‘गीतकार’ अपनी दूसरी ख्वाहिशों को पूरा करने में व्यस्त हो जाएंगे, तो हिंदी गीतों का क्या होगा?
सबको वो सब तो करना ही चाहिए जो वे करना चाहते हैं, लेकिन सिर्फ लिरिसिस्ट क्यों नहीं बने रहते यहां लोग, मेरे ख़याल से इसकी वजह और भी कई सारी हैं.
काफी सारे लोग इस इंडस्ट्री में कविता को एप्रीशिएट नहीं करते. यहाँ तक कि हिन्दी के आम से शब्द भी बहुत सारे लोगों को नहीं पता. मैंने एक गीत में ‘चक्काजाम’ शब्द का इस्तेमाल किया था लेकिन प्रोड्यूसर को उसका मतलब ही नहीं पता था. एक गीतकार दोस्त ने एक बार मुझे बताया था कि उसने कई साल पहले एक गाने में ‘मछलियां’ शब्द का उपयोग किया तो उस गीत के कंपोजर ने पूछा कि मछलियां क्या होती हैं! मुंबई में रहता है आदमी, उसके घर में एक्वेरियम है, उसमें मछलियां हैं, लेकिन उसे यह सामान्य सा शब्द तक नहीं पता. तो कैसे चलेगा! और आप तो बतौर गीतकार ऐसे आम शब्दों से आगे जाना चाहते हैं, अपने गीतों में और देसी शब्दों का इस्तेमाल करना चाहते हैं.
एक चीज और है कि लिरिक्स राइटिंग बहुत कम लोगों को ऐसा मौका देती है कि वे अच्छा पैसा कमा सकें. अगर आप सिर्फ़ लिरिक्स राइटिंग पर निर्भर हैं, लेकिन आपने बहुत सारे हिट गाने नहीं लिखे हैं और तब भी अगर आप चूजी हो जाओ तो इस शहर में फिर आपका घर नहीं चलेगा. या बहुत मुश्किल से चलेगा...
रुकिए मत, कहते रहिए...
एक तीसरी चीज भी है. जैसे मैंने हाल ही में ‘दास देव’ का गाना ‘आजाद कर’ लिखा. उसका ख्याल मेरा था, आजाद कर जो गीत का टाइटल है वो मेरा दिया था. लेकिन जब यूट्यूब पर इसका वीडियो सॉन्ग आया तो उसके टाइटल में मेरा नाम कहीं नहीं था. नायक व नायिकाओं के नाम थे, स्वानंद किरकिरे का नाम था जिन्होंने ये गीत गाया है. हमारी कंपोजर अनुपमा राग का नाम भी था. होना भी चाहिए. लेकिन मेरा भी होना चाहिए था. गाने की शुरुआत तो मुझ से ही हुई थी, तो मेरा तो होना ही चाहिए था. मेरी ही कविता थी जो कंपोज हुई है.
फिर मैंने तुरंत ये बात उठाई. प्रोड्यूसर को कहा कि मेरा भी नाम होना चाहिए. तो म्यूजिक कंपनी तक बात पहुंचाई गई कि नाम डालो. उन्होंने कहा कि हम तो आम तौर पर किसी भी गीतकार का नाम नहीं डालते टाइटल में. तो अभी चल रही है वो बातचीत...लेकिन इन सब चीजों से गुस्सा आता है, कोई आदमी पूरा वक्त लिरिसिस्ट क्यों रहे फिर! (हालांकि अब ज़ी म्यूजिक कंपनी के इस वीडियो के टाइटल में गौरव सोलंकी का नाम जोड़ा जा चुका है)
आगे का क्या इरादा है. रुमानियत वाले गीत ज्यादा लिखेंगे या रूहानियत वाले?
अलग-अलग किस्मों वाला काम करना चाहता हूं. चौंकाना चाहता हूं. वो अश्लीलता वाला आरोप भी था न, कि मैंने उसे अपनी यूएसपी बना लिया है, तो मेरे हिसाब से वो भी गलत समझ रहे हैं लोग. असल में मुझे चौंकाना अच्छा लगता है. अगर आप मुझसे उम्मीद कर रहे हैं कि मेरी कहानी इस तरह की होगी, तो मैं आपको कहानी के आखिरी हिस्से में चौंकाना चाहूंगा. और जब आपको लग रहा होगा कि मैं चौंकाना चाह रहा हूं तब मैं चाहूंगा कि नहीं चौंकाऊं. गाने भी इस तरह के लिखना चाहूंगा. जैसे ‘निचोड़ दे’ इस तरह का गाना है कि आप मुझसे एक्सपेक्ट नहीं करोगे.
आखिरी सवाल. हिंदी साहित्य में गौरव सोलंकी के जो बगावती सुर सुनने को मिले थे, क्या फिल्मी गीतों में भी मिलेंगे?
बगावत होती है तो किसी न किसी वजह से होती है. तो जब-जब वजहें होंगी आवाज उठाऊंगा. ‘दास देव’ के गाने के लिए भी उठाई है. हम सुनते रहे हैं कि सलीम-जावेद अपने शुरुआती दौर में खुद पोस्टरों पर अपना नाम लिखा करते थे. देखिए, आज वही लड़ाई यूट्यूब पर क्रेडिट लिखवाने के लिए लेखकों को लड़नी पड़ रही है.
और गीतों में बगावत नजर आएगी या नहीं?
बिलकुल नजर आएगी!
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