इस उपन्यास का एक अंश :

‘कहते क्या हैं?...आखि़र डर क्या है?’
‘अब क्या कहें आपको...बताते शर्म आती है...एकदम बच्चों जैसी बातें!’
‘फिर भी...?’
‘कहते हैं कि हम दोनों अब जूना पुराना सामान हो गए हैं...घर में हम किसी पुराने अटाले जैसे पड़े रहते हैं...कहते रहते हैं कि अपने बच्चे हमें कहीं ओएलएक्स पर न निकाल दें...घर का पुराना-धुराना सामान बेचने की इंटरनेट पर कोई जगह है न - ओएलएक्स, वहीं! हरदम यही कहते हैं कि कहीं से जो कभी इनको हमारे ठीक दाम मिल गए तो ये बच्चे ज़रूर हमें ऑनलाइन बेच देंगे...’
‘...पर इनको ऐसा क्यों लग रहा है?’
‘एक दिन ये बरामदे में बैठे थे, यूं ही आराम कुर्सी पर. बेटे ने उस दिन नया मोबाइल खरीदा था...उसी से इनकी तस्वीर भी खींच ली. फिर दिखाने लगा कि देखो पापा, कितनी शानदार फोटू आई है आपकी!... बस, उसी के बाद से इनका ये हाल है. कहते हैं कि...मुझे बेचने के लिए ही ऐसी शानदार तस्वीर खींची है ताकि ग्राहक को सामान पसंद आ जाए...अब तो घर के बाहर कहीं ज़रा-सी आहट भी हो, कोई पोस्टमैन भी दरवाजे की घंटी बजाए-चौंककर इधर-उधर भागने लगते हैं कि जरूर कोई ग्राहक आ गया है!’


उपन्यास : पागलख़ाना
लेखक : ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक : राजकमल
कीमत : 250 रुपये


आज के समय में बाज़ार मां-बाप से भी ज्यादा हमारे करीब हो गया है! यह पढ़ने-सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन गौर करेंगे तो पाएंगे कि हम जब भी पढ़ाई या नौकरी के लिए अपने मां-बाप, भाई-बहन,पत्नी या बच्चों से दूर जाते हैं; तब नई जगह में सबसे पहले बाज़ार ही हमारी सहायता और स्वागत करता है. भाषा, वर्ण, वर्ग, संस्कृति और संप्रदाय की सीमाओं के पार बाज़ार हर एक इंसान को दोनों बाहें खोलकर गले लगाता है. डॉ ज्ञान चतुर्वेदी का ‘पागलखाना’ बाज़ार की इस ताकत और इसके खतरनाक प्रभावों पर लिखा गया बेहद शानदार उपन्यास है.

जिस रफ्तार से हमारे जीवन में बाज़ार का दखल बढ़ रहा है, वह दिन दूर नहीं जब सच में उपन्यास के ही अंदाज में पूरी दुनिया की हर एक शह पर बाज़ार का कब्ज़ा हो जाएगा. यहां लेखक एक ऐसे दिन की कल्पना करता है जब बाज़ार धूप और चांदनी की भी कीमत तय कर चुका होगा. ऐसे ही खौफनाक समय की कल्पना करते हुए ज्ञान जी लिखते हैं -

‘जीवन पर बाज़ार का पूरा कब्जा हो गया...सुबह तो होती थी परन्तु सूरज यों ही हर एक को फोकट में उपलब्ध नहीं था. रोशनी और धूप के लिए बाकायदा पेमेंट करना पड़ता था...अब सूरज, चांद, सितारे भी बाज़ार का हिस्सा हो चुके थे...अब सूर्योदय उन्हीं घरों में होता था जिन्होंने सूर्य का प्री-पेड कार्ड बनवा रखा हो और समय पर इसे रीचार्ज भी करते हों...अब अंधेरा भी बाज़ार के कब्ज़े में था. अंधेरों की भी अलग तरह की स्कीमें निकाल रखी थीं बाज़ार ने.’

धीरे-धीरे हम उस समय की तरफ बढ़ रहे हैं जब हमारे नाम और व्यक्तित्व की बाज़ार से अलग कोई पहचान ही शायद न बचे. उस समय हम सब सिर्फ कस्टमर होंगे, जिनकी पहचान उनके ‘कस्टमर कार्ड’ से ही हो सकेगी. हो सकता है ऐसे समय में हम खुद ही अपनी पहचान न कर सकें! उपन्यास का नायक भी कुछ इसी तरह अपना नाम और पहचान तक भूल चुका है. तब बाज़ार उसे उसकी पहचान करने में मदद करता है. ऐसे ही समय की बाज़ार और नायक की बातचीत का एक अंश -

‘नाक पर बहुत ध्यान न दें सर...आजकल तो जो नये कस्टमर कार्ड बनकर आ रहे हैं, उनमें तो नाक है ही नहीं...फ़ोटो से नाक हटाने का ट्रेंड चल रहा है आजकल’... बाज़ार की नये ट्रेंड्स पर नज़र रहती है...

‘पर...नकटा आदमी तो बड़ा ही अजीब लगेगा?’...

‘...क्या आपको कोई भी आदमी अजीब लग रहा है यहां?...सब नकटे हैं.’ बाज़ार ने समझाया.

‘नहीं, नहीं सबके नाक दिख तो रही है?’...

‘वह नाक नहीं, बस, नाक का भ्रम है. बाज़ार में आजकल भ्रम डिस्काउंट रेट पर मिल जाता है और नाक बड़े ऊंचे भाव पर बिक जाया करती है’...

‘नाक हर काम में बड़ी आड़े आती थी सर...फिर जब समय ने ही अपनी नाक उतार डाली हो तब ऐसे नकटे समय में अपनी नाक रखने का आग्रह करना बड़ी मूर्खता कहलाएगी. है न सर?’

ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में प्रसिद्ध था कि वहां सूरज कभी नहीं डूबता. लेकिन वह दौर भी खत्म हुआ. समय के फेर के आगे बड़ी-बड़ी ताकतें एक न एक दिन झुक जाती हैं. लेखक का विश्वास है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब बाज़ार के विरूद्ध भी विद्रोह की चिंगारी फूटेगी...और वही दिन होगा जब बाज़ार की बुनियाद उखड़नी शुरू होगी. ऐसे ही समय के प्रति आश्वस्त हो लेखक लिखता है -

‘सर, समझने की कोशिश तो कीजिए...दरअसल, समय ने विद्रोह कर दिया है.’

‘किसने? क्या कर दिया है?’ बाज़ार पूछने लगा...

‘समय ने विद्रोह?’ बाज़ार आश्चर्यचकित है.

‘हुजूर, समय अगर विद्रोह पर उतर आए तो फिर कोई कुछ भी नहीं कर पाता...’ मेकैनिक ने बात-बात में बड़ी फिलॉसफ़िकल-सी बात कह डाली थी...

बाज़ार सकते में है.

कभी समय भी उसके विरूद्ध विद्रोह कर सकता है, बाज़ार ने सोचा ही नहीं था. अपनी स्कीम में उसने इस बात का कभी कोई इंतज़ाम ही नहीं किया था. बाज़ार तो हमेशा ही स्वयं को समय से परे समझता रहा था. वह कितना ग़लत था!’

ज्ञान चतुर्वेदी का मानना है कि जिस रफ्तार से बाज़ार का दायरा बढ़ रहा है, वह दिन दूर नहीं जब बाज़ार की बाढ़ के पानी में सब डूब जाएंगे. और जो भी इसमें डूबने से बचने की कोशिश करेगा वह पागल समझा जाएगा. यह उपन्यास ऐसे ही कुछ पागलों की कथा बेहद संवेदनशील, जुनूनी, मार्मिक, दिलचस्प, चुटीले और व्यंग्यात्मक अंदाज में कहता है.

बाज़ार के अखंड साम्राज्य की भयावहता दिखाने के लिए लेखक ने जो काल्पनिक दुनिया रची है, वह न सिर्फ गुदगुदाती है बल्कि जबरदस्त चोट भी करती हुई चलती है. एक बानगी –

‘सबके घर अब किसी दुकान टाइप लगने लगे थे. घर में घर के लिए जगह नहीं रह गई थी.’

या फिर

‘सारी बस्ती बाढ़ में डूबने को थी. हर तरफ, बस बाज़ार ही बाज़ार था. घर डूब रहे थे. सम्बन्ध तो सबसे पहले डूबे. दोस्तियां गले-गले तक मटमैले पानी में थी.’

यह उपन्यास बाज़ार का मानवीकरण करके उसकी भावनाओं, योजनाओं और चिंताओं से हमें बेहद सूक्ष्मता और रोचकता से परिचित कराता है. उपन्यास की खास बात यह भी है कि यहां नायक और खलनायक दोनों बाज़ार ही हैं. जिन उपनायकों यानी कि पागल इंसानों की कथा इस उपन्यास में बुनी गई है, उनके कोई नाम नहीं हैं. जाहिर है कि लेखक उन अनाम पात्रों से पूरे समाज के अलग-अलग तबकों का प्रतिनिधित्व करना चाहता है. बाज़ार के ऐसे गहरे, सूक्ष्म, गंभीर, चिंतनीय प्रभावों पर इतने विस्तृत और रोचक तरीके लिखा गया हिंदी का यह संभवतः पहला ही उपन्यास है.

बाज़ार की बढ़ती महिमा और प्रकोप दोनों के बखान के लिए ज्ञान चतुर्वेदी ने जिस कल्पना का सहारा लिया है, वह अदभुत है. ज्ञान जी के शब्दों में कहें तो, ‘जीवन को बाज़ार से बड़ा मानने वाले पागलों’ और अच्छे-बुरे सभी ‘कस्टमर्स’ के लिए यह एक शानदार पठनीय उपन्यास है.