कुछ समय पहले भारत में कई जगह महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ने की घटनाएं सामने आई थीं. इन घटनाओं की शुरुआत त्रिपुरा से हुई थी. विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद यहां के बेलोनिया में रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को गिरा दिया गया. इस घटना के बाद देखते ही देखते देश भर में लेनिन को लेकर बड़ी बहस शुरू हो गई. जहां एक तरफ लेनिन के समर्थक उन्हें समाजवादी बता रहे थे. वहीं आलोचक उन्हें ऐसा तानाशाह बताते नजर आए जो बड़े पैमाने पर राजनीतिक अत्याचार और हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार रहा. लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने की घटना को एक बड़े तबके ने भारतीय समाज और लोकतंत्र की अपरिपक्वता से भी परिभाषित किया.


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भारत में हो रही इन घटनाओं से तीन महीने पहले ही मैं रूस की यात्रा पर गया था. रूसी क्रांति के सौ साल पूरे होने पर हुई मेरी इस यात्रा का मकसद रूसी क्रांति, इसके जनक व्लादिमीर (इलीइच) लेनिन और इस क्रांति से जुड़ी अन्य घटनाओं को करीब से जानना था. एक इच्छा यह भी जानने की थी कि रूसी क्रांति के जिस नायक के विचारों को भारत सहित दुनिया भर में एक तबका अभी भी तरजीह देता है, उसे रूस की नई सरकार और पीढ़ी किस तरह से देखती है.

दुनिया के इतिहास में जिसकी रुचि होगी उसे रुसी क्रांति से जुड़े कुछ मूलभूत तथ्य निश्चित ही पता होंगे. लेकिन, बाकी लोगों को यह जानना जरूरी है कि रूसी क्रांति दो चरणों में हुई थी. पहला चरण फरवरी-मार्च का रहा था और दूसरा अक्टूबर-नवंबर का था. पहले चरण में रुस के शासक ज़ार निकोलस को अपनी सत्ता छोड़नी पड़ी थी. इसके बाद रुस में मिलीजुली एक सरकार बनी. इसमें राजसत्ता के प्रति वफादारी रखने वालों का ही बहुमत था. इसका नेतृत्व एलेक्ज़ेडर करेंस्की ने किया. करेंस्की का जन्म भी उसी शहर में हुआ था जहां लेनिन का हुआ था! यानी क्रांति के दोनों चरणों के नेतृत्व-कर्ता एक ही शहर में जन्मे थे. जब यह सरकार किसानों की, प्रथम विश्व युद्ध में लगे सैनिकों की और कारखानों के मज़दूरों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकी तो लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने दूसरी क्रांति कर पूरी व्यवस्था ही बदल दी. अक्टूबर-नवंबर में चले क्रांति के इस चरण को ही वास्तिविक क्रांति की संज्ञा दी जाती है. इसे बोल्शेविक क्रांति या अक्टूबर क्रांति भी कहा जाता है.

विश्व इतिहास में अगर तीन महत्वपूर्ण घटनाओं की छंटनी करूं तो मेरे लिए वे कुछ यों होंगी - फ्रांसीसी क्रांति, रुसी क्रांति और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम. इनकी संख्या को अगर बढ़ाया जाए तो इस्लाम का उदय, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, इटली-जर्मनी का एकीकरण, अमेरिकी गृहयुद्ध जैसी घटनाएं भी इस सूची में शामिल की जा सकती हैं. लेकिन रूसी क्रांति के सौ साल पूरे होने पर रूस की वर्तमान सरकार ने किसी तरह का जश्न मनाना तो दूर, एक सार्वजनिक अवकाश की घोषणा तक नहीं की.

रेड स्क्वैयर | फोटो : अमित भारतीय

यात्रा के पहले दिन मैंने रूस को जानने-समझने की शुरुआत मास्को के रेड स्क्वॉयर से की. नाम से भले इसका नाम रेड-स्क्वॉयर यानी लाल चौक है लेकिन इसका रुस की क्रांति से कहीं कोई लेना-देना नहीं है. क्रांति से जुड़ी अगर कोई एक चीज यहां है तो वह है लेनिन का मकबरा. लेनिन के शरीर को आज भी इस देश में संरक्षित करके रखा गया है. शायद आने वाली पीढ़ियों को संघर्ष के मायने समझाने के लिए. लेकिन इतने भर से आप यह निष्कर्ष न निकालें कि लेनिन को, या उनके कार्यों को आज भी रुसी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. रेड स्क्वॉयर की भीड़ में मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जो क्रांति की चर्चा करने पर बहुत उत्साहित हो. लेनिन को देखने की चाह रखने वालों की लाइन तो यहां बहुत लंबी थी लेकिन कोई जुनून, कोई गर्व करने जैसी भावना उनमें नहीं थी. इससे पता चलता है कि यहां की वर्तमान पीढ़ी अपने नायक को कैसे याद करती है.

यहां हमारी सबसे पहली मुलाक़ात हुई 39 वर्षीय एलेक्ज़ेडर से. एलेक्ज़ेडर बेलारुस (1990 तक बेलारुस सोवियत संघ का भाग हुआ करता था) के रहने वाले हैं, लेकिन अब मॉस्को में ही रहते हैं. पेशे से वकील हैं तो अपने देश के इतिहास या राजनीति की समझ होना स्वाभाविक है. वे क्रांति, क्रांति के नायक लेनिन आदि के बारे में जानकारी तो रखते हैं. लेकिन इनके बारे में कोई भावना नहीं. वर्तमान रुसी सरकार की इनके प्रति बेरुखी के बारे में पूछने पर एलेक्ज़ेंडर कहते हैं कि शायद सरकार इस जश्न के अवसर पर एक फिल्म बना रही है. शायद!

23 वर्षीय अरचोम से मेरा संपर्क भारत में रहते हुए ही हो गया था. वे मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं. वे यहां छात्र तो विज्ञान के हैं लेकिन अपने इतिहास से परिचित हैं. अरचोम बताते हैं कि वे सोवियत संघ के पतन के बाद जन्मे हैं तो उस काल का उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं है. लेकिन बड़ों ने जो बताया और जो किताबों में पढ़ा, उसकी वजह से उन्हें उस पुरानी साम्यवादी व्यवस्था से लगभग नफ़रत सी है जिसे देखने-समझने मैं रूस गया था. कम्युनिज़्म या कैपिटलिज़्म में से वे किसी को भी पसंद नहीं करते बल्कि मध्यमार्ग को चुनते हैं. वे कम्युनिज़्म में समानता के सिद्धांत को पसंद करते हैं. अरचोम बताते हैं कि वर्तमान रुस में आप आय की असमानता पाते हैं लेकिन सोवियत रुस में ऐसा नहीं था. कम्युनिज़्म में उन्हें जिस चीज़ से सबसे ज्यादा नफ़रत है, वह है अपनी पसंद को चुन पाने की आज़ादी न होना. अरचोम के शब्दों में साम्यवादी व्यवस्था में आपको हर चीज का चुनाव राज्य की मर्जी से करना होता है जो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं है.

मैं अरचोम से ब्लादिमीर लेनिन और पुराने समय के बारे में कुछ बताने के लिए कहता हूं. कुछ भी ऐसा जो महत्वपूर्ण हो. इसके बाद वे लगभग लेनिन से अपने को अलग ही कर देते हैं. वे बताते हैं कि लेनिन रूस का था ही नहीं. उसके वंशजों में कोई जर्मन था और वह शायद जर्मनी से ही रुस आया था. अरचोम यह भी बताते हैं कि जब वे स्कूल में थे तो उन्हें लगता था कि स्टालिन रुस (सोवियत संघ) को महान बनाने के लिए काम करता था. लेकिन, जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह आभास होने लगा कि यह सब कृत्रिम है.

अरचोम से हमारी यह बातचीत यूनिवर्सिटी के बाहर होती है. हम उनसे अंदर चलने को कहते हैं तो वे यह कहते हुए मना कर देते हैं कि हमें अंदर नहीं जाने दिया जाएगा. इसके बावजूद मैं एक कोशिश किये बिना रह नहीं पाता. अपनी कोशिश में असफल होने पर दिमाग में अपने देश के जेएनयू या डीयू जैसे संस्थानों का माहौल घूमने लगता है. मैं मॉस्को यूनिवर्सिटी के बाहर ही कुछ और छात्रों से बात करता हूं.

22 वर्षीय लायरा रासायन शास्त्र में स्नातक कर रही हैं. लायरा वर्तमान व्यवस्था को ही पसंद करती हैं और नहीं चाहती हैं कि साम्यवादी शासन उनके देश में फिर से वापस आए.

यहां मिले कई छात्रों में 19 वर्षीय राउफ़ अकेले हैं जो मानते हैं कि रुसी क्रांति न सिर्फ रुस के लिए बल्कि दुनिया के इतिहास में एक महान-गौरवशाली क्षण था. लेकिन राउफ़ कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े हैं. मैं उनसे पूछता हूं कि आपके हिसाब से साम्यवाद में क्या-क्या बुराइयां हैं जिस कारण आज इस विचारधारा का लगभग पतन सा हो गया है? ‘जो लोग आज साम्यवाद की बुराई करते हैं, दरअसल वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उस व्यवस्था में एक सीमा से अधिक आपको अपने पास रखने की इजाजत नहीं थी, उस व्यवस्था में आपको ‘चोरी’ करने की आदत नहीं थी.’ राउफ़ उम्मीद करते हैं कि एक दिन फिर से साम्यवादी शासन व्यवस्था वापस आएगी. लेकिन कब आएगी और कैसे आएगी, इसका जवाब उनके पास नहीं है. वे स्टालिन के समय हुए कत्लेआम पर भी कुछ नहीं बोल पाते.

मॉस्को में बिताये चौथे और अंतिम दिन मैं फिर से रेड-स्क्वॉयर इलाके में जाता हूं. इस बार वल्शॉय (बड़ा) थियेटर के ठीक सामने लगी कार्ल मार्क्स की मूर्ति के सामने कक्षा दस में पढ़ने वाली दो छात्राओं से बात करने की कोशिश करता हूं.

दोनों छात्राओं का जवाब आता है - हमें इतिहास में कोई रुचि नहीं है. हां, रुसी क्रांति और लेनिन के बारे में थोड़ा-बहुत पढ़ा जरुर है, लेकिन अब कुछ याद नहीं. मैं कार्ल मार्क्स की मूर्ति पर रुसी भाषा में लिखा ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ’ पढ़ने की अजीब सी कोशिश करता हूं और वहां से चल देता हूं. वामपंथ से कोई विचारधारात्मक लगाव न होने के बावजूद मैं उस वक्त थोड़ा उदास होता हूं जब रास्ते में यह सोचता हूं कि क्या मुझे यहां आने के बजाय यहां आने के अपने सपने को सपना ही बना रहने देना था!